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कोसी-मेची परियोजना : बाढ़ से मुक्ति के दावे के बीच इस प्रोजेक्ट को लेकर क्यों उठ रहे सवाल?

इस बार के केंद्रीय बजट में बिहार को बाढ़ से मुक्ति दिलाने के नाम पर जिस कोसी-मेची नदी जोड़ो परियोजना की सबसे अधिक चर्चा हुई, उसे लेकर विशेषज्ञ और स्थानीय लोग सवाल उठा रहे हैं

पटना में कोसी-मेची नदी जोड़ परियोजना पर एक बैठक के दौरान की तस्वीर
पटना में कोसी-मेची नदी जोड़ परियोजना पर एक बैठक के दौरान की तस्वीर
अपडेटेड 23 अगस्त , 2024

"हमारे यहां इस बात का हल्ला है कि अब कोसी नदी में कभी बाढ़ नहीं आएगी. सरकार यहां का बाढ़ खींच कर मेची नदी में बहा देगी. कोसी में बाढ़ के सीजन में तीन लाख-चार लाख क्यूसेक पानी आता है जबकि नहर में अभी 15 हजार क्यूसेक पानी छोड़ा जाता है. कहते हैं अब 5247 क्यूसेक पानी और छोड़ा जाएगा. चार लाख क्यूसेक में 20 हजार कम हो जायेगा तो बाढ़ खतम हो जाएगा? कुआं से दो बाल्टी पानी निकाल लिये तो क्या कुआं सूख जाएगा?" सुपौल से पटना आए गौकरण सुतिहार जब ये सब बता रहे थे तो वे काफी गुस्से में थे.

सुतिहार कोसी नदी के मसलों पर लगातार संघर्ष करने वाले संगठन कोसी नवनिर्माण मंच की बैठक में भाग लेने यहां आये थे. अपनी कहानी बताते हुए वे कहने लगे, "2021 की कोसी बाढ़ में हमारा पूरा गांव (सुपौल जिले के किशनपुर प्रखंड का सोनबरसा) नदी में कट कर विलीन हो गया. लोग अब अलग-अलग जगह घर बना कर रह रहे हैं. हमलोग पुनर्वास के लिए डीएम साहब के पास जाते हैं तो वे कहते हैं कि 2021 में तो बाढ़ आया ही नहीं था. अब हम उनको कैसे बतायें हमारा तो घर-दुआर, खेत-पथार सब कोसी में समा गया, बाढ़ कैसे नहीं आया."

कोसी-मेची नदी परियोजना /स्रोत - National Water Development Agency (NWDA)
कोसी-मेची नदी परियोजना /स्रोत - National Water Development Agency (NWDA)

पटना के माध्यमिक शिक्षक संघ के भवन में आयोजित इस बैठक में कोसी के अलग-अलग इलाकों से कई लोग आये थे. वे सब एक ही बात कह रहे थे कि जब लोकसभा के बजट सत्र में कोसी-मेची परियोजना को स्वीकृति मिली तो सरकारी अफसरों से लेकर कर्मचारियों और कई नेताओं ने ये कहना शुरू कर दिया कि कोसी पीड़ितों का संकट अब खत्म हो गया. यह परियोजना लागू हो जाएगी तो वहां बाढ़ का संकट खत्म हो जायेगा. 

इस शोर के बीच कोसी नवनिर्माण मंच से जुड़े लोगों ने इस परियोजना का डीपीआर (विस्तृत परियोजना रिपोर्ट) मंगवाया. कोसी नदी की समस्या पर पिछले कुछ साल से अध्ययन कर रहे आईआईटी मुम्बई से पासआउट राहुल यादुका और कोसी पीड़ितों की लड़ाई लड़ने वाले सामाजिक कार्यकर्ता महेंद्र यादव ने इस परियोजना के लाभ-हानि का अध्ययन किया और फील्ड में जाकर लोगों से मिले.

इसी अध्ययन पर आधारित रिपोर्ट जारी करने के लिए यह बैठक बुलाई गई थी. इससे पहले भी बिहार के सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कोसी-मेची परियोजना को लेकर एक बैठक बिहार दलित विकास मंच के परिसर में आयोजित की थी, जिसमें बिहार में नदियों के मसले पर काम करने वाले कई एक्सपर्ट्स जुटे थे. सभी लोगों ने इस परियोजना के दावों को अतिरेक भरा और इसे गैरजरूरी बताया था.

इसमें नदी और पर्यावरण के मसले पर काम करने वाले एक्सपर्ट गोपाल कृष्ण ने विशेष रूप से अपनी राय रखी. कोसी समेत उत्तर बिहार की विभिन्न नदियों पर शोधपरक अध्ययन करने वाले एक्सपर्ट दिनेश कुमार मिश्र भी अखबार में आलेख लिखकर इस परियोजना को गैरजरूरी बता चुके हैं.

यह हैरत की बात इसलिए लगती है, क्योंकि एक तरफ विशेषज्ञ और कोसी-सीमांचल के आमलोग इस परियोजना को गैरजरूरी बताते हैं, वहीं दूसरी तरफ सरकार इसे बाढ़ से मुक्ति दिलाने वाली परियोजना कह रही है.

भीमनगर में कोसी बराज के पास यहीं से निकलती है पूर्वी कोसी नहर
भीमनगर में कोसी बराज के पास यहीं से निकलती है पूर्वी कोसी नहर

अभी हाल में पेश बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतरमण ने कहा था, "बिहार हर साल बाढ़ से जूझता है. इससे निपटने और सिंचाई की सुविधा बढ़ाने के लिए सरकार ने 11,500 करोड़ रुपये की राशि का प्रावधान किया है, जिससे कोसी-मेची नदी जोड़ो परियोजना समेत कई अन्य परियोजनाएं का काम होगा." इस घोषणा पर धन्यवाद देते हुए बिहार के पूर्व जल संसाधन मंत्री और जदयू के कार्यकारी अध्यक्ष संजय कुमार झा ने कहा, "नेपाल से आने वाली नदियों की बाढ़ बिहार में हर साल तबाही लाती है. हमें खुशी है कि केंद्र सरकार ने पहली बार बजट में बिहार की बाढ़ को नोटिस में लिया है."

मगर 'कोसी-मेची नदी जोड़ो परियोजना, दावे और हकीकत' नाम से जारी अध्ययन रिपोर्ट में महेंद्र यादव और राहुल यादुका मुख्य रूप से यही लिखते हैं कि इस परियोजना के दो लक्ष्य बताये जा रहे हैं. पहला - कोसी नदी के किनारे रहने वाले लोगों को हर साल आने वाली बाढ़ से मुक्ति और दूसरा - सीमांचल यानी महानंदा बेसिन के लोगों के लिए सिंचाई की सुविधा. मगर दोनों दावे अतिरेक भरे हैं.

रिपोर्ट बताती है कि राष्ट्रीय जल विकास अभिकरण (एनडब्लूडीए) द्वारा तैयार इस परियोजना की डीपीआर बताती है कि इसमें हिमालय से उतर कर सुपौल-सहरसा के इलाके में बहने वाली कोसी नदी और किशनगंज में बहने वाली मेची नदी को 117.5 किमी लंबी एक लिंक नहर से जोड़ा जाना है. इस लिंक नहर में 41.3 किमी लंबी नहर पूर्वी कोसी नहर के नाम से पहले से तैयार है. लिहाजा उसी नहर की लंबाई को 76.2 किमी और बढ़ाया जाना है. इन दोनों के बीच बहने वाली 14 अन्य नदियों को भी यह नहर साइफन के जरिये पार करेगी. 

डीपीआर में बताया गया है कि इस नहर से 20247 क्यूसेक पानी छोड़ा जाएगा, जबकि अभी मौजूदा नहर की पानी छोड़ने की क्षमता 15 हजार क्यूसेक है, जिसमें हर साल खेती के मौसम में पानी छोड़ा जाता है. इस तरह देखें तो महज 5247 क्यूसेक पानी ही अतिरिक्त छोड़ा जाएगा. साथ ही उसमें ये बताया गया है कि इस साल सात जुलाई को कोसी नदी में भीमनगर बराज के पास 3.96 लाख क्यूसेक पानी आया था. अमूमन हर साल बाढ़ के मौसम में तीन से चार लाख क्यूसेक पानी आ ही जाता है. ऐसे में अगर तीन-चार लाख क्यूसेक पानी में से नहर में 20 हजार क्यूसेक पानी बहा दिया जाए तो क्या इससे बाढ़ का संकट हल हो जाएगा?

रिपोर्ट में यह भी लिखा गया है कि इस परियोजना के जरिये महानंदा बेसिन के इलाके में सिंचाई की सुविधा बढ़ाने का दावा भी अतिरेक भरा और गैरजरूरी है. डीपीआर में बताया गया है कि इस परियोजना से महानंदा बेसिन में 2.15 लाख हेक्टेयर जमीन की सिंचाई होगी. हालांकि साथ ही यह भी कहा गया है कि सिंचाई सिर्फ खरीफ के सीजन में होगी.

किशनगंज के इलाके में बहने वाली मेची नदी
किशनगंज के इलाके में बहने वाली मेची नदी

परियोजना के इसी डीपीआर में ये भी लिखा है कि मॉनसून में इस इलाके में 1640 मिमी बारिश होती है. औसतन 55 दिनों की बारिश होती है. महेंद्र यादव कहते हैं, "ऐसे में खरीफ के सीजन में महानंदा बेसिन में सिंचाई की जरूरत नहीं के बराबर है. वहां हमने लोगों से बातचीत की तो उन्होंने भी कहा अगर रबी के सीजन में सिंचाई की सुविधा होती तो फायदे की बात होती. खरीफ में तो यह इलाका खुद ही बाढ़ में डूबा रहता है."

वे आगे बताते हैं, "महानंदा बेसिन की नदियों के सघन जाल से वो पूरा इलाका पानी से लबालब भरा रहता है. इसलिए यह परियोजना उस इलाके के लिए भी गैरजरूरी है. इसके बावजूद हजारों करोड़ रुपये खर्च करके इस परियोजना को लागू करने की कोशिश की जा रही है." इधर महानंदा बेसिन के लोग बताते हैं कि हमने कभी नहर के जरिये सिंचाई देने की मांग की ही नहीं. पता नहीं क्यों यह परियोजना लागू की जा रही है. 

इस मामले पर अमौर के विधायक अख्तरुल ईमान कहते हैं, "कोसी-मेची नदी जोड़ो परियोजना धोखे का पुलिंदा है. वह मामला जनहित का नहीं, खानपान का है. उधर सुपौल के लोगों को कह रहे हैं कि आपको बाढ़ से निजात मिल जाएगी. इधर हमारे इलाके के लोगों को कह रहे हैं कि आपको सिंचाई की सुविधा मिल जायेगी. दोनों को बेवकूफ बना रहे हैं. ये पानी हमें रबी के सीजन में नहीं देंगे, बरसात के मौसम में देंगे. तब हमें पानी की जरूरत उतनी कहां है. यहां के किसानों को रबी में पानी की जरूरत है. बरसात में तो मुश्किल से दस-पंद्रह दिन पानी का सूखा पड़ता है. यहां के लिए लिफ्ट इरिगेशन योजना ठीक है. यह योजना तो बेवजह की है."

बहरहाल, इस संबंध में जब हमने जल संसाधन विभाग के इंजीनियर इन चीफ इरिगेशन नंद कुमार झा से बात की तो उन्होंने ये स्वीकार किया कि चार लाख क्यूसेक वाली कोसी नदी से बीस हजार क्यूसेक पानी नहर में छोड़ने से कोसी की बाढ़ से राहत नहीं मिल सकती. उन्होंने कहा, "इस परियोजना का मुख्य लक्ष्य सिंचाई है, बाढ़ से राहत नहीं. हां, जितना भी पानी कम होगा उतनी राहत तो मिलेगी. वे यह भी स्वीकार करते हैं कि फिलहाल सिंचाई सिर्फ खरीफ के सीजन में होगी."

यह पूछे जाने पर कि सिर्फ 5270 क्यूसेक पानी से सीमांचल के इलाके में कितनी सिंचाई होगी, उन्होंने बताया, "फिलहाल तो पानी मौजूदा नगर के टेल एंड तक भी नहीं जा पा रहा, मगर हम कोशिश करेंगे कि इस परियोजना के जरिए सीमांचल के उन इलाकों में सिंचाई हो जहां खरीफ में पानी की दिक्कत रहती है."

वे आगे बताते हैं, "ये सच है कि बारिश में मौसम में सीमांचल बाढ़ से प्रभावित रहता है, मगर जिन इलाकों में बाढ़ नहीं आती वहां सिंचाई का संकट रहता है. इसलिए यह योजना उनके लिए लाभदायक हो सकती है."

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