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माथेरान में हाथ-रिक्शा पर बैन! इस ईको सेंसिटिव हिल स्टेशन में अब क्या बदल जाएगा?

ब्रिटिश राज के दौरान मुंबई के नजदीक खोजे गए माथेरान हिल स्टेशन को पर्यावरण के लिहाज से बेहद संवेदनशील क्षेत्र माना जाता है. यहां कुछ आपातकालीन सेवाओं को छोड़ दें तो किसी भी तरह के ईंधन-चालित वाहनों के इस्तेमाल की अनुमति नहीं है

माथेरान में पर्यटकों को ले जा रहा एक ई-रिक्शा
अपडेटेड 27 अगस्त , 2025

सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में महाराष्ट्र सरकार को देश के एकमात्र पैदल यात्री हिल स्टेशन माथेरान में हाथ-रिक्शों का इस्तेमाल बंद करने का निर्देश दिया है. कोर्ट ने इसे एक “अमानवीय” प्रथा करार देते हुए प्रशासन को इसकी जगह इस्तेमाल के लिए ई-रिक्शा खरीदने का निर्देश दिया.

मुंबई से करीब 80 किलोमीटर दूर स्थित माथेरान को 1850 के दशक में ब्रिटिशकाल में बसाया गया था. इस शहर में एम्बुलेंस और फायर ब्रिगेड जैसी आपातकालीन सेवाओं को छोड़कर ईंधन से चलने वाले किसी भी तरह के वाहन का प्रवेश प्रतिबंधित है. माथेरान घूमने के इच्छुक पर्यटकों को अपने वाहन हिल स्टेशन से लगभग 3 किलोमीटर दूर दस्तूरी नाका पर पार्क करने पड़ते हैं.

यह हिल स्टेशन एक पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र (ESZ) है और यहां स्थानीय लोगों और पर्यटकों की आवाजाही के लिए 94 हाथ-रिक्शे उपलब्ध हैं. एक नैरो गेज ‘टॉय ट्रेन’ है और यात्रियों को लाने-लेजाने के लिए 460 घोड़े भी इस्तेमाल किए जाते हैं.
माथेरान नैरो-गेज हिल रेलवे नेरल से माथेरान तक लगभग 20 किलोमीटर की दूरी तय करने में लगभग दो घंटे का समय लेती है. इस हेरिटेज लाइट ट्रेन सेवा की स्थापना 1907 में समाजसेवी सर आदमजी पीरभॉय ने की थी. सामान और अन्य तमाम आवश्यक वस्तुएं 127 लाइसेंस धारी कुलियों और 200 से अधिक टट्टुओं की मदद से ऊपर लाई जाती हैं. सुप्रीम कोर्ट ने एक पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर यहां 20 बैटरी चालित ई-रिक्शा चलाने की अनुमति दी है.

स्थानीय निवासियों के एक वर्ग को ये शिकायत है कि माथेरान के छात्रों को पैदल लंबी दूरी तय करनी पड़ती है और इस कारण उन पर शारीरिक बोझ इतना ज्यादा हो जाता है कि पढ़ाई से इतर गतिविधियों के लिए न तो उनके पास समय बचता है और न ही ऊर्जा रह जाती है. यही नहीं, बुजुर्ग, दिव्यांग और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से उबरे लोगों को भी आवाजाही सीमित कर अपने घरों तक ही सीमित रहने को मजबूर होना पड़ रहा है.

देश के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) जस्टिस बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने अपने फैसले में कहा है, “हम महाराष्ट्र सरकार को माथेरान में चरणबद्ध तरीके से और हर हाल में छह महीने के भीतर हाथ-चालित ठेले/रिक्शे चलाने की प्रथा को बंद करने का निर्देश देते हैं.”

न्यायालय ने आगे कहा, “राज्य या उनकी ओर से गठित कोई प्राधिकरण ई-रिक्शा खरीदेगा और उन्हें एक निश्चित राशि के भुगतान के आधार पर उपयुक्त रिक्शा चालकों, आदिवासी महिलाओं या वंचित तबके के अन्य लोगों को किराये पर मुहैया कराएगा. ये बताने की कोई जरूरत नहीं है कि किराए पर ऐसे ई-रिक्शा आवंटित करने के मामले में पहले से ही ठेले/रिक्शा चलाने वालों को प्राथमिकता दी जाएगी.” अदालत ने कहा, “देश को आजादी मिलने के 78 साल बाद और संविधान लागू होने और अपने नागरिकों को सामाजिक और आर्थिक न्याय का वादा करने के 75 साल बाद भी इस तरह की अमानवीय प्रथा को जारी रखना भारत के लोगों के खुद से किए वादे के साथ विश्वासघात होगा.”

फैसले में कहा गया कि राज्य सरकार केवड़िया की तर्ज पर इस योजना को लागू करेगी. केवड़िया (सरदार पटेल सरोवर) में गुजरात सरकार ने स्टैच्यू ऑफ यूनिटी क्षेत्र विकास और पर्यटन प्रशासन प्राधिकरण (SoUADTGA) के सहयोग से ई-रिक्शे खरीदे हैं, जो सरदार पटेल सरोवर के आसपास रहने वाली आदिवासी महिलाओं को मामूली किराये पर दिए जाते हैं. इससे उन्हें आर्थिक रूप से सक्षम बनाने में मदद मिली है.

फैसले के मुताबिक, महाराष्ट्र सरकार के लिए इस योजना का अध्ययन करना और इसे माथेरान में लागू करना उचित होगा ताकि असली ठेले और रिक्शा चालकों का पुनर्वास हो सके और माथेरान और उसके आसपास की आदिवासी महिलाओं और अन्य वंचित लोगों को भी लाभ मिल सके.

विभिन्न विवादों के कारण सुप्रीम कोर्ट ने रायगढ़ के प्रधान जिला एवं सत्र न्यायाधीश से ई-रिक्शा आवंटन प्रक्रिया की जांच करने को कहा था. जांच में पाया गया कि असली रिक्शा चालकों को ई-रिक्शा आवंटित नहीं किए जा रहे. इसलिए न्यायालय ने रायगढ़ जिला कलेक्टर के अधीन माथेरान निगरानी समिति को असली रिक्शा चालकों की पहचान करने का निर्देश दिया.
कोर्ट ने राज्य सरकार को दस्तूरी नाका से शिवाजी महाराज की प्रतिमा के बीच सड़क पर मिट्टी के पेवर ब्लॉक बिछाने की अनुमति दी. लेकिन इससे आगे के रास्तों और ट्रैकिंग मार्गों पर पेवर ब्लॉक नहीं बिछाए जाएंगे. इससे सुनिश्चित होगा कि दस्तूरी नाका से शिवाजी महाराज प्रतिमा तक ई-रिक्शा की आवाजाही के लिए एक सुगम रास्ता उपलब्ध हो. आंतरिक सड़कें और ट्रैकिंग मार्ग केवल ट्रेकर्स और घोड़ों पर निर्भर लोगों के लिए उपलब्ध रहेंगे.

2011 की जनगणना के मुताबिक, माथेरान की जनसंख्या 4,393 है, जो 2001 में 5,139 थी. वहीं करीब 8,00,000 पर्यटक प्रतिवर्ष माथेरान आते हैं और मानसून पर्यटन भी इस हिल स्टेशन में काफी तेजी से लोकप्रिय हो रहा है.

माथेरान विकास ब्रिटिश शासनकाल के दौरान विकसित हुआ था. दरअसल, मई 1850 में ठाणे के जिला कलेक्टर ह्यूग पॉयंट्ज मैलेट को पश्चिमी घाट में एक अनूठी जगह नजर आई, जिसे बाद में धीरे-धीरे एक हिल स्टेशन के तौर पर विकसित किया गया. इस जगह नाम माथेरान पड़ने की भी वजह काफी रोचक बताई जाती है. कहा जाता है कि एक ग्रामीण ने मैलेट से मराठी में कहा—‘माथे रान हाय’ (वहां ऊपर जंगल है). माथेरान का इस्तेमाल अंग्रेज और उस समय का अभिजात वर्ग मुंबई की गर्मी से बचने के लिए करता था. आजादी के बाद भी घरेलू पर्यटकों ने ये परंपरा जारी रखी.

संरक्षित वन्यजीव आवासों के अलावा, माथेरान और महाबलेश्वर-पंचगनी जैसे हिल स्टेशन और गुजरात की सीमा से लगे पालघर के तटीय शहर दहानू ऐसे कुछ क्षेत्रों में शामिल हैं जिन्हें ईएसजेड घोषित किया गया है. 4 फरवरी 2003 को केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने माथेरान को ESZ घोषित किया था. इससे यहां पर पर्यावरण पर हानिकारक असर डालने वाली औद्योगिक और विकासात्मक गतिविधियों पर प्रतिबंध लग गया.

महाराष्ट्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (MPCB) ने अप्रैल में राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) को सौंपी एक रिपोर्ट में बताया कि इस हिल स्टेशन पर यात्रा और आवागमन के लिए घोड़ों के इस्तेमाल से पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंच रहा है. एनजीटी को दी अपनी याचिका में माथेरान निवासी सेवानिवृत्त शिक्षक सुनील शिंदे ने दावा किया था कि घाटी में प्रतिदिन तीन टन से अधिक घोड़ों का गोबर फेंका जाता है, जिससे पारिस्थितिकी को नुकसान पहुंचता है. इससे वायु, मिट्टी और जल प्रदूषित होता है जिसका लोगों की सेहत पर प्रतिकूल असर पड़ता है. ये अध्ययन रायगढ़ जिले के मानगांव के लोनेरे स्थित डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर टेक्नोलॉजी यूनिवर्सिटी (DBATU) ने सोलापुर के नागेश करजगी ऑर्किड कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी के सहयोग से किया था और अपनी अंतरिम रिपोर्ट पेश की थी.

रिपोर्ट में पर्यावरणीय स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए प्रतिदिन करीब 300 घोड़ों की वहन क्षमता सीमा लागू करने की सिफारिश की गई. इसमें घोड़ों की लीद के निपटारे के लिए विस्तृत कार्य योजना बनाने की भी जरूरत बताई गई, जिसमें खाद बनाने के परीक्षण शामिल है. रिपोर्ट में घोड़ों की आवाजाही में वृद्धि को चिंताजनक बताया गया है जो सीजन के दौरान प्रतिदिन 800 घोड़ों तक पहुंच गई है. रिपोर्ट कहती है कि इसने लीद निपटारे की नगरपालिका प्रणालियों की क्षमता पर भी सवाल खड़ा कर दिया है.

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