"सपा और बसपा के उम्मीदवारों की मदद करो, ये जितने मजबूत होंगे, उतना हमें फायदा होगा. यही कांग्रेस को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाएंगे." ये बातें केंद्रीय गृहमंत्री और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के वरिष्ठ नेता अमित शाह ने 30 अक्टूबर को मध्य प्रदेश के ग्वालियर में चुनावी तैयारियों की समीक्षा बैठक में भाजपा कार्यकर्ताओं से कहीं.
अमित शाह के इस बयान का सीधा सा मतलब यह है कि मध्य प्रदेश में समाजवादी पार्टी (सपा) या बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को जो भी वोट मिलेंगे, वह कांग्रेसी खेमे के वोट होंगे और इससे केंद्र और प्रदेश की सत्ताधारी भाजपा को चुनावों में लाभ होगा. दरअसल, 2024 के लोकसभा चुनाव में एकजुट होकर भाजपा का मुकाबला करने के लिए बने इंडिया गठबंधन की चार पार्टियां मध्य प्रदेश में अलग-अलग चुनाव लड़ रही हैं.
राज्य में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का विवाद सुर्खियों में रहा. लेकिन सपा के अलावा प्रदेश में आम आदमी पार्टी (आप) और नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड (जदयू) ने भी अपने उम्मीदवार चुनावी मैदान में उतार दिए हैं.
उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी ने पहले कोशिश की कि कांग्रेस उसे इंडिया गठबंधन के तहत प्रदेश में कुछ सीटें लड़ने के लिए दे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इसे लेकर दोनों पार्टियों के नेताओं के बीच सार्वजनिक तौर पर टीका-टिप्पणी भी हुई. जब बात नहीं बनी तो सपा ने प्रदेश की 43 सीटों पर अपने उम्मीदवारों के नामों की घोषणा कर दी. इनमें से 19 सीटें ऐसी हैं जिन पर 2018 में कांग्रेस जीती थी.
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी ने मध्य प्रदेश के लिए 70 उम्मीदवारों की घोषणा की है. पार्टी कुछ और सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारने की योजना पर काम कर रही है. इंडिया गठबंधन में बेहद सक्रिय भूमिका निभा रहे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड) ने भी प्रदेश में 10 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं. कहां तो नीतीश कुमार का नाम इस गठबंधन के संयोजक पद के दावेदार के तौर पर चल रहा था और अब उनकी पार्टी मध्य प्रदेश में कांग्रेस से दो-दो हाथ करती नजर आ रही है.
प्रदेश की 92 सीटों पर कांग्रेस का मुकाबला अपने इंडिया गठबंधन के साझेदारों से होना है. अभी मध्य प्रदेश की 26 सीटें ऐसी हैं जहां कांग्रेस के अलावा इंडिया गठबंधन की दो और पार्टियों सपा और आप के भी उम्मीदवार मैदान में हैं. जबकि तीन सीटें ऐसी हैं जहां कांग्रेस के सामने भाजपा के अलावा जेडीयू और आप के भी उम्मीदवार हैं. प्रदेश के छतरपुर जिले की राजनगर विधानसभा सीट पर इंडिया गठबंधन के चार साझेदारों यानी कांग्रेस, सपा, आप और जदयू के उम्मीदवार मैदान में हैं. 2018 के चुनाव में कांग्रेस यह सीट सिर्फ 732 वोटों से जीती थी. जबकि उस चुनाव में इस सीट पर सपा प्रत्याशी को 23,783 वोट मिले थे.
ऐसी ही कई और सीटें हैं, जिन पर मामूली अंतर से कांग्रेस 2018 में जीती या हारी थी और जहां इस बार मुकाबले में उसके सामने सिर्फ भाजपा ही नहीं बल्कि इंडिया गठबंधन की उसकी सहयोगी पार्टियां भी हैं. जिन 92 सीटों पर कांग्रेस के सामने उसके इंडिया गठबंधन की सहयोगी पार्टियों के उम्मीदवार मैदान में हैं, उनमें से नौ सीटों पर 2018 में कांग्रेस बहुत मामूली अंतर से चुनाव जीती थी. इनमें से चार सीटें ऐसी हैं, जहां कांग्रेस 1,000 से भी कम वोट से जीती थी. ग्वालियर दक्षिण की सीट कांग्रेस सिर्फ 121 वोटों से जीती थी. इस बार आप का उम्मीदवार यहां कांग्रेस के लिए मुश्किलें पैदा कर सकता है. इसी तरह से जबलपुर उत्तरी सीट पर कांग्रेस को सिर्फ 578 वोटों के अंतर से जीत हासिल हुई थी. इस बार यहां जदयू ने अपना उम्मीदवार उतार दिया है.
वहीं इन 92 सीटों में से छह सीटें ऐसी हैं, जहां कांग्रेस मामूली अंतर से हारी थी. इनमें मैहर की सीट कांग्रेस 2,984 वोटों से हारी थी. जबकि सपा उम्मीदवार को यहां 11,202 वोट मिले थे और आप के प्रत्याशी के खाते में 1,795 वोट गए थे. इस बार भी सपा और आप के उम्मीदवार मैदान में हैं. यही कहानी सिंगरौली विधानसभा क्षेत्र की भी है. 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को भाजपा के 41.02 प्रतिशत के मुकाबले 40.89 प्रतिशत वोट मिले थे. लेकिन भाजपा के 109 सीटों के मुकाबले उसे इससे अधिक 114 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. सपा को 1.30 प्रतिशत और आप को 0.66 प्रतिशत वोट मिले थे.
2018 में जदयू भाजपा के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का हिस्सा थी और मध्य प्रदेश चुनाव नहीं लड़ी थी. लेकिन इन तथ्यों से साफ तौर पर पता चलता है कि मध्य प्रदेश में जिन सीटों पर करीबी मुकाबले की स्थिति होगी, वहां इंडिया गठबंधन में कांग्रेस के साझेदार भी उसके लिए काफी मुश्किलें पैदा करने वाले हैं. अगर मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव कांग्रेस मामूली अंतर से हारती है और इसमें उसके साझेदारों की भूमिका दिखती है तो जाहिर है कि इससे पूरे इंडिया गठबंधन के लिए 2024 की राह मुश्किल हो सकती है.