पश्चिमी महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले में बॉम्बे हाईकोर्ट की एक नई पीठ ओर राज्य में चौथी हाईकोर्ट बेंच के गठन की अधिसूचना 1 अगस्त को जैसे ही जैसे ही जारी हुई वहां से डेढ़ हजार किलोमीटर दूर यूपी के मेरठ में सरगर्मियां बढ़ गईं. “पश्चिम उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट बेंच केंद्रीय संघर्ष समिति” ने तुरंत वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरिए पश्चिमी यूपी के 22 जिलों के बार अध्यक्षों और महामंत्री के साथ बैठक की.
समिति के पदाधिकारियों ने सरकार से सवाल किया कि जब कोल्हापुर में बॉम्बे हाईकोर्ट की चौथी बेंच खुल सकती है तो यूपी के मेरठ में हाईकोर्ट की तीसरी बेंच क्यों नहीं स्थापित हो सकती? मेरठ में हाईकोर्ट बेंच की मांग को लेकर पश्चिमी यूपी के वकीलों ने 4 अगस्त को हड़ताल कर प्रदर्शन किया.
इस तरह कोल्हापुर जिले में हाईकोर्ट बेंच खोलने की अधिसूचना ने यूपी में हाईकोर्ट बेंच की मांग के लिए आंदोलन को चिंगारी दिखा दी है. अपनी मांग के समर्थन में पश्चिमी यूपी के वकील एक बड़े आंदोलन की रूपरेखा बना रहे है जिन्हें स्थानीय जनप्रतिनिधियों का समर्थन भी मिल रहा है.
न्याय सुलभ हो, समय से मिले और न्याय को हासिल करने में रुपए-पैसे की कमी आड़े न आए. यही न्याय की अवधारणा भी है. लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों के लिए यह महज कहावत बनकर रह गई है. इंसाफ के लिए न सिर्फ लंबी दूरी तय करनी पड़ती है बल्कि वक्त और अनावश्यक रूप से धन की बर्बादी भी होती है. प्रदेश का सबसे अहम हिस्सा, लगभग सात करोड़ की आबादी वाला यह क्षेत्र खंडपीठ की मांग पिछले चार दशक से करता आ रहा है लेकिन अश्वासन की घुट्टी के अलावा कुछ हासिल नहीं हुआ है.
देश का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश जिसकी आबादी 20 करोड़ को पार कर चुकी है, वहां एक हाईकोर्ट इलाहाबाद में और खंडपीठ केवल लखनऊ में है. जबकि देश के कई अन्य राज्यों में कम जनसंख्या व क्षेत्रफल के बावजूद हाईकोर्ट की अधिक बेंच कायम है. उदाहरण के तौर पर मध्य प्रदेश, बिहार, और महाराष्ट्र को ही लें तो यहां आबादी (2011 की जनगणना के हिसाब से) 10-12 करोड़ के आसपास है फिर भी वहां कम से कम दो-दो खंडपीठ हैं. पश्चिम बंगाल में तो अब तीसरी बेंच जलपाईगुड़ी भी दे दी गई है.
मेरठ के एक वकील तंज भरे लहजे में बताते हैं कि वहां से इलाहाबाद हाईकोर्ट की दूरी 720 किमी तो पाकिस्तान के लाहौर हाईकोर्ट की दूरी महज 430 किमी ही है. क्षेत्रफल के नजरिए से देखें तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश का क्षेत्रफल 98 हजार 933 वर्ग किमी है, जो पूरे प्रदेश का 33.61 फीसद है. पश्चिमी यूपी का अधिक क्षेत्रफल होने के बाद भी मध्य क्षेत्र को लखनऊ खंडपीठ महज 62 हजार 363 वर्ग किमी पर ही दे दी गई. यही आंकड़े पश्चिमी यूपी के वकीलों को आक्रोशित कर रहे हैं. मेरठ बार एसोसिएशन के अध्यक्ष तथा “पश्चिम उत्तर प्रदेश हाई कोर्ट बेंच केंद्रीय संघर्ष समिति” के चेयरमैन संजय शर्मा कहते हैं, “12 करोड़ की आबादी वाले महाराष्ट्र में चार हाईकोर्ट बेंच हो गई, जबकि 25 करोड़ की आबादी वाले यूपी में सिर्फ दो बेंच क्यों? पश्चिम उत्तर प्रदेश के 22 जनपदें में सात करोड़ आबादी निवास करती है यहां एक भी बेंच नहीं दी जा रही है.”
इसी का नतीजा है कि पश्चिमी यूपी की जनता को न्याय पाने के लिए लंबी दूरी तय करनी पड़ रही है. मेरठ का व्यापारी वर्ग, कारोबारी, खेतिहर वर्ग सभी को केसों के निपटारे के लिए रोजाना पांच-छह घंटे लेट चलने वाली नौचंदी-संगम एक्सप्रेस में किसी तरह सफर कर इलाहाबाद हाईकोर्ट पहुंचना पड़ता है. मेरठ निवासी राजकुमार त्यागी बताते हैं, “मैं और मेरे पिता 10 से अधिक वर्षों से इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक पारिवारिक मुकदमा लड़ रहे हैं. केवल यात्रा करने और कार्यवाही में शामिल होने में ही कम से कम तीन दिन लग जाते हैं. सड़क मार्ग से, बिना रुके एक तरफ का सफर 11 से 12 घंटे का होता है.”
साल 1955 में तत्कालीन मुख्यमंत्री संपूर्णानंद ने मेरठ में हाईकोर्ट बेंच स्थापित करने की सिफारिश की थी. इसके बाद वर्ष 1976 में तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी की सरकार ने खंडपीठ स्थापित किए जाने का प्रस्ताव भेजा था. जनता पार्टी के शासन में राम नरेश यादव की सरकार ने भी इस मांग पर मुहर लगाई और पश्चिमी यूपी में हाईकोर्ट बेंच स्थापित करने के प्रस्ताव को कर उसे केंद्र सरकार को भेजा. इसके बाद बनारसी दास सरकार एवं बाद में पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के कार्यकाल में भी एक प्रस्ताव पारित कर हाईकोर्ट बेंच की स्थापना की मांग को संस्तुति प्रदान की गईं तथा प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा गया.
इस बीच केंद्र सरकार से किसी प्रकार का सकारात्मक रवैया न देखकर वर्ष 1980 में पश्चिमी यूपी के वकीलों ने मेरठ में हाईकोर्ट बेंच स्थापित करने की मांग को लेकर बड़ा आंदोलन किया था. हाईकोर्ट बेंच स्थापना आंदोलन के इतिहास पर नजर दौड़ाएं तो पश्चिमी यूपी में वर्ष 1980 से खंडपीठ पाने को आंदोलन का सिलसिला आज तक जारी है.
इस बीच तमाम दलों की सरकारें सत्तासीन हुई. चुनावी वायदे हुए, लेकिन धरातल पर स्थिति एक इंच भी नहीं बदली. मेरठ बार एसोसिएशन के महासचिव राजेंद्र राणा कहते हैं, "महाराष्ट्र की नवगठित कोल्हापुर पीठ का अधिकार क्षेत्र केवल छह ज़िलों तक सीमित है, और इसका मुकदमों का बोझ उत्तर प्रदेश की तुलना में काफ़ी कम है. इलाहाबाद हाईकोर्ट इस समय भारी लंबित मामलों के बोझ तले दबा हुआ है. इन मुकदमों में 55 फीसदी से अधिक पश्चिमी यूपी के ही हैं. विडंबना यह है कि दिल्ली, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और हरियाणा के उच्च न्यायालय भौगोलिक रूप से इलाहाबाद स्थित हमारे उच्च न्यायालय से आधी दूरी पर हैं." राणा यह भी सवाल खड़ा करते हैं कि जब राज्य और केंद्र, दोनों ही सरकारों का नेतृत्व बीजेपी कर रही है, तो उन्हें एक जायज़ मांग पूरी करने से क्या रोक रहा है?
जानकार बताते हैं कि पश्चिमी उप्र में हाईकोर्ट बेंच की स्थापना के लिए केवल केंद्र सरकार ही सक्षम है. वह संसद में प्रस्ताव लाकर हाईकोर्ट बेंच की घोषणा कर सकती है. पश्चिमी यूपी में हाईकोर्ट बेंच की स्थापना के लिए प्रदेश सरकार के किसी प्रस्ताव की जरूरत नहीं है और न ही हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की ही जरूरत है. इस बारे में केंद्र सरकार अटॉर्नी जनरल की विधिक राय पूर्व में प्राप्त कर चुकी है. देश के तीन राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार तथा जम्मू एंड कश्मीर में केवल केंद्र सरकार ही सीधे बेंच दे सकती है.
हाईकोर्ट के सीनियर वकील रमेश चंद्र बताते हैं, “स्टेट री-आर्गेनाइजेशन एमलगमेशन एक्ट 1956 सेक्शन 51 के तहत सरकार संसद में प्रस्ताव लाकर हाईकोर्ट बेंच की स्थापना की घोषणा कर सकती है. केंद्र सरकार को किसी के प्रस्ताव अथवा संस्तुति की आवश्यकता नहीं है. माननीय उच्चतम न्यायालय की संपूर्ण पीठ ने भी 'नसीरुद्दीन बनाम स्टेट ट्रांसपोर्ट अपीलेट ट्रिब्यूनल' रिपोर्टिंड इन 1997 एआइआर (सुप्रीम कोर्ट) पेज संख्या 331 में यूनाइटेड प्रोविन्स हाईकोर्ट्स (एमलगमेशन) आर्डर 1948 पैरा सात एवं 14 में भी बेंच बनाने की विस्तृत व्याख्या की है."
हाईकोर्ट की बेंच को लेकर आगरा और मेरठ में खींचतान
पश्चिमी यूपी में हाईकोर्ट बेंच न गठित हो पाने के पीछे वकीलों की आपसी प्रतिस्पर्धा और राजनीति भी जिम्मेदार है. लखनऊ में हाइकार्ट में तैनात रहे एक अधिकारी बताते हैं, “पश्चिमी यूपी में खंडपीठ गठित न किए जाने के पीछे जहां पूर्वी यूपी के वकीलों का दबाव माना जाता है, वहीं पश्चिमी यूपी के वकील और राजनेताओं का आपसी बिखराव भी जिम्मेदार है. पश्चिमी यूपी में बेंच गठन के लिए स्थान चयन को लेकर आगरा अपने आसपास के जिलों के साथ मेरठ की अगुवाई वाली केंद्रीय संघर्ष समिति से अलग हो चुका है. पश्चिम की एकता बनाने के लिए बीते दिन कई प्रयास भी हुए, लेकिन मेरठ की अगुवाई में आगरा आने को राजी नहीं है.”
आगरा में हाईकोर्ट बेंच की मांग करने वाले वकीलों का तर्क है कि अंग्रेजों ने वर्ष 1866 में आगरा में ही हाईकोर्ट की स्थापना की थी. वर्ष 1869 में हाईकोर्ट को आगरा से इलाहाबाद (वर्तमान में प्रयागजराज) ले जाया गया था. आगरा के वरिष्ठ वकील आर. के. शिवहरे कहते हैं, “1966 में हाईकोर्ट के सौ साल होने का जश्न आगरा में ही मनाया गया था. वर्ष 1982 में जसवंत सिंह आयोग का गठन किया गया था जिसने वर्ष 1982 में अपनी रिपोर्ट में आगरा में ही हाईकोर्ट बेंच के गठन की सिफारिश की थी.”
इधर कोरोना काल में वर्चुअल रूप से जमानत संबंधित केसों की सुनवाई शुरू की गई. जिसका सीधा फायदा लोगों को तो मिला ही, साथ ही केस की सुनवाई का वर्चुअल रास्ता भी तैयार हुआ. कोरोना काल में मेरठ में ही बनाए वर्चुअल सुनवाई चेंबर में हजार से अधिक जमानती प्रकरणें की सुनवाई की गई. हालांकि कोरोना खत्म होते ही अलग-अलग कारण बताकर वर्चुअल सुनवाई को बंद दिया गया. इसके बाद सभी जिलों में ई-सेवा केंद्र के साथ ई-फाइलिंग शुरू करने की अधिसूचना जारी की गई. अधिसूचना जारी होने के साथ मेरठ में कचहरी परिसर स्थित हेरिटेज बिल्डिंग के हाल में ई-सेवा केंद्र शुरू करने की व्यवस्था कई गई लेकिन ई-कोर्ट शुरू होती इससे पहले ही हाईकोर्ट ने इस व्यवस्था पर रोक लगा दी.
असल में प्रभावी राजनीतिक नेतृत्व न होने से पश्चिमी यूपी में हाईकोर्ट बेंच का आंदोलन महज वकीलों का आंदोलन बन कर रह गया है. सुलभ और सस्ता न्याय पाने की जरूरत आम जनता को है लेकिन इनकी दिक्कतों को आवाज देने वाले नेता की तलाश फिलहाल जारी है.