प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 18 जुलाई को पश्चिम बंगाल के दुर्गापुर में एकदम मंझे हुए अभिनेता की तरह सधे कदमों के साथ मंच पर पहुंचे. इसके बाद जो हुआ उसने तमाम लोगों को चौंका दिया.
दरअसल वहां जुटी भीड़ या बीजेपी नेताओं में से किसी भी ने जय श्रीराम के नारे नहीं लगाए. इसके बजाय, मंच से बंगाल की धार्मिक संस्कृति सहेजे दो उद्घोष गूंजे- "जय मां काली” और “जय मां दुर्गा”
इसमें कोई गड़बड़ नहीं थी, बल्कि यह एक सोचा-समझा संदेश था जो बंगाल के राजनीतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक लोकाचार के मुताबिक खुद को स्थापित करने की बीजेपी की कोशिश का हिस्सा है. पूरी हिंदी पट्टी में श्रीराम पर केंद्रित हिंदुत्व की राजनीति करने वाली एक पार्टी के लिए यह बदलाव काफी मायने रखता है.
इतना ही नहीं, दुर्गापुर रैली में सांस्कृतिक संकेतों की भरमार थी. इसको किसी राजनीतिक मंच के बजाय दुर्गा पूजा पंडाल की तरह सजाया गया था, जहां लगी आकृतियां उत्तर भारत के रामनवमी समारोह के बजाय बंगाल के शरदकालीन उत्सवों की तरह ज्यादा लग रही थीं. दुर्गापुर पूर्व से बीजेपी विधायक लक्ष्मण चंद्र घोरुई ने तो बाकायदा निमंत्रण पत्र भी भेजे थे जिनमें सिर्फ काली और दुर्गा का जिक्र था, श्रीराम का नाम भी नहीं लिया गया था.
ऐसा नहीं है कि यह बदलाव कोई पहली बार दिखा है. पिछले एक साल से बीजेपी खुद को 'बंगाली' रंग-ढंग ढालते हुए धीरे-धीरे अपनी पैठ मजबूत करने में जुटी है. पार्टी ने यह बदलाव लगातार नाकाम रहने के बाद अपनाया है. दरअसल, आक्रामक अभियानों के बावजूद बीजेपी तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) को सत्ता से बेदखल करने लायक बंगाली वोटों को अपनी ओर आकृष्ट नहीं कर पाई है.
इस बदलाव के बारे में समझने के लिए सबसे पहले तो यहां के सियासी समीकरणों को जानना होगा. सांस्कृतिक हिंदू बंगाली हिंदी पट्टी जैसी बहुसंख्यकवादी राजनीति का धुर विरोधी है. बंगाल हमेशा से वामपंथी राजनीति, भद्रलोक धर्मनिरपेक्षता और बौद्धिक महानगरीय जीवनशैली का गढ़ रहा है, जहां अयोध्या शैली वाला भगवा आकर्षण मतदाताओं के एक बड़े वर्ग के बीच बेअसर ही साबित होता है.
बीजेपी ने यहां एक सामान्य रणनीति से शुरुआत की थी, अपने उत्तर प्रदेश मॉडल को दोहराना. रामनवमी जुलूसों को बढ़ावा दिया, ममता बनर्जी सरकार के कथित मुस्लिम तुष्टिकरण को मुद्दा बनाया और खुद को सनातन धर्म के रक्षक के तौर पर लोगों के सामने रखा. लेकिन यह रणनीति बुरी तरह नाकाम ही साबित हुई, क्योंकि बंगाली भगवान श्रीराम को अपना सर्वोच्च देवता नहीं मानते.
2021 तक राम कार्ड एकदम स्पष्ट तौर पर विफल होने लगा था. बीजेपी के यहां हिंदुत्व को पूरी मजबूती के साथ बढ़ावा दिया, रैलियों में जय श्रीराम के नारे लगना सामान्य प्रक्रिया थी. खुद ममता बनर्जी ने इस रणनीति के जाल के उलझ गईं और मुसलमानों के साथ टकराव की कुछ घटनाएं भी सामने आईं. ऐसे प्रकरणों ने बीजेपी के आधार को मजबूत किया लेकिन अल्पसंख्यक टीएमसी के पीछे लामबंद होने लगे. नतीजा, बीजेपी ने वर्ष 2021 के विधानसभा चुनावों में कुल 294 सीटों में से 77 सीटें जीतीं. यह पिछले चुनाव की तुलना में एक प्रभावशाली वृद्धि तो थी, फिर भी पार्टी ने जितनी हवा बना रखी थी, संख्या उसके अनुरूप नहीं थी.
दुर्गापुर में अपनाया गया तरीका क्षणिक सोच का नतीजा नहीं था, बल्कि यह अच्छी तरह सोच-समझी रणनीति का हिस्सा था. बीजेपी के इस तरह देवी दुर्गा और देवी काली के प्रति अपनी श्रद्धा दिखाने का निर्णय हिंदुत्व को स्थानीय बनाने की रणनीति के तहत लिया है. ऐसा करके, मोदी ने संभवत: ममता की बनाई यह धारणा तोड़ने की कोशिश की है जिसमें बीजेपी को बंगाल पर हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान थोपने वाली 'हिंदी पट्टी' की एक पार्टी करार दिया जाता है.
बंगाल की सियायत की बात करें तो देवी काली को काफी शक्तिशाली माना जाता है. वे बंगाल में केवल धार्मिक आदर्श भर नहीं हैं बल्कि एक सांस्कृतिक प्रतीक भी हैं-आक्रामक, मातृत्वपूर्ण, क्रांतिकारी. रानी रश्मोनी से लेकर रामकृष्ण परमहंस और यहां तक रवींद्रनाथ टैगोर की रचनाओं में भी देवी काली बंगाल के जनमानस पर एक रहस्यमय पकड़ रखती हैं. वहीं, देवी दुर्गा व्यवस्था, सभ्यता और वार्षिक सामुदायिक उत्सव का प्रतिनिधित्व करती हैं.
बंगाल की नब्ज समझने वालों का मानना है कि मोदी खेमा श्रीराम को पराक्रमी योद्धा के तौर पर पेश करने के बजाय दुर्गा को बंगाली हिंदुत्व के नैतिक केंद्र के रूप में स्थापित करने की कोशिश कर रहा है. और, ऐसा करके वे दरअसल अपनी सांप्रदायिक छवि से बाहर आना चाहते हैं ताकि उन नरम हिंदू मतदाताओं को लुभाया जा सके जो उत्तर-शैली के श्रीराम जन्मभूमि वाले विजयघोष से असहज हैं.
बीजेपी आलाकमान का स्पष्ट मत है कि यह जोखिम उठाया जा सकता है. 2024 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी को बंगाल में 42 में से 12 सीटें मिलीं, जो 2019 की 18 सीटों की तुलना में काफी कम है. इस प्रदर्शन ने पार्टी नेतृत्व को सशंकित कर दिया, खासकर यह देखते हुए कि आक्रामक मुस्लिम लामबंदी और ममता बनर्जी की तरफ से बीजेपी को ‘बोहिरागातो’ (बाहरी) पार्टी के तौर पर प्रचारित करना काफी असरदार साबित हुआ है.
जैसे-जैसे 2026 के विधानसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं, मोदी के रुख में यह बदलाव बंगाल की अपनी शर्तों पर पार्टी की सांस्कृतिक जड़ों को मजबूत करने की एक जोरदार कोशिश नजर आता है. इसमें दीघा में भगवान जगन्नाथ के बारे में बात करना, बांग्ला में मंत्रोच्चार करना और भगवान श्रीराम की जगह मां दुर्गा के नाम का उद्घोष करना शामिल है.
बीजेपी ने 2021 का चुनाव अभियान पूरे जोरशोर से और आक्रामकता के साथ चलाया था. अब, नया संदेश गोपनीय और कम टकराव वाला है. इसका मतलब यह कतई नहीं है कि सांप्रदायिक रणनीति छोड़ दी गई है. बल्कि टैगोर के गौरव और बंगाली परंपराओं की आड़ लेकर इसे ज्यादा ‘सुसंस्कृत’ हिंदुत्व के मुलम्मे में लपेट दिया गया है.
दुर्गापुर की रैली में मोदी ने भारत की आध्यात्मिक और राष्ट्रवादी परंपराओं में बंगाल के योगदान की जमकर सराहना की. उन्होंने बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के वंदे मातरम् का जिक्र किया, स्वामी विवेकानंद को याद किया और बताया कि कैसे मां काली और मां दुर्गा भारत की आत्मा में बसी हुई हैं. लेकिन जो अनकही बात राजनीतिक रूप से अधिक मायने रखती है, वो ये कि उन्होंने श्रीराम का ज़िक्र नहीं किया. ऐसा लग रहा था मानो बीजेपी ने अपनी राजनीति के तुरुप के पत्ते को फिलहाल ताक पर रख दिया है.
उत्तर भारतीय मुखर हिंदुत्व और बंगाली सांस्कृतिक हिंदुत्व के बीच द्वंद्व अब खुलकर सामने आने लगा है. जमीनी स्तर पर बीजेपी कार्यकर्ता अभी भी रामनवमी रैलियां आयोजित करते हैं, और अक्सर पुलिस या प्रतिद्वंद्वी समूहों से भिड़ जाते हैं. आदिवासी और सीमावर्ती जिलों में पार्टी नेता मुस्लिम प्रवासियों के खतरे का ढिंढोरा पीटना जारी रखे हुए हैं. लेकिन शीर्ष स्तर पर एक नया संदेश उभर रहा है. भगवा झंडा तो है लेकिन उसे लहराने वाली हवा अब बंगाल के रुख की तरफ बह रही है.
मोदी पर निशाना साधते हुए टीएमसी के राष्ट्रीय महासचिव अभिषेक बनर्जी ने बीजेपी का मखौल उड़ाया और कहा कि वे अगले साल चुनावों के बाद उससे “जय बांग्ला” कहलवाएंगे. 21 जुलाई को कोलकाता में अपनी पार्टी के शहीद दिवस कार्यक्रम में अभिषेक ने कहा, “पहले वे बंगाल और बंगालियों का अपमान करते हैं. अब बंगाल आते हैं, श्रीराम को छोड़कर काली और दुर्गा का जाप करने लगते हैं. मैं वादा करता हूं कि 2026 के बाद उनसे “जय बांग्ला” कहलवाऊंगा.” 2021 के चुनावों के बाद से “जय बांग्ला” टीएमसी का नारा रहा है.
जाहिर है कि बीजेपी की चुनौती उसकी कल्पना से कहीं ज्यादा बड़ी है. बंगाल में किसी तरह का धार्मिक विभाजन नजर नहीं आता है. दुर्गा पूजा आयोजकों में अक्सर मुस्लिम कारीगर शामिल होते हैं. अगर मुहर्रम और दुर्गा प्रतिमा विसर्जन जुलूस एक ही दिन हों तो बहुत आसानी से बिना किसी हिंसा के इनका आयोजन हो सकता है.
बीजेपी का यह दावा कि तृणमूल कांग्रेस हिंदू विरोधी है, अभी पूरी तरह जड़ें नहीं जमा पाया है. इसलिए अब, श्रीराम का नाम लेकर ममता के खिलाफ मोर्चा खोलने के बजाया बीजेपी उनसे ‘दुर्गा’ को छीनने की कोशिश में जुट गई है. यह एकदम अलग ही तरह की सियासी रणनीति, जो जोखिम से भी भरी है.