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झारखंड : सारंडा को घोषित किया सैंक्चुअरी, फिर कोर्ट क्यों जा रहे हेमंत सोरेन?

झारखंड की हेमंत सोरेन सरकार ने 14 अक्टूबर को सारंडा जंगल के 314.68 वर्ग किलोमीटर हिस्से को सैंक्चुअरी घोषित कर दिया है

हेमंत सोरेन ने पिता शिबू सोरेन को किया याद. (Photo: PTI)
सीएम हेमंत सोरेन
अपडेटेड 16 अक्टूबर , 2025

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद झारखंड सरकार ने सारंडा जंगल के 314.68 वर्ग किलोमीटर हिस्से को सैंक्चुअरी घोषित कर दिया है. 14 अक्टूबर को कैबिनेट के बैठक में सीएम हेमंत सोरेन ने इसकी घोषणा की. हालांकि इसके बाद मीडिया से बात करते हुए सीएम ने कहा, “मेरी चिंता सारंडा में रह रहे लोग हैं. मेरी लड़ाई ही इसी की है कि आखिर जिन लोगों ने जंगल को लगाया, बचाया, उन लोगों को ये नियम परेशान न करें. आखिर कब तक हम आदिवासियों को नियमों में बांधकर परेशान किया जाता रहेगा. सारंडा के लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए खनिज संसाधन को कुछ हद तक नजरअंदाज भी किया जा सकता है. लेकिन लोगों के अधिकारों से कोई समझौता नहीं.’’ 

हेमंत सोरेन ने आगे कहा, “हमारी सरकार उस क्षेत्र में रह रहे लोगों के अधिकारों की रक्षा की शर्त के साथ कोर्ट जाएगी, क्योंकि यह लड़ाई वहां के लोगों के साथ-साथ मेरी भी है. हम ये सुनिश्चित करेंगे कि वहां रह रहे लोगों का विस्थापन न हो.’’ एक तरफ सीएम रांची में पूरे मामले को लेकर कोर्ट जाने की बात कह रहे थे, वहीं दूसरी तरफ रांची से 140 किलोमीटर दूर पश्चिमी सिंहभूम जिला के मुख्यालय चाईबासा में सारंडा के आदिवासी इस घोषणा के खिलाफ सड़क पर उतर विरोध प्रदर्शन कर रहे थे. उन्होंने 25 अक्टूबर को आर्थिक नाकेबंदी की घोषणा की है. 

सैंक्चुअरी घोषित होने से क्या उस इलाके में रह रहे आदिवासियों को विस्थापित होना पड़ेगा? सीएम हेमंत सोरेन की चिंता उनको लेकर कितना सही है? सारंडा जंगल में हो, मुंडा और बिरहोर जनजाति के लोग रहते हैं. उन्हें आशंका है कि सैंक्चुअरी घोषित होने के बाद जिस वनोपज को खाकर और बेचकर उनका जीवन चल रहा है, उस पर उनका अधिकार खत्म हो जाएगा यानी आजीविका खतरे में पड़ जाएगी. 

राज्य के एक पूर्व वन्यजीव, प्रधान मुख्य वन संरक्षक यानी PCCF ने नाम न छापने की शर्त पर पहले तो इस पूरी आशंका को सिरे से खारिज कर दिया. उन्होंने साफ तौर पर कहा, “जो आदिवासी परिवार पहले से वहां रह रहे हैं, सरकार चाहे तो उन्हें दूसरी जगह रहने की जमीन दे सकती है, या फिर वे लोग वहीं रह सकते हैं. उनके वनोपज के इस्तेमाल पर कानूनी तौर पर भी कोई रोक नहीं होती. उनके बीच में जानबूझ कर भ्रम फैलाया जा रहा है. ये भ्रम वही लोग फैला रहे हैं जो अवैध माइनिंग के लाभार्थी हैं या हो सकते हैं.’’  

ये पूर्व PCCF यह भी दावा करते हैं, “ सैंक्चुअरी घोषित होने के वहां रह रहे लोगों को फायदा ही होगा, क्योंकि फिर बहुत हद तक जंगलों की अवैध कटाई रुकेगी. बाहरी लोगों का प्रवेश वर्जित होगा. घोषित एरिया में किसी तरह की माइनिंग एक्टिविटी नहीं की जा सकेगी. घोषित एरिया के आसपास जो माइनिंग पहले से चल रही है, वहां नियमों का अधिक सख्ती से पालन होगा.’’ 

आरके सिंह ने सारंडा जंगल में 8 साल रहकर रिसर्च की है. पूरे मामले में वे याचिकाकर्ता भी रहे हैं. सिंह बताते हैं, “अब तक खुले ट्रक में खनिज को ढोया जाता रहा है, उस पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाना होगा. प्रदूषित पानी जो पास के नदियों में छोड़ दे रहे थे, उस पर काफी हद तक नियंत्रण होगा. जमीन, पानी, हवा तीनों पहले के मुकाबले साफ होगी, इसका सीधा फायदा वहां रह रहे लोगों को ही होगा. पहले भी जहां सैंक्चुअरी घोषित की गई है, वहां रह रहे लोगों पर किसी तरह का प्रतिबंध नहीं लगाया गया है.” 

सारंडा को सेंक्चुअरी घोषित करने का मामला सुप्रीम कोर्ट में 2022 से चल रहा है. सिंह के मुताबिक 30 सितंबर तक कोई ग्रामीण विरोध नहीं कर रहा था. जब देखा कि कोर्ट ने कड़ा रुख अपनाया है, तब माइनिंग और खासकर अवैध माइनिंग से जुड़े लोगों और व्यापारियों की लॉबी ने स्थानीय नेताओं के साथ मिलकर विरोध करने का फैसला लिया. सिंह कहते हैं, “सारंडा जंगल के अंदर रह रहे लोगों को सूचना दी गई कि मंत्रियों की टीम आ रही है, आइए और सैंक्चुअरी का विरोध कीजिए. सारंडा इलाके में साल 1919 से माइनिंग हो रही है, जहां टाटा, सेल सहित कई अन्य कंपनियां माइनिंग करती है. माइनिंग चेन में काम करने वाले, या उस पर निगरानी रखने वाले, या फिर फैसला लेने वाले, शायद ही कोई व्यक्ति या संस्था होगी जो इस अवैध माइनिंग की लाभार्थी नहीं होगी.” 

14 अक्टूबर को ही चाईबासा की सांसद जोबा माझी ने कहा, “सैंक्चुअरी के नाम पर सारंडा को उजड़ने नहीं देंगे. जंगल में बसे लोगों के साथ अन्याय हुआ और कुर्बानी देने की नौबत आई तो हमारा परिवार सबसे आगे खड़ा रहेगा. सुप्रीम कोर्ट को जानवरों की चिंता है, लेकिन वहां रह रहे लोगों की नहीं. सारंडा के लोग खेती-बाड़ी कर गुजारा करते हैं, किसी से भीख मांगकर नहीं. इसलिए सुप्रीम कोर्ट को अपने फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए.” 

आरके सिंह एक बार फिर कहते हैं, “सरकार को यह खुद बताना चाहिए कि सैंक्चुअरी में रहने वाले आदिवासियों को स्वतः रोजगार मिल जाएगा. वे छोटी-मोटी दुकान खोल सकते हैं, जंगल सफारी के लिए गाड़ी चला सकते हैं, सरकारी डिपार्टमेंट कॉटेज बनाकर उन्हें रोजगार दे सकता है. वे जंगल के गाइड बनकर पैसे कमा सकते हैं.”  

कोर्ट में अब तक क्या हुआ 

साल 2022 में राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (NGT) ने झारखंड सरकार को सारंडा के 400 वर्ग किलोमीटर के इलाके को वन्यजीव अभ्यारण्य घोषित करने का निर्देश दिया था. लेकिन तय समय सीमा पर राज्य सरकार ने इसका पालन नहीं किया और मामला सुप्रीम कोर्ट चला गया. सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार को इस मामले में हलफनामा दायर करने को कहा. बीते 29 अप्रैल को राज्य सरकार की तरफ से वन विभाग ने कोर्ट को बताया कि 400 वर्गकिलोमीटर की जगह वह 575 वर्ग किलोमीटर के दायरे को अभ्यारण्य घोषित करने जा रही है. दायरा बढ़ाने का सुझाव वन विभाग को देहरादून स्थिति वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (WWI) की तरफ से हुए एक सर्वे के बाद मिला था. 

ऐसे में तत्कालीन PCCF सत्यजीत कुमार ने, उसी सुझाव के आधार पर सुप्रीम कोर्ट में बढ़े हुए इलाको को भी सैंक्चुअरी घोषित करने की बाद कह दी. ऐसा कहा जाता है कि इस पूरे प्रकरण की जानकारी राज्य के मुख्यमंत्री को नहीं थी. जब खान विभाग को पता चला तो उसके होश उड़ गए. विभाग के मुताबिक बढ़े हुए इलाके में खान विभाग के अनुसार लगभग 470 करोड़ टन लौह अयस्क का भंडार है. जिसकी इस वक्त अनुमानित लागत 25 से 30 लाख करोड़ रुपए हो सकती है. 

इधर बीते 17 सितंबर को सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अगर 8 अक्टूबर तक राज्य सरकार ने प्रस्तावित इलाके को अभ्यारण्य घोषित नहीं किया तो चीफ सेक्रेटरी को जेल जाना होगा. संभावित बड़े नुकसान से घबराई हेमंत सरकार ने पहले तो पांच मंत्रियों की कमेटी बनाई. जिसने सारंडा जाकर पूरे मामले की जानकारी ली. सारंडा में रह रहे आदिवासियों से राय ली. जहां 52 से अधिक गांवों के ग्राम प्रधानों ने अभ्यारण्य घोषित करने का विरोध किया है. उनका कहना था कि ऐसा होने के बाद वे जंगल से कुछ नहीं ले पाएंगे और उनका जीवन जीना मुश्किल हो जाएगा. 

विरोध के पीछे के इस तथ्य में कितना दम  

आरके सिंह विरोध के कारणों को विस्तार से समझाते हैं. वे कहते हैं, “पूरे मामले में सुप्रीम कोर्ट में एफिडेविट जमा करने के दौरान झारखंड सरकार ने सफेद झूठ बोला है. मसलन, राज्य सरकार ने कहा है कि सारंडा से उसे हर साल 5 से 8 हजार करोड़  रुपए का राजस्व आता है. दूसरा कि यहां हो रही माइनिंग पर 2.50 लाख से अधिक लोग निर्भर हैं. तीसरा कि यहां लौह अयस्क का खनन रुक जाएगा तो देश की अर्थव्यवस्था पर असर पड़ेगा.’’ 

सिंह आंकड़े रखते हुए दलील देते हैं, “भारतीय खान ब्यूरो (आईबीएम) के साल 2020 के सर्वे के मुताबिक पूरे देश में 2406 करोड़ टन लौह अयस्क है, वहीं झारखंड में 471 करोड़ टन. यानी करीब 19 फीसद. अगर यहां माइनिंग थोड़ी कम भी होगी तो देश के कुल उत्पादन पर बहुत फर्क नहीं पड़ेगा. दूसरी बात, साल 2011 की जनगणना के मुताबिक पूरे सारंडा की आबादी मात्र 53 हजार थी. बीते 15 साल में 22 फीसदी वृद्धि (एक दशक में इस इलाके की जनसंख्या वृद्धिदर ) के हिसाब से अधिकतम 1 लाख आबादी होती है. ऐसे में यह कहना कि 4.20 लाख आबादी सीधे तौर पर जुड़ी है, यह सफेद झूठ है. मामले की अगली सुनवाई 15 अक्टूबर को होने जा रही है, जहां हम सरकार के बताए तथ्यों को चैलेंज करने जा रहे हैं.’’ 

आरके सिंह यह भी दावा करते हैं कि आईबीएम के मुताबिक 2022-23 के मुताबिक सारंडा में कुल 2.3 करोड़ टन लौह अयस्क का उत्पादन किया गया. इसकी कीमत 6 हजार करोड़ रुपए है. जब वैल्यू ही इतनी है, तो केवल रेवेन्यू 5 से 8 हजार करोड़ रुपए कैसे आ जाएगा. सरकारी डेटा तो केवल लीगल माइनिंग का आता है. अगर राज्य सरकार के बताए आंकड़े सही हैं, तो साफ है कि अवैध माइनिंग भी चल रही है. 

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