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पेड़ लगाए, सितार बजाया, गौरैयों को बचाया और अब शिक्षक बनेंगे केबीसी विनर सुशील कुमार

बिहार सरकार में शिक्षक की नौकरी पाने की वजह से केबीसी विनर सुशील कुमार इन दिनों खबरों में हैं. मगर उन्होंने यह नौकरी क्यों की, पांच करोड़ रुपए का ईनाम जीतने के बाद भी सरल और सहज जीवन क्यों चुना, उनसे बातचीत पर आधारित इस रिपोर्ट में ऐसे और भी सवालों के जवाब शामिल हैं

अपडेटेड 27 दिसंबर , 2023

“हमारे सितार शिक्षक संजय कुमार शर्मा ने एक दिन हमसे कहा था, सुशील जी, शिक्षक बन जाइये महाराज. एगो आर्थिक आय का साधन हो जायेगा. फिर खूब मस्त सितार बजाया जायेगा घूम-घूम के.” शर्मीले, संकोची और खुशमिजाज अपने जमाने के केबीसी विनर सुशील कुमार हंसते हुए यही कहते हैं, जब उनसे हम पूछते हैं कि आप शिक्षक क्यों बन गये.

2011 के 'कौन बनेगा करोड़पति' सीरीज में पांच करोड़ रुपए जीतने वाले चंपारण के सुशील कुमार इन दिनों फिर से खबरों में हैं. उन्होंने बिहार लोकसेवा आयोग द्वारा आयोजित शिक्षक नियुक्ति परीक्षा की दो श्रेणियों में सफलता हासिल की है. छठी से आठवीं कक्षा की श्रेणी में भी और ग्यारहवीं-बारहवीं की श्रेणी में भी.

कभी ईनाम में पांच करोड़ रुपये की बड़ी राशि जीतने वाला व्यक्ति आज कुछ हजार रुपये की सैलरी वाली शिक्षक की नौकरी क्यों करना चाह रहा है, यह सवाल सबके मन में है. इसलिए जब से उनका रिजल्ट आया है, वे लगातार मीडिया से घिरे हैं और इंटरव्यू दे रहे हैं. हमारे आग्रह पर उन्होंने हमारे लिए भी वक्त निकाला और लंबी बातचीत की.

जाहिर सी बात है, सितार बजाने वाली बात उन्होंने हल्के-फुल्के मजाकिया लहजे में कही थी. मगर छात्रों और युवाओं को पढ़ाना और उन्हें प्रेरित करना उन्हें अच्छा लगता है. वे कहते हैं, “मैं युवाओं को बताना चाहता हूं कि अच्छा जीवन क्या होता है. क्वालिटी लाइफ किसे कहते हैं. मैं उन्हें समझाना चाहता हूं कि देखो, मैं भी तुम्हारे बीच का ही आदमी हूं. सरकारी स्कूलों में पढ़-लिखकर आगे बढ़ने वाला. वैसे भी मुझे बच्चों को पढ़ाना काफी अच्छा लगता है. मैं अपने घर पर भी अपने बच्चों को पढ़ाता हूं. केबीसी में भी मैंने यह बात कही थी कि बच्चों को पढ़ाना मुझे पसंद आता है. तो समझिये, मुझे अपनी पसंद का काम मिल गया है.” 

सितार बजाते सुशील कुमार

अपने इलाके के गरीब बच्चों को शिक्षा का बेहतर अवसर उपलब्ध कराना सुशील की प्राथमिकताओं में रहा है. उन्होंने 2015 में ही पूर्वी चंपारण के एक गांव मछरगावां में मुशहर जाति के बच्चों को पढ़ाने के लिए एक सेंटर खोला था. उस सेंटर में दो शिक्षक 40-50 बच्चों को पढ़ाते थे. 2015 से 2020 तक यह सेंटर नियमित रूप से चलता रहा. 2020 में कोरोना के वक्त उन्हें यह सेंटर बंद करना पड़ा. वे उस सेंटर में शिक्षकों का मेहनताना और बच्चों के किताब-कापी-कलम-स्लेट आदि का खर्च अपनी जेब से देते थे. अक्सर इन बच्चों को मोटिवेट करने खुद पहुंच जाते थे और उन बच्चों के अभिभावकों से नियमित बातचीत करते थे.

सुशील कहते हैं, “अभी हाल ही में उस सेंटर से पढ़ने वाला एक बच्चा दसवीं की परीक्षा में पास हुआ है. वह मैट्रिक की परीक्षा पास करने वाला अपने टोले का पहला बच्चा है. यह जानकर मन खुश हो जाता है. अभी-भी उस गांव के लोग उन्हीं शिक्षकों से अपने बच्चों को पढ़ाते हैं. शिक्षकों का मेहनताना अब गांव के लोग खुद उठाते हैं. हम कभी-कभार जाते हैं तो बच्चों के लिए कॉपी-किताब लेकर जाते हैं.” अब सुशील बिहार के प्लस टू विद्यालय में नियमित बच्चों को पढ़ाया करेंगे.

मगर यह नौकरी क्यों? क्या आपको पैसों को दिक्कत हो गयी है? आपके बारे में पिछले कुछ समय से यह अफवाह भी उड़ती रही है कि आप कंगाल हो गये हैं. क्या यह बात सच है? “अरे क्या बतायें.” इस सवाल पर सुशील थोड़ा परेशान होकर कहते हैं. “2020 से ही ऐसी झूठी खबरें मीडिया में चल रही हैं. यह सब मेरी एक फेसबुक पोस्ट की वजह से हुआ. मैं दरअसल बहुत सीधा-सादा और सादगी से रहने वाला आदमी हूं. केबीसी में पांच करोड़ जीतने के बाद भी मैंने अपनी जीवनशैली बदली नहीं. ईनाम के पैसों से महंगी कार नहीं खरीदी, आलीशान घर नहीं बनवाया. ब्रांडेड कपड़े नहीं पहने. स्कूटी से चलता रहा और खुद संयमित जीवन जीते हुए लोगों की मदद करता रहा. कभी किसी के इलाज में पैसे कम पड़े तो उसकी मदद कर दी. तो मुझे मेरे आस-पास के लोगों ने आदर्श इंसान समझना शुरू कर दिया. अलग-अलग के गांव के लोग अपने बच्चों को आशीर्वाद दिलाने मेरे पास आने लगे. कहते थे, आप सिर पर हाथ रख देंगे तो यह भी आपके जैसा बन जायेगा.”

गौरैया का घोसला लगाना प्रिय है सुशील को

सुशील को खुद की ऐसी छवि से कोफ्त होती थी. वे कहते हैं, “लोग समझते थे, मैं शराब को हाथ नहीं लगाता, पार्टी नहीं करता. मगर मैंने तो दिल्ली जाकर शराब भी पिया था, पार्टी भी की. मैं सोचता अगर लोगों को दूसरे सोर्स से यह सब पता चलेगा तो उन्हें बुरा लगेगा. इसलिए मैंने खुद पोस्ट लिख दिया कि मैं शराब भी पीता हूं और पार्टी भी करता हूं. इस बात को मीडिया के कुछ लोगों ने गलत समझ लिया और खबर बना दी कि मैं शराब और पार्टी में अपने सारे पैसे गंवा चुका हूं. तब से ऐसी खबरें चल रही हैं.” सुशील आगे कहते हैं, “पैसों की जरूरत किसे नहीं होती, मगर मैंने यह नौकरी सिर्फ पैसों के लिए नहीं की है. पैसे मेरे लिए इतने महत्वपूर्ण है भी नहीं. क्योंकि मैंने कभी अपना खर्च बढ़ाया नहीं.”

सुशील की यह बात सच मालूम होती है. वे अभी भी अपने शहर में स्कूटी से चलते हैं, साधारण शर्ट और अक्सर आम से लगने वाले ट्राउजर में ही घूमते हैं. उन्होंने अब तक कार नहीं खरीदी है. घर भी साधारण तरीके से ही बनाया है. केबीसी में पांच करोड़ जीतने पर भी उन्होंने तय कर लिया था कि वे अपनी जीवनशैली में कोई बदलाव नहीं करेंगे.

मगर क्यों? सुशील इसकी वजह बताते हुए कहते हैं, “बचपन से मैं अंतर्मुखी किस्म का इंसान रहा हूं. इसलिए मेरी दोस्ती पत्र-पत्रिकाओं से अधिक रही. मैं नंदन, चंदामामा, चंपक और बालहंस जैसी पत्रिकाएं पढ़ता था. उन पत्रिकाओं के नायक ऐसे लोग होते थे जो समाज की भलाई के लिए काम करते थे. वे पैसे वाले नहीं होते थे बल्कि धनाढ्य लोग तो उन कहानियों में विलेन हुआ करते थे. तो बचपन से मेरे लिए आदर्श इंसान ऐसे ही लोग थे, जो दूसरों की मदद करते थे. इसने मेरे बाल मन पर गहरा असर डाला.”

इसलिए सुशील ने केबीसी के इनाम के पैसे खुद पर कम और समाज पर अधिक खर्च किए. उन्होंने हाल के वर्षों में कई तरह के अभियान चलाये. उनमें एक चंपा से चंपारण अभियान था. इस अभियान के तहत उन्होंने पूरे चंपारण में चंपा के पौधे लगवाये. ताकि चंपारण के हर टोले में कम से कम दो-चार चंपा के पौधे दिखें. उन्होंने इस अभियान के तहत सत्तर हजार पौधे लगवाये. खुद पौधे लेकर लोगों के दरवाजे तक जाते थे. इससे उनका लोगों से जुड़ाव भी बढ़ा.

इसके बाद उन्होंने अपने शहर में पीपल और बरगद जैसे विशाल पेड़ों के पौधे लगवाने का अभियान शुरू किया. इस अभियान का मकसद इन विशाल वृक्षों को जिंदा रखना था. इस अभियान के तहत उन्होंने 400 पीपल और 34 बरगद के पेड़ लगवाये, जो अभी भी बचे हैं.
इसके बाद उन्होंने गोरैया संरक्षण का अभियान शुरू किया और घर-घर जाकर गोरैया के लिए लकड़ी का घोसला लगाने लगे. इस अभियान के तहत भी वे अब तक दस हजार से अधिक घरों में ऐसे घोसले लगा चुके हैं. उन्होंने साइकिल से चलने का अभियान शुरू किया, वह भी काफी सफल रहा.

सुशील ने अपने जिले में 70 हजार से अधिक पौधे लगाये हैं
सुशील ने अपने जिले में 70 हजार से अधिक पौधे लगाये हैं

इन अभियानों के बारे में सुशील कहते हैं, “केबीसी जीतने की वजह से अपने शहर में हमको लोग सेलिब्रिटी समझते हैं इसलिए हम अपनी इस पहचान का इस्तेमाल इस तरह के अभियान में करते हैं. किसी के घर केबीसी विनर सुशील कुमार खुद घोसला लगाने या चंपा का पेड़ लगाने पहुंच जाता है तो वह खुशी-खुशी तैयार हो जाता है. बस इतना ही है.”

सरल स्वभाव के सुशील को उनके शहर के लोग इस तरह के अभियानों के लिए पकड़ भी लेते हैं. उनके सितार सीखने की शुरुआत इसी तरह हुई. मोतिहारी शहर के इकलौते सितार वादक संजय कुमार शर्मा ने एक रोज उन्हें पकड़ लिया. कहने लगे, "सुशील हम इस शहर में सितार बजाने वाले इकलौते आदमी हैं. डायनासोर की तरह हैं, किसी रोज विलुप्त हो जायेंगे. फिर मोतिहारी से सितार बजाने की परंपरा भी खत्म हो जायेगी. आप सीख लीजिये. आप केबीसी विनर हैं तो आपसे दूसरे लोग भी सीख लेंगे." उनके अनुरोध को सुशील टाल नहीं पाये और सितार सीखने लगे. आज सुशील ठीक-ठाक सितार बजा लेते हैं और अपने शहर में सरकारी और गैर सरकारी आयोजनों में सितार वादन पेश भी करते हैं.

सुशील कहते हैं, “लेकिन सितार वादन की परंपरा हमसे आगे नहीं बढ़ पाई. पचासों लोग हमसे सितार सीखने आये और अंगुली कटवाकर भाग गये. वे कहते, तुम कैसे बजाते हो जी. हमारा लोगों का तो अंगुली कट जाता है यार. अभी भी मोतिहारी में अकेले हम और हमारे गुरुजी बचे हैं, जो सितार बजाते हैं.” 

इस तरह सुशील पांच करोड़ जीतने के बाद भी ऐशोआराम की जिंदगी के फेर में नहीं फंसे, अपने मन का जीवन जी रहे हैं. वे कहते हैं, “इस जीवन का अपना सुख है. आत्मा का सुख. पहले मेरी पत्नी इस सुख को नहीं समझती थी. उसे मेरा दूसरों के लिए पैसे खर्च करना अच्छा नहीं लगता. कहती, अपने परिवार और अपने बच्चों के बारे में भी सोचा कीजिये. मगर अब वह समझने लगी है. वह कहती है, आप सच्चे और ईमानदार आदमी हैं, यह सबसे अच्छी बात है.”

मगर इस आत्मिक सुख के सफर में उन्हें सबसे अधिक खुशी उन्हें कब मिली? इस बारे में सुशील बताते हैं, “2019 में हमारे इलाके में चमकी बुखार का भीषण प्रकोप फैला था. लगातार बच्चे मर रहे थे. तब मैंने अपने शहर के सबसे अच्छे चिकित्सक से अनुरोध किया और मेरे कहने पर उन्होंने उस बस्तियों में हेल्थ कैंप लगाया, जहां सबसे अधिक बच्चे मर रहे थे. हमने लोगों को जागरूक किया और उन्हें इस बीमारी से बचने के तरीके बताये. उस अभियान में हमने अपना दिन-रात लगा दिया था. पता नहीं हमारे अभियान से कितने बच्चे बचे होंगे. मगर वहां जो काम हमने किया, उससे मुझे सबसे अधिक आत्मिक सुख मिला.”

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