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पिता की हत्या, इंदिरा गांधी से मिला ट्रैक्टर...वे घटनाएं जिनकी बदौलत शिबू सोरेन बने थे जननेता!

झारखंड आंदोलन के अगुवा और तीन बार राज्य के मुख्यमंत्री बने शिबू सोरेन के पिता की हत्या वह पहली घटना थी जिसने उनके जीवन की दिशा बदल दी

SHIBU SOREN DEATH
महाजनी प्रथा का विरोध करने पर शिबू सोरेन के पिता की हत्या हुई थी
अपडेटेड 5 अगस्त , 2025

भारत को आजाद हुए दस साल हो चुके थे. देश को अंग्रेजों से मुक्ति तो मिल गई थी, लेकिन जनता और देसी शासकों के बीच लड़ाई जारी रही. इसमें सोबरन सोरेन भी बतौर शिक्षक लड़ रहे थे. तब के बिहार में यह लड़ाई थी महाजनों के खिलाफ. लेकिन 27 नवंबर 1957 का दिन उनके लिए आखिरी दिन साबित हुआ. हरिभजन साव और फेकन साव नामक महाजनों ने उनकी हत्या कर दी. ये सोबरन सोरेन कोई और नहीं, शिबू सोरेन के पिता थे. 

13 साल के शिवलाल यानी शिवचरण मांझी (शिबू सोरेन के बचपन का नाम) पास में ही रामगढ़ जिले की गोला नामक जगह पर आदिवासी हॉस्टल में रह कर पढ़ाई कर रहे थे. बेचैन बालक अपने घर पहुंचा, फिर दोबारा हॉस्टल नहीं गया. पढ़ाई छूट गई, या यूं कह लीजिए कि छोड़ दी. इस आदिवासी किशोर के मन में तभी शायद ये बीज पड़े होंगे कि जिस वजह से पिता की हत्या हुई है, अब उसकी लड़ाई लड़ेंगे. 

वरिष्ठ पत्रकार अनुज सिन्हा ने शिबू सोरेन की राजनीति को 30 साल से अधिक तक कवर किया है. साल 2020 में उन्होंने ‘दिशोम गुरू शिबू सोरेन’ नामक किताब लिखी (दिशोम यानी देश-समुदाय को दिशा दिखाने वाला). किताब में वो लिखते हैं, ‘’शिबू सोरेन के आंदोलन का पहला कदम था गोला के रहने वाले विसु महतो को महाजनों से लड़कर न्याय दिलवाना. इस सफलता ने शिबू सोरेन के आगे की लड़ाई का रास्ता खोल दिया.’’  

लोगों का समर्थन मिलने लगा. स्थानीय आदिवासी जिनकी जमीन महाजनों ने हड़प ली थी, वो अपने ही जमीन पर महाजनों के लिए मजदूरी कर रहे थे. सूद पर पैसे उठा रहे थे, जिसके बदले उन्हें 500 फीसदी तक ब्याज देना पड़ता था. 

शिबू ने अपने समर्थकों के सात ‘धान काटो’ अभियान शुरू किया. यह उनका पहला संगठित सामाजिक अभियान था. लड़ाई शुरू हो गई थी. महाजन जिनके पास पुलिस का समर्थन था, उनकी तरफ से गोलियां चलती थीं तो शिबू के समर्थकों की तरफ से तीर-धनुष से जवाब दिया जा रहा था. इसी दौरान उन्होंने मुखिया का चुनाव लड़ा, लेकिन महाजनों के आगे हार गए. 

लड़ाई चल पड़ी थी. जाहिर है, मुकदमों का दौर भी शुरू होना था. मुकदमा हुआ भी. रामगढ़, धनबाद के इलाकों में उनके नाम की तूती बोलने लगी. एक मामले की सुनवाई के दौरान अधिकारी ने उन्हें धमकाते हुए कहा कि मारपीट बंद करो, नहीं तो तुम्हें बंद कर दूंगा. जवाब में बिना डरे शिबू सोरेन ने कहा, जब तक महाजन शोषण बंद नहीं करेंगे, हमारी कार्रवाई जारी रहेगी. आपको जो करना है, करते रहिए. 

जब इंदिरा गांधी के कहने पर तोहफे में ट्रैक्टर मिला  

साल 1972 में 4 फरवरी को धनबाद में झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) का गठन हुआ. शिबू सोरेन इसके पहले महासचिव बनाए गए थे. महाजनों के खिलाफ लड़ाई उग्र हो चुकी थी. लगातार मुकदमों और गिरफ्तारी के डर से वे ज्यादातर छिपकर लड़ रहे थे. यहां तक कि कई इलाकों में समानांतर सरकार भी चला रहे थे. बिहार में राजनीति भी तेजी से बदल रही थी. सन 1975 में जगन्नाथ मिश्र बिहार के सीएम बन चुके थे. 

जगन्नाथ मिश्र अपने एक संस्मरण में जिक्र करते हैं, “रांची ग्रीष्मकालीन राजधानी तो थी, लेकिन इस इलाके विकास और इसकी समस्याओं के समाधान की तरफ कभी ढंग से ध्यान नहीं दिया गया. पीएम इंदिरा गांधी अपने तरीके से इससे निपटने की कोशिश कर रही थीं. इसी क्रम में उनके पास शिबू सोरेन के आंदोलन की जानकारी भी पहुंच रही थी. मैंने पीएम इंदिरा को विश्वास में लेकर शिबू सोरेन से मिलने का तय किया. बैठक के बाद वादा किया कि अगर वो मुख्यधारा में लौट आते हैं तो उनके ऊपर दर्ज मुकदमे वापस ले लिए जाएंगे. शिबू इसके लिए तैयार भी हो गए. इसके बाद मैंने इंदिरा गांधी से नई दिल्ली में उनकी मुलाकात कराई. जिसके बाद पीएम के कहने पर उन्हें एक ट्रैक्टर दिया और कहा गया कि वो जनसेवा में लग जाएं.” 

लड़ते रहे, हारते रहे, हार कर जीतते रहे 

पहली बार मुखिया का चुनाव लड़ा, हार गए. पहली बार विधानसभा चुनाव लड़ा, इसमें भी हार गए. यहां तक कि सीएम रहते हुए विधानसभा चुनाव लड़ा और हार गए. देश के पहले सीएम जो पद पर रहते हुए हार गए. लेकिन एक विधायक, सांसद, सीएम से कहीं ऊपर देशभर के आदिवासियों, कमजोरों की आवाज बने. वो नेता बने. 

साल 1972 में पहली बार जरीडीह नामक विधानसभा क्षेत्र से झारखंड पार्टी के चुनाव चिह्न पर चुनाव लड़ा. उनका मुकाबला भारतीय जन संघ के नेता छत्रु महतो से था. हालांकि वे इस चुनाव में चौथे स्थान पर रहे और उन्हें मात्र 4984 वोट मिले. 

इसके बाद 1977 में विधानसभा के चुनाव हुए. उस वक्त JMM का गठन तो हो गया था, लेकिन पार्टी का रजिस्ट्रेशन नहीं हो पाया था. शिबू इस बार टुंडी से निर्दलीय प्रत्याशी बने. उनके सामने जनता पार्टी के सत्य नारायण दुधानी उम्मीदवार थे. यहां भी उन्हें हार का सामना करना पड़ा लेकिन अब उन्होंने चौथे से दूसरे स्थानी की दूरी तय कर ली थी. 

इस हार ने शिबू सोरेन को बेचैन कर दिया और वे यह सोचने पर मजबूर हो गए कि क्या इलाका बदल दिया जाए. दोस्तों की सलाह पर उन्होंने दुमका को अपना कार्यक्षेत्र बनाया. सन 1980 में लोकसभा के मध्यावधि चुनाव में एक बार फिर निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर दुमका से चुनाव लड़ा और कांग्रेस और जनता पार्टी के उम्मीदवारों को मात देते हुए 3513 वोट से जीत गए. 

इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सन 1984 में हुए लोकसभा के चुनाव में वो दुबारा दुमका से खड़े हुए लेकिन सहानुभूति की लहर में उन्हें एक बार फिर हार का सामना करना पड़ा. 

अगले साल यानी 1985 में बिहार विधानसभा का चुनाव होना था. आम चुनाव लड़ने के लिए पांच साल इंतजार करने के बजाय उन्होंने विधानसभा लड़ना तय किया. यहां उन्हें जीत मिली. इस इलाके में उनके प्रभाव को इस बात से भी समझा जा सकता है कि इस चुनाव में संताल परगना इलाके में की तमाम सीटों पर JMM के नेताओं को जीत मिली. 

सन 1989 में उन्होंने दुमका से लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीत गए. उन्होंने कांग्रेस प्रत्याशी को एक लाख से अधिक वोट से हराया था. दो साल के बाद सन 1991 में फिर लोकसभा के चुनाव हुए. इस बार उनके सामने बीजेपी की तरफ से बाबूलाल मरांडी मुकाबले में थे. एक बार फिर शिबू ने एक लाख से अधिक वोटों से जीत हासिल की. सन 1996 में फिर शिबू सोरेन ने बाबूलाल मरांडी को लोकसभा चुनाव में हरा दिया. 

इस बीच अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के गिरने के कारण सन 1998 में लोकसभा के मध्यावधि चुनाव हुए. यहां बीजेपी ने वादा कर दिया कि अगर उनकी सरकार बनती है तो झारखंड राज्य बना दिया जाएगा. इसका असर हुआ और शिबू सोरेन लगभग 13 हजार वोटों से हार गए. वाजपेयी सरकार एक साल चली और फिर गिर गई. सन 1999 में चुनाव हुए, लेकिन इस बार शिबू सोरेन की जगह उनकी पत्नी रूपी सोरेन को उम्मीदवार बनाया गया क्योंकि 1998 में शिबू सोरेन राज्यसभा के सदस्य बन गए थे. चुनाव में रूपी सोरेन को महज 5000 वोटों से हार का सामना करना पड़ा. 

साल 2002 में एनडीए के सपोर्ट से वो राज्यसभा के सदस्य बने. लेकिन बाबूलाल मरांडी के सीएम बन जाने के बाद दुमका में उप-चुनाव हुए. शिबू सोरेन ने राज्यसभा के दो महीने के कार्यकाल को खत्म किया और   इस्तीफा दे दिया. इस उपचुनाव में भी उन्हें 90 हजार से अधिक मतों से जीत मिली. साल 2004 के लोकसभा चुनाव में भी उन्हें 1 लाख से अधिक वोट से जीत मिली. 

चढ़ते-उतराते शिबू सोरेन झारखंड ही नहीं, देशभर के सबसे बड़े आदिवासी नेता बन गए थे. लेकिन सबसे अपमानजनक हार अभी बाकी थी. साल 2008 में 27 अगस्त को वे दूसरी बार झारखंड के सीएम बने थे. लेकिन उस वक्त वे विधायक नहीं थे. छह महीने के भीतर उन्हें विधानसभा की सदस्यता हासिल करनी थी. साल 2009 में उन्होंने तमाड़ विधानसभा का उपचुनाव लड़ा और एक अनजान प्रत्याशी राजा पीटर से हार गए. 

इसके बाद साल 2009 में ही वो फिर दुमका से सांसद बने, साल 2014 में मोदी लहर के बाद भी वो जीते, हालांकि 2019 में उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा. हालांकि 2020 में वो राज्यसभा के लिए चुने गए. 

आखिर किस बात पर नितिन गडकरी को कहा था सॉरी 

राज्य गठन के बाद सभी को लग रहा था कि जिसने 40 साल से अधिक झारखंड राज्य के लिए आंदोलन किया, सीएम उन्हें ही बनाया जाएगा. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. शिबू सोरेन के बजाय एनडीए ने बाबूलाल मरांडी को सीएम बनाया. चार साल के इंतजार के बाद 2 मार्च 2005 को वो पहली बार सीएम बने. लेकिन बहुमत नहीं जुटा पाने के कारण दस दिन में ही सरकार गिर गई. फिर 27 अगस्त 2008 को दुबारा सीएम बने. लेकिन तमाड़ विधानसभा उप चुनाव हार जाने के बाद 4 महीने 23 दिन ही सीएम रहे. इसके बाद 30 दिसंबर 2009 में तीसरी बार सीएम बने. इस बार वो एनडीए के समर्थन से बने. लेकिन एक गलती कर बैठे. 

संसद में यूपीए सरकार के खिलाफ बीजेपी के कटौती प्रस्ताव पर शिबू ने एनडीए के खिलाफ वोट दे दिया. तमतमाई बीजेपी ने उनसे समर्थन वापस ले लिया और 24 मई 2010 को उनकी सरकार गिर गई. इसके बाद उन्होंने बीजेपी के तत्कालीन अध्यक्ष नितिन गडकरी को पत्र लिखा. 

अनुज सिन्हा की किताब में इस बारे में दर्ज है, “27 अप्रैल 2010 को संसद में भाजपा की तरफ से लाए गए कटौती के प्रस्ताव पर मतदान के फलस्वरूप भाजपा ने राजग सरकार से समर्थन वापस ले लिया है. आप अवगत हैं कि कुछ दिनों से मेरी तबीयत ठीक नहीं चल रही है. खराब तबीयत के कारण ही मुझसे यह भूल हुई है. विश्वास दिलाता हूं कि मैं राजग के साथ हूं और रहूंगा. अलग राज्य के लिए मैंने लंबा संघर्ष किया है. उन सपनों को पूरा करने के लिए राजग अपने फैसले पर पुनर्विचार करे.’’ हालांकि इसका कोई असर बीजेपी पर नहीं पड़ा और आखिरकार शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा.

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