जैन धर्मावलंबियों के प्रसिद्ध तीर्थ स्थल पारसनाथ पहाड़ (सम्मेद शिखर) पर एक बार फिर स्थानीय आदिवासी समुदाय ने दावा ठोका है. मरांग बुरू बचाओ संघर्ष समिति के लोगों ने सीएम हेमंत सोरेन से बीते 9 जून को मुलाकात कर पारसनाथ को संथालों के धार्मिक तीर्थस्थल घोषित करने की मांग की है. साथ ही इसके प्रबंधन, नियंत्रण के लिए ग्रामसभा को अधिकार और इसके संरक्षण के लिए आदिवासी धार्मिक स्थल संरक्षण अधिनियम बनाने की भी मांग की है.
समिति ने कहा कि मरांग बुरू (पारसनाथ पहाड़) को प्राचीन काल से ही संथाली समाज ईश्वर के रूप में पूजता आ रहा है. प्रतिनिधिमंडल ने सीएम को बताया कि छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम (सीएनटी) 1908, सर्वे भूमि अधिकार अभिलेख, कमिश्नरी कोर्ट, पटना हाईकोर्ट और प्रीवी काउंसिल कोर्ट के तहत संथालों को इस स्थल पर ‘प्रथागत’ अधिकार प्राप्त हैं. भूमि एवं धार्मिक स्थल संविधान के अनुसार राज्यों का विषय है.
इससे पहले साल 2021 में गिरीडीह जिले में स्थित पारसनाथ पहाड़ को केंद्र सरकार ने ईको टूरिज्म क्षेत्र घोषित करने का फैसला लिया था. इसके विरोध में साल 2023 में देशभर में जैन समुदाय के लोगों ने भारी विरोध प्रदर्शन किया और फिर केंद्र सरकार ने अपने इस फैसले को वापस ले लिया था. दरअसल जैन धर्मावलंबियों की आस्था के सबसे अहम केंद्रों में से एक सम्मेद शिखर इसी पहाड़ का हिस्सा है.
केंद्र सरकार की तरफ से 5 जनवरी 2023 को जारी पत्रों के मुताबिक पारसनाथ पहाड़ व उसके आसपास मांस-मदिरा के सेवन व उसकी बिक्री पर प्रतिबंध लगाए जाने की बात कही गई है. इनमें सम्मेद शिखर सिर्फ जैन समुदाय का विश्व प्रसिद्ध तीर्थ स्थल बताया गया है. संघर्ष समिति इसे जैन समुदाय के पक्ष में एकतरफा एवं असंवैधानिक आदेश मानती है. इसे भी रद्द करने की मांग की गई है.
अभी चर्चा में क्यों
साल 2023 में जैन समुदाय की तरफ से देश भर में हुए उस आंदोलन के बाद गुजरात की ज्योत नाम की संस्था ने झारखंड हाईकोर्ट में पीआईएल दाखिल की थी. इसमें कहा गया कि जिस तरह से हिंदुओं के लिए अयोध्या, मुसलमानों के लिए मक्का, ईसाइयों के लिए वेटिकन सिटी है, उसी तरह जैन धर्म के मानने वालों के लिए सम्मेद शिखर जी सबसे पवित्र है. राज्य सरकार इसे ईको टूरिज्म की तरह डेवलप करना चाहती है. जिससे यहां मांस, मदिरा का सेवन काफी बढ़ जाएगा. यहां पहले से ही शराब-मांस की बिक्री हो रही है. अवैध निर्माण हो रहे हैं. ईको टूरिज्म डेवलप होने के बाद यह और बढ़ जाएगा. जिससे इस पवित्र स्थल की पवित्रता पूरी तरह भंग होगी. संस्था की तरफ से सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील डैरियस खंबाटा पक्ष रखते हुए ये बातें कही थीं.
सुनवाई के दौरान झारखंड सरकार का पक्ष रखते हुए महाधिवक्ता राजीव रंजन ने यह तर्क देने की कोशिश की कि पारसनाथ पर्वत मरांग बुरू, संथाल जनजातियों के पर्वतीय देवता हैं. यह उनकी पूजा का एक महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल भी है. जैन समुदाय इस जनहित याचिका के माध्यम से संथाल जनजातियों के धार्मिक अधिकारों और परंपराओं में दखल देने की कोशिश कर रहा है.
बीते 2 जून को पीआईएल पर सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश रामचंद्र राव और जस्टिस दीपक रौशन की बेंच ने कहा, हमें इस तर्क में कोई दम नहीं दिखता क्योंकि याचिकाकर्ता ने कहीं भी संथाल जनजातियों की धार्मिक परंपराओं पर कोई आपत्ति नहीं जताई है. इसके विपरीत, याचिकाकर्ता की ओर यह आश्वासन दिया गया है कि जैन समुदाय की ऐसी कोई मंशा नहीं है और वे उन जनजातीय लोगों की धार्मिक परंपराओं का पूर्ण सम्मान करेंगे जो अपने देवता की पूजा के लिए पारसनाथ पर्वत आते हैं.
कोर्ट ने सरकार को निर्देशित किया कि सम्मेद शिखर जी की को संरक्षित रखे और वहां धार्मिक भावना के अनुरूप कार्य हो. इसके अलावा केंद्र सरकार की तरफ से 5 जनवरी 2023 को जारी निर्देशों का तत्काल पालन हो. कोर्ट ने डिस्ट्रिक्ट लीगल सर्विस अथॉरिटी को कहा है कि वह पारसनाथ जाकर यह पता करे कि वहां कोई अवैध निर्माण चल रहा है कि नहीं. साथ ही किस तरह के कर्मशियल बिजनेस चल रहे हैं. कितने स्कूल और आंगनवाड़ी केंद्र हैं, इसकी जानकारी दे.
पारसनाथ पहाड़ पर सम्मेद शिखर जी तक पहुंचने के रास्ते में आदिवासियों के दो पूजा स्थल हैं. जिसे जाहेर थान कहा जाता है. आदिवासी यहां अपनी परंपरा के अनुसार बलि देते हैं.
अब कोर्ट की टिप्पणी के बाद एक बार फिर आदिवासी समुदाय आंदोलन के मूड में है. मरांग बुरू बचाओ संघर्ष समिति के अध्यक्ष रामलाल मुर्मू कहते हैं, ‘’जब से आदिवासी समाज है, तब से समाज के लोग वहां पूजा करते आ रहे हैं. मांस मदिरा तो हमारी परंपरा का हिस्सा है. बलि प्रथा का पालन तो हमें करना ही होगा.’’
मुर्मू के मुताबिक, ‘’बैसाख महीने की पूर्णिमा को झारखंड, बंगाल, बिहार और ओडिशा के आदिवासी इसी पहाड़ पर चारों तरफ से जुटते हैं. जंगल के अंदर तीन दिन रहने के बाद हम एक जगह इकट्ठा होते हैं. इसे शिकारी प्रथा भी कहा जाता है. जैन समुदाय का कहना है कि इस प्रथा के तहत हम जंगल के अंदर जानवरों को मारते हैं. इसे बंद करना चाहिए. लेकिन ऐसा नहीं है, हम केवल खाने भर के लिए, परंपरा निभाने के लिए शिकार करते हैं.’’
वहीं 5 जनवरी 2023 को केंद्रीय वन, पर्यावरण एवं जलवायू परिवर्तन मंत्रालय ने राज्य सरकार को आदेश दिया था कि पारसनाथ जैनियों के सबसे पवित्र स्थल में से है. यहां पर पूर्णतः मांस मदिरा के सेवन और बिक्री पर रोक लगाने के लिए उचित्त कार्रवाई करे.
इंडिया अलायंस में तालमेल बिठाने के लिए बनी झारखंड स्टेट कॉर्डिनेशन कमेटी के सदस्य फागू बेसरा भी हेमंत सोरेन से मिलनेवाले डेलिगेशन में शामिल थे. वे कहते हैं, ‘’जैन समुदाय सामने से विरोध नहीं करता. वो सरकार और कोर्ट के सहारे हमारी परंपराओं को खत्म करने का साजिश रच रहे हैं.’’
पहले हुए विवाद के कारण
पूर्व मुख्यमंत्री रघुबर दास ने अपने कार्यकाल के दौरान साल 2019 में तय किया था कि पारसनाथ इलाके को ईको टूरिज्म क्षेत्र के रूप में विकसित किया जाए. इस पहल को आगे बढ़ाते हुए केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने पत्र जारी कर पारसनाथ पर्यटन विकास प्राधिकरण के गठन का आदेश दिया. इसी के संदर्भ में अक्टूबर 2022 में गिरिडीह जिला प्रशासन एक बैठक की, जिसमें जैन समुदाय ने पर्यटन शब्द पर आपत्ति दर्ज की थी.
इससे पहले 13 दिसंबर 2021 को राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने इसी पहाड़ पर स्थित आदिवासियों के पूजा स्थल (जाहेर थान) में जाकर पूजा की थी और वहां एक बोर्ड लगाया गया. जिस पर लिखा था, मरांग बुरू दिशोम मांझी थान.
इसके बाद साल 2023 जनवरी के पहले सप्ताह में एक वीडियो वायरल हुआ. जिसमें पारसनाथ पहाड़ी पर कुछ लोग पिकनिक मना रहे थे और मांस पका रहे थे. हालांकि यह वीडियो 2022 का ही था. यह वीडियो देशभर के जैन समुदाय के लोगों तक पहुंचा और वो आग बबूला हो गए.
फिर 28 दिसंबर 2022 को स्कूली छात्रों का एक दल पारसनाथ पहाड़ी देखने पहुंचा था. उसी वक्त नागपुर के एक जैन तीर्थयात्री संतोष जैन ने उन बच्चों को ऊपर जाने के रोक दिया. संतोष जैन का कहना था कि जूते-चप्पल पहनकर ऊपर नहीं जा सकते क्योंकि इससे तीर्थ अपवित्र होता है. यहीं से दोनों पक्षों में टकराव और देशभर में जैनियों ने धरना-प्रदर्शन शुरू कर दिया. जिसके बाद केंद्र सरकार ने पर्यटन स्थल घोषित करने के अपने फैसले पलट दिए थे.
तब जैन धर्मगुरू विनम्रसागर जी महाराज ने कहा कि सरकार को यहां भगवान नहीं, केवल रेवेन्यू दिख रहा है. अगर रेवेन्यू की ही आवश्यकता है तो जैन समाज भरपूर रूप से प्रदान कर सकता है.
इन सब के बीच जैनियों को कंधे और डोली पर लादकर सम्मेद शिखर जी तक पहुंचाने वाले स्थानीय आदिवासी और दलित समुदाय के लोग हैं. डोली उठाने का काम कर रहे मजदूरों के लिए ना तो ठहरने की व्यवस्था है ना ही शौचालय की. वो सड़क पर सोते हैं, तीर्थयात्रियों को तीर्थांटन कराते हैं. यानी तीर्थ की स्थिति में जो भी बदलाव हो, लेकिन इन लोगों के लिए अभी उम्मीद की किरण बहुत दूर है.