बहुजन समाज पार्टी (BSP) की राजनीति उत्तर प्रदेश में पिछले एक दशक से लगातार कमजोर होती रही है, लेकिन अब मायावती इस धारणा को तोड़ने की कोशिश में हैं. 9 अक्टूबर को लखनऊ स्थित मान्यवर कांशीराम स्मारक स्थल पर पार्टी संस्थापक की पुण्यतिथि पर होने वाला कार्यक्रम केवल श्रृद्धांजलि सभा नहीं होगा, बल्कि BSP के लिए राजनीतिक कमबैक की रणनीति का मंच साबित होने जा रहा है.
यह आयोजन 2021 के बाद का पहला बड़ा शक्ति प्रदर्शन होगा, जिसमें मायावती खुद मौजूद रहेंगी और कार्यकर्ताओं को संबोधित करेंगी. BSP ने इसे लेकर राज्य भर के कार्यकर्ताओं से “लखनऊ चलो” का आह्वान किया है. पार्टी मान रही है कि यह कार्यक्रम किसी राजनीतिक रैली से कम नहीं होगा और यहीं से 2027 के विधानसभा चुनाव की तैयारियों का आगाज होगा.
मायावती ने बीते सालों में खुद को सार्वजनिक रूप से सीमित रखा है. 2012 के विधानसभा चुनाव में सत्ता से बाहर होने के बाद उन्होंने ज़्यादातर समय अपने पॉश मॉल एवेन्यू स्थित बंगले तक ही अपनी राजनीतिक गतिविधियों को सीमित कर लिया था. यही वजह थी कि कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटने लगा और पार्टी लगातार चुनाव दर चुनाव कमजोर होती गई. साल 2007 में BSP ने 206 सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी, लेकिन 2012 में वह 80 सीटों पर सिमट गई. 2017 में यह संख्या घटकर 19 रह गई और 2022 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को केवल एक सीट मिली.
वोट प्रतिशत भी गिरकर 2007 में 30 फीसदी से घटते-घटते 2022 में 12.9 फीसदी तक आ गया. लगातार आई इस गिरावट ने BSP के कार्यकर्ताओं को निराश कर दिया और राजनीतिक विश्लेषकों ने पार्टी के भविष्य पर सवाल उठाने शुरू कर दिए. 9 अक्टूबर के कार्यक्रम की अहमियत इसलिए भी बढ़ जाती है क्योंकि यह आयोजन कांशीराम स्मारक में हो रहा है, जिसे मायावती ने 2007 में सत्ता में आने के बाद बनवाया था. यह स्मारक BSP कार्यकर्ताओं के लिए एक प्रतीक और प्रेरणास्थल माना जाता है. इसीलिए मायावती ने इसी जगह से चुनावी तैयारियों की शुरुआत करने का फैसला लिया है. यह साफ संदेश है कि पार्टी अपनी जड़ों और संस्थापक की विचारधारा के साथ दोबारा जुड़ रही हैं.
मगर अब मायावती अपनी पार्टी को फिर से खड़ा करने के लिए आक्रामक रणनीति पर उतर आई हैं. उन्होंने हाल ही में पार्टी संगठन का बड़ा पुनर्गठन किया है और मंडल या जोन, जिला, सेक्टर और बूथ स्तर तक समितियों का गठन किया है. पार्टी नेताओं की मानें तो 80 प्रतिशत काम पूरा हो चुका है और बाकी का काम 9 अक्टूबर के बाद तेज़ी से पूरा कर लिया जाएगा.
इस कवायद की सबसे खास बात यह है कि इस बार बूथ स्तर तक भाईचारा समितियां बनाई गई हैं, जिनका उद्देश्य विशेष रूप से OBC वोटरों तक पहुंचना है. BSP अब “एक मंडल, एक समन्वयक” की नीति अपनाने पर भी विचार कर रही है, ताकि मंडल स्तर पर जिम्मेदारी तय रहे और चुनाव तक स्थिरता बनी रहे. अगर कोई समन्वयक कमजोर प्रदर्शन करेगा तो उसे किसी दूसरे मंडल में भेजने की बजाय पद से हटा दिया जाएगा.
मायावती ने हाल की बैठकों में यह भी स्पष्ट किया कि विपक्षी दल मिलकर BSP को कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं और बहुजन समाज को उसके संवैधानिक अधिकारों से वंचित करना चाहते हैं. उन्होंने कार्यकर्ताओं को चेतावनी दी कि विपक्ष की इस साजिश से सावधान रहें और दलित, आदिवासी, पिछड़े, मुस्लिम और अन्य अल्पसंख्यकों को जोड़ने का अभियान तेज़ करें. यही वर्ग BSP की राजनीति का आधार रहा है.
पार्टी इस समय पुराने नेताओं को भी वापस लाने की कोशिश कर रही है. 6 सितंबर को पूर्व राज्यसभा सदस्य अशोक सिद्धार्थ को मायावती ने माफी मांगने के बाद पार्टी में बहाल कर दिया. वे फरवरी में पार्टी विरोधी गतिविधियों और गुटबाजी के आरोप में निष्कासित किए गए थे. सिद्धार्थ मायावती के भतीजे और हाल में ही बनाए गए पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक आकाश आनंद के ससुर भी हैं. उनकी वापसी केवल एक नेता की बहाली नहीं बल्कि इस बात का संकेत है कि BSP अब टूट-फूट को रोकने और एकजुटता दिखाने की दिशा में आगे बढ़ रही है.
पार्टी का भविष्य आकाश आनंद से भी जुड़ा हुआ है. मायावती ने हाल ही में उन्हें राष्ट्रीय संयोजक नियुक्त किया है. आकाश को बिहार विधानसभा चुनाव का प्रभारी भी बनाया गया है और वे 10 सितंबर से बिहार के कैमूर जिले के भभुआ से शुरू होने वाली “सर्वजन हिताय यात्रा” की तैयारियों में व्यस्त हैं. यही वजह थी कि वे 7 सितंबर को उत्तर प्रदेश इकाई की समीक्षा बैठक में अनुपस्थित रहे. इस अनुपस्थिति ने एक संदेश भी दिया है कि मायावती उत्तर प्रदेश में खुद मोर्चा संभालेंगी जबकि आकाश को बिहार और अन्य राज्यों में पार्टी का विस्तार करने की जिम्मेदारी दी गई है.
मायावती के एजेंडे में केवल संगठन नहीं बल्कि मुद्दों की राजनीति भी है. हाल ही में उन्होंने धार्मिक स्थलों और संतों के अपमान के मामलों को लेकर चिंता जताई. उन्होंने कहा कि यह सब समाज में नफरत और विभाजन फैलाने की राजनीतिक साजिश है और सरकारों को ऐसे तत्वों पर सख्त कार्रवाई करनी चाहिए. कानपुर के बुद्ध पार्क में शिवालय पार्क बनाने की योजना का उन्होंने विरोध किया और इसे दलित समाज की आस्था से खिलवाड़ बताया.
बाद में सरकार ने इस प्रस्ताव को रद्द कर दिया. मायावती ने इस फैसले का स्वागत किया और उम्मीद जताई कि ऐसे विवाद फिर कहीं और पैदा नहीं होने चाहिए. यह दिखाता है कि BSP प्रमुख अब फिर से दलित समुदाय के सांस्कृतिक और भावनात्मक मुद्दों पर मुखर हो रही हैं. इसके साथ ही मायावती ने आर्थिक मुद्दों पर भी निशाना साधा. उन्होंने अमेरिका द्वारा लगाए गए 50 प्रतिशत टैरिफ का उदाहरण देते हुए कहा कि BJP को अपनी नीतियों में सुधारवादी रुख अपनाना होगा और जनता व देश के हितों को ध्यान में रखना होगा. इस बयान से साफ है कि BSP प्रमुख राष्ट्रीय राजनीति में भी अपनी आवाज बुलंद करना चाहती हैं और खुद को केवल उत्तर प्रदेश की सीमाओं तक सीमित नहीं रखना चाहतीं.
पार्टी की रणनीति अब आने वाले पंचायत चुनावों को लेकर भी साफ है. BSP पंचायत चुनावों को विधानसभा चुनाव की तैयारी का सेमीफाइनल मान रही है. इसके लिए जिला और मंडल स्तर पर नए पदाधिकारी नियुक्त किए गए हैं और गांव-गांव जाकर बैठकों का सिलसिला शुरू हो चुका है. पार्टी कार्यकर्ताओं को यह निर्देश दिया गया है कि वे घर-घर जाकर बहुजन समाज को पार्टी से जोड़ें. पार्टी नेता मानते हैं कि पंचायत चुनावों में अच्छा प्रदर्शन BSP को विधानसभा तक गति देगा और कार्यकर्ताओं का मनोबल भी बढ़ाएगा्.
हालांकि, राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि BSP की राह आसान नहीं है. लखनऊ के प्रतिष्ठित अवध कालेज की प्राचार्य और राजनीतिक शास्त्र विभाग की प्रमुख बीना राय कहती हैं, “BSP के वोट प्रतिशत में लगातार गिरावट, बड़े नेताओं का पार्टी छोड़ना, संगठनात्मक कमजोरी और सपा-कांग्रेस तथा BJP जैसी पार्टियों का दलित और ओबीसी वोटरों पर दावा, ये सभी चुनौतियां मायावती के सामने खड़ी है. राय के मुताबिक BJP ने बीते सालों में दलित नेताओं को आगे कर इस वर्ग में पकड़ मजबूत की है.
सपा और कांग्रेस भी अब दलित-पिछड़े वोटरों को सीधे साधने की रणनीति पर काम कर रही हैं. ऐसे में मायावती को दोहरी चुनौती का सामना करना होगा, एक तरफ पार्टी के कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाना और दूसरी तरफ बहुजन समाज के वोटरों को यह विश्वास दिलाना कि BSP अभी भी उनकी सबसे बड़ी आवाज है. बीना राय कहती हैं, “मायावती जानती हैं कि अगर 2027 में BSP ने मजबूती नहीं दिखाई तो पार्टी का राजनीतिक अस्तित्व और भी सिकुड़ सकता है. यही वजह है कि उन्होंने संगठन को पुनर्गठित करने, पुराने नेताओं को वापस लाने और बड़े सार्वजनिक आयोजनों का रास्ता चुना है. 9 अक्टूबर का कार्यक्रम इसी रणनीति की शुरुआत है. पार्टी के भीतर भी यह संदेश दिया जा रहा है कि BSP फिर से सक्रिय हो चुकी है और कार्यकर्ताओं को मायावती के नेतृत्व में चुनावी मैदान में उतरना है.”
BSP का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि क्या वह अपने पुराने वोटरों को फिर से जोड़ पाती है और क्या दलित, ओबीसी और मुस्लिम समाज का एक साझा गठजोड़ बनाकर 2027 में कोई बड़ा असर दिखा पाती है? फिलहाल मायावती ने जिस तरह से राजनीतिक संदेश देना शुरू किया है, उससे यह तो तय है कि उनकी राजनीति को लेकर बनी निष्क्रियता की धारणा टूट रही है.