जून की 29 तारीख को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने अपनी महायुति सरकार के उस विवादास्पद फैसले को वापस ले लिया, जिसमें राज्य में पहली क्लास से हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में लागू करने का निर्णय लिया गया था.
इस फैसले की विपक्षी पार्टियों सहित साहित्यकारों और शिक्षा विशेषज्ञों ने कड़ी आलोचना की थी. लेकिन इससे भी अहम बात ये थी कि यह उद्धव ठाकरे (शिवसेना-यूबीटी) और राज ठाकरे (मनसे) के बीच की दूरी खत्म कर उनमें सुलह की संभावना पैदा कर रहा था.
29 जून को फडणवीस का यह फैसला उस समय आया जब शिवसेना (उद्धव गुट) और मनसे (महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना) ने 5 जुलाई को एक बड़े मोर्चे का ऐलान किया था. इससे ये अटकलें तेज हो गई थीं कि क्या ठाकरे बंधु राजनीतिक रूप से एक साथ आएंगे. महायुति सरकार के इस फैसले पर स्कूली छात्रों पर हिंदी थोपने के आरोप लगे थे.
फडणवीस ने कहा है कि सरकार द्वारा 16 अप्रैल और 17 जून को जारी किए गए आदेश रद्द कर दिए जाएंगे. उन्होंने कहा, "त्रि-भाषा नीति पर फैसला लेने के लिए एक नई समिति बनाई जाएगी, जो (रघुनाथ) माशेलकर समिति की रिपोर्ट का अध्ययन करेगी, इस नीति का विरोध करने वालों की आपत्तियां सुनेगी, और फिर हमारे छात्रों के हित में जो सही होगा, उस पर फैसला लेगी."
इस समिति की अध्यक्षता अर्थशास्त्री नरेंद्र जाधव करेंगे, जो पुणे विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति और पूर्व राज्यसभा सांसद भी हैं. जब यह समिति राज्य सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंप देगी, उसके बाद त्रिभाषा नीति लागू की जाएगी.
फडणवीस ने कहा कि पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की अगुआई वाली महा विकास अघाड़ी (एमवीए) सरकार ने माशेलकर समिति की रिपोर्ट को स्वीकार कर त्रि-भाषा फार्मूला लागू करने की सिफारिश मानी थी. उन्होंने उद्धव ठाकरे पर दोहरे मापदंड अपनाने का आरोप भी लगाया.
पहले सरकारी आदेश (जीआर) में पहली से पांचवीं क्लास तक के छात्रों के लिए हिंदी को अनिवार्य तीसरी भाषा बनाया गया था. लेकिन जब इसका जोरदार विरोध हुआ, तो दूसरा आदेश जारी किया गया जिसमें हिंदी को वैकल्पिक कर दिया गया, लेकिन कुछ शर्तों के साथ. हालांकि, इन शर्तों के चलते यह आरोप लगे कि हिंदी को पिछले दरवाजे से क्लासरूम में लाने की कोशिश की जा रही है.
वहीं जानकारों ने इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि छोटे बच्चों के लिए स्कूल में तीसरी भाषा सीखना लर्निंग और शिक्षा से जुड़ी चुनौतियां पैदा करेगा, क्योंकि वे अभी बहुत छोटे हैं. अगर प्राथमिक पाठ्यक्रम में तीसरी भाषा जोड़ी जाती है, तो इससे गणित जैसे जरूरी विषयों की अहमियत कम हो सकती है.
हिंदी को अनिवार्य बनाने के फैसले का विरोध सबसे पहले शिक्षाविदों और नागरिक समूहों, जैसे मराठी अभ्यास केंद्र के दीपक पवार ने शुरू किया था. लेकिन सरकार को अपने फैसले पर दोबारा सोचने के लिए जो सबसे बड़ा कारण बना, वह था मराठी अस्मिता के मुद्दे पर दोनों ठाकरे बंधुओं के एकजुट होने की संभावना.
मनसे शुरू करने से पहले राज ठाकरे अविभाजित शिवसेना की छात्र शाखा 'भारतीय विद्यार्थी सेना' (अब भंग हो चुकी) के अध्यक्ष थे. राज को तब अपने चाचा और शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे का राजनीतिक उत्तराधिकारी माना जाता था. लेकिन धीरे-धीरे उन्हें पार्टी में उद्धव ठाकरे के लिए रास्ता बनाना पड़ा और आखिरकार उन्होंने 2005 में शिवसेना छोड़ दी और अगले साल मनसे की स्थापना की.
उद्धव और राज ठाकरे ने कहा है कि 5 जुलाई की प्रोटेस्ट मीटिंग को अब एक "विजय मोर्चा" यानी जीत के जुलूस में बदला जाएगा, हालांकि इसका स्थान अभी तय नहीं हुआ है.
पिछले साल हुए विधानसभा चुनावों में शिवसेना (उद्धव गुट) और मनसे को करारी हार का सामना करना पड़ा. शिवसेना (यूबीटी) की विधानसभा में सीटें घटकर सिर्फ 20 रह गईं, जबकि मनसे, जिसने 2019 में एक सीट जीती थी, पूरी तरह से साफ हो गई. यहां तक कि राज ठाकरे के बेटे अमित भी माहिम सीट से शिवसेना (यूबीटी) के महेश सावंत से हार गए.
इस हार के बाद दोनों पार्टियों ने एक-दूसरे के साथ मेलजोल की कोशिशें शुरू कीं. बताया गया है कि उद्धव और राज ठाकरे ने आपस में बातचीत शुरू करने की पहल की, ताकि सुलह का रास्ता निकाला जा सके. 5 जुलाई का आयोजन ऐसा पहला मौका होगा जब दोनों ठाकरे भाई दशकों बाद एक साथ मंच पर नजर आएंगे.
शिवसेना को एक भावनात्मक आधार वाली पार्टी माना जाता है. अगर दोनों ठाकरे एकजुट होते हैं, तो यह मुंबई और आसपास के इलाकों में उनके कोर मराठी वोटरों को फिर से सक्रिय कर सकता है और इस साल होने वाले बृहन्मुंबई महानगरपालिका (BMC) चुनावों में उन्हें फायदा पहुंचा सकता है. वहीं मुंबई में बीजेपी को गैर-मराठी भाषी समुदायों जैसे गुजराती, मारवाड़ी, जैन और उत्तर भारतीयों के बीच मजबूत समर्थन हासिल है, जिससे वह इस मुद्दे पर थोड़ा पीछे नजर आ सकती है.
हालांकि बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने के मजबूत समर्थक के रूप में देखा जाता है, लेकिन यह नीति स्कूल शिक्षा विभाग के तहत बनाई जा रही थी, जिसका नेतृत्व उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की अगुआई वाली शिवसेना के दादाजी भूसे कर रहे थे. इससे शिंदे गुट दुविधा में पड़ गया. वहीं उपमुख्यमंत्री और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के अध्यक्ष अजित पवार ने भी इस नीति पर असहमति जताई थी, और बताया जाता है कि 29 जून की राज्य मंत्रिमंडल की बैठक में इस मुद्दे को लेकर विरोध भी हुआ.
विडंबना यह है कि 5 जुलाई को वर्ली में NSCI डोम में होने वाले आयोजन को एक ऐसे कार्यक्रम के रूप में देखा जा रहा है जो उद्धव और राज को एक साथ ला सकता है. ठीक वैसा ही एक विरोध मार्च 32 साल पहले राज ठाकरे ने निकाला था जिसने दोनों चचेरे भाइयों के बीच कलह के बीज बोए थे, और जो आगे चलकर उनमें विभाजन का कारण बना.
बात दिसंबर 1993 की है. तब राज ठाकरे भारतीय विद्यार्थी सेना का अध्यक्ष हुआ करते थे. उन्होंने राज्य की दूसरी राजधानी नागपुर में शीतकालीन सत्र के दौरान महाराष्ट्र विधान भवन तक बेरोजगारों का एक मोर्चा निकाला था. इससे पहले राज ने महाराष्ट्र का व्यापक दौरा कर इस मोर्चे के लिए समर्थन जुटाया था, और युवाओं से उन्हें जबरदस्त समर्थन भी मिला था.
वरिष्ठ पत्रकार नारायण अठावले उर्फ अनिरुद्ध पुनर्वसु ने वह मेमोरेंडम लिखा था जिसे राज ठाकरे को बाद में राज्य सरकार को सौंपना था. अठावले बाद में 1996 में शिवसेना के लोकसभा सांसद भी चुने गए. यह साफ था कि नागपुर का मोर्चा बहुत बड़ा होने वाला है. मोर्चे से एक रात पहले राज को 'मातोश्री' (बांद्रा ईस्ट, मुंबई में ठाकरे परिवार का निवास) से फोन आया, जिसमें उनसे कहा गया कि वे सुनिश्चित करें कि उद्धव भी उस जनसभा में बोल सकें.
राज ठाकरे असहज हो गए क्योंकि उन्हें लगा कि उद्धव उनके काम का श्रेय लेना चाहते हैं. अगले दिन, जब उद्धव एक ट्रक पर बनाए गए अस्थायी मंच पर बैठे थे, तब वरिष्ठ नेता मनोहर जोशी ने घोषणा की कि उद्धव सभा को संबोधित करेंगे, और यह उनका पहला भाषण होगा. इसे एक सहज निर्णय के रूप में पेश किया गया. राज ने बाद में 50,000 लोगों की भीड़ वाले मोर्चे को संबोधित किया.
हालांकि अब दोनों ठाकरे भाइयों के बीच बातचीत की शुरुआत से शिवसेना समर्थकों में उम्मीद जागी है कि वे पुराने मतभेद भुलाकर एक हो जाएंगे. शिवसेना (यूबीटी) और मनसे को आने वाले स्थानीय निकाय चुनावों में खासकर मुंबई में बड़ी चुनौती का सामना करना है, जहां उभरती हुई बीजेपी देश की सबसे अमीर नगरपालिका बीएमसी में सत्ता में आने के लिए पूरी तरह तैयार नजर आ रही है.
बीएमसी चुनाव तीनों सेनाओं (शिवसेना-यूबीटी, शिंदे गुट और मनसे) के लिए वजूद की लड़ाई माने जा रहे हैं, क्योंकि ये सभी एक ही राजनीतिक विचारधारा से निकले हैं. अगर ठाकरे भाइयों की ताकत बढ़ती है, तो इसका सीधा नुकसान शिंदे गुट को होगा. इसके उलट, बीजेपी को हिंदी भाषी, गुजराती, मारवाड़ी और उच्च जाति व उच्च वर्ग के मराठी वोटरों का समर्थन प्राप्त है, इसलिए ठाकरे भाइयों के बीच किसी भी सुलह का राजनीतिक असर उस पर अपेक्षाकृत कम पड़ेगा.