हेमंत सोरेन सरकार 2.0 को काम करते हुए 7 महीने बीत चुके हैं. बीजेपी एक मजबूत विपक्षी की भूमिका में सफल दिखने की भरपूर कोशिश कर रही है. इसी बीच पक्ष-विपक्ष की राजनीति के इतर राज्य में तीन नेताओं की राजनीतिक अति सक्रियता, सक्रियता और अल्प सक्रियता चर्चा का विषय बनी हुई है.
ये तीनों नेता राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री हैं - रघुवर दास, चंपाई सोरेन और अर्जुन मुंडा. ये तीनों इस समय बीजेपी के अंदर खुद को ‘सही जगह’ बिठाने के लिए अपने-अपने तरीके से कोशिश में जुटे हैं.
रघुवरदास ने बीते साल 24 दिसंबर को कुल 14 महीने ओडिशा के राज्यपाल पद पर रहने के बाद अचानक इस्तीफा दे दिया था. झारखंड लौटते ही उन्होंने मिस्ड कॉल देकर फिर से बीजेपी की सदस्यता ली. चर्चा खूब जोर चली कि वे प्रदेश अध्यक्ष बनने जा रहे हैं.
कद और राजनीतिक अनुभव को देखते हुए किसी ने इसपर तत्काल प्रश्नवाचक चिन्ह भी नहीं लगाया. बात यहां तक पहुंची कि वे केंद्रीय संगठन में किसी ‘बड़े पद’ पर जानेवाले हैं. कम से कम झारखंड में इस बड़े पद का मतलब राष्ट्रीय अध्यक्ष से जोड़ा गया. दिन बीतते गए, कुल छह महीने में ऐसा कुछ हो नहीं पाया.
इसके बावजूद भी पांच बार के विधायक, राज्य के पहले गैर-आदिवासी और पांच साल का कार्यकाल पूरा करने वाले पहले मुख्यमंत्री रहे रघुवरदास ने अभी अपनी सक्रियता पर कोई अल्पविराम भी नहीं लगाया है. बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष का चुनाव होना है. ऐसे में वे उर्वर राजनीतिक जमीन की तलाश में उन मुद्दों को उठा रहे हैं, जिनके चक्कर में खुद उनकी कुर्सी चली गई थी. दरअसल वे राज्यभर में घूम-घूम कर यह कह रहे हैं कि हेमंत सरकार को पेसा नियमावली तत्काल लागू करनी चाहिए. जबकि सीएम रहते हुए उन पर इस नियमावली में छेड़छाड़ का आरोप लगा था क्योंकि उन्होंने आदिवासी इलाकों की गैर-मजरुआ जमीन (सरकारी भूमि) का ड्रोन सर्वे शुरू कराया था.
साल 2019 के दौरान झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के बजाय सिविल सोसाइटी के एक ग्रुप ने रघुवर सरकार को आदिवासी विरोधी साबित कर दिया था. जिसका नतीजा ये था कि विधानसभा चुनावव के दौरान राज्य की कुल 28 रिजर्व एसटी सीटों में से बीजेपी 26 पर हार गई थी. इस गुट के अगुवाओं में से एक सामाजिक कार्यकर्ता ग्लैडसन डुंगडुंग कहते हैं, "झारखंड के 24 वर्षों के इतिहास में बीजेपी के तीन मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा और रघुवरदास ने 16 साल शासन किया. लेकिन पेसा नियमावली का ड्राफ्ट बनाना तो छोड़िए, राज्य के अनुसूचित क्षेत्रों में असंवैधानिक रूप से ‘जेपीआरए 2001’ और ‘नगरपालिका कानून 2011’ को थोपा. सत्ता चली गई तो आज पेसा कानून का राग अलाप रहे हैं.’’
पेसा एक्ट, जिसे पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996 भी कहा जाता है, भारत सरकार द्वारा अनुसूचित क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी समुदायों को ग्राम सभाओं के माध्यम से स्वशासन का अधिकार देने के लिए बनाया गया एक कानून है.
इसका मतलब है कि ग्रामसभा के अंतरर्गत आनेवाले लघु खनिज जैसे बालू, पत्थर, वनोपज आदि की बिक्री और इस्तेमाल पर केवल ग्रामसभा का अधिकार होगा. इन इलाकों में किसी भी सरकारी योजना को लागू करने के लिए पहले ग्रामसभा की अनुमति लेनी होगी. देश के आठ राज्यों में यह लागू है, दो राज्य ओडिशा और झारखंड में अब तक लागू नहीं हो पाया है.
सीएम, राज्यपाल के बाद प्रदेश अध्यक्ष के पद पर नजर!
बीजेपी के सात बार सांसद रहे लोकसभा के पूर्व उपाध्यक्ष करिया मुंडा राजनीति से लगभग संन्यास ले चुके हैं. वे कहते हैं, ‘’राज्यपाल पद छोड़कर दोबारा स्टेट की पॉलिटिक्स में वे (रघुवरदास) क्यों आए, यह तो वे ही बता पाएंगे. लेकिन प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी अगर उन्हें दी जाती है तो राज्य बीजेपी को कोई खास लाभ नहीं मिलेगा. क्योंकि मैं ये नहीं मानता कि एक खास जाति को छोड़ उनकी कहीं कोई पकड़ है.’’
मुंडा आगे यह भी जोड़ते हैं, ‘’रघुवरदास को व्यक्तिगत तौर पर मैं पसंद नहीं करता. सीएम रहते हुए उनके कामकाज के तौर-तरीकों की वजह से मेरी कभी उनसे बनी नहीं, लेकिन उनके पास खुद को दोबारा साबित करने का वक्त है. वे खुद को रिटायर क्यों करेंगे.’’
अर्जुन मुंडा शिबू सोरेन के बहाने चर्चा में आए
ऐसा ही कुछ अर्जुन मुंडा का हाल है. लोकसभा चुनाव में खुद की हार, विधानसभा चुनाव में पत्नी की हार के बाद से वे पूरी तरह शांत बैठे थे. बीती 3 जुलाई को रांची में एक फ्लाईओवर का उद्घाटन केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने किया. इस दौरान JMM समर्थकों ने इसका नामकरण शिबू सोरेन के नाम पर करने का मुद्दा उठाया.
प्रतिक्रिया में अर्जुन मुंडा ने कहा, ‘’जीवित व्यक्ति के फोटो पर माला चढ़ाया जाता है क्या?’’ मुंडा यही नहीं रुके, उन्होंने यहां तक कहा कि ऐसी मांग करनेवालों का दिमाग खराब हो गया है. तिस पर लोगों ने उन्हें गुजरात के नरेंद्र मोदी स्टेडियम की याद दिला दी. छीछालेदार होने के बाद उन्होंने X पर कर सफाई दी कि अब उन्हें जीवित व्यक्ति के नाम से किसी संस्था के नामकरण पर कोई आपत्ति नहीं है.
अर्जुन मुंडा के राजनीतिक सलाहकार रह चुके अयोध्यानाथ मिश्र कहते हैं, "पहली बात बीजेपी में कुछ भी बहुत जल्दी नहीं होता. दूसरी बात ये कि अर्जुन मुंडा बहुत धैर्य वाले नेता हैं. बीजेपी उन्हें अगर राज्य या केंद्र कहीं भी, किसी भी भूमिका में रखती है, वो बहुत प्रभावी नेता होंगे. अगर वो शांत बैठे हैं, इसका ये कतई मतलब नहीं है कि उनका कद घट रहा है.’’
हालांकि करिया मुंडा इन बातों से इत्तेफाक नहीं रखते. वे कहते हैं, "अर्जुन मुंडा को मैं इमैच्योर पॉलिटीशियन मानता हूं. बच्चे जैसे काम करते हैं, काम में गंभीरता नहीं है. इतने दिन हो गए, तीन बार सीएम बने, केंद्र में मंत्री रहे लेकिन अभी तक लोगों के बीच उनकी पकड़ नहीं बनी है. आखिर लोगों को ही तो समझाना है."
नाम न छापने की शर्त पर बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता सवाल उठाते हैं, "रघुवरदास और अर्जुन मुंडा टेस्टेड नेता हैं. रघुवरसीएम रहते बेहतर फसल उगाए (अच्छा काम किया), लेकिन उसे काट नहीं पाए (चुनावी फायदा नहीं मिला). अर्जुन मुंडा तीन बार सीएम रहे, साल 2019 में मात्र 1100 वोट से जीत मिलने के बावजूद केंद्र में कैबिनेट मंत्री बनाया गया, लेकिन वे राज्य में आदिवासी वोटरों पर प्रभाव छोड़ना तो दूर की बात, खुद की और पत्नी की सीट तक बचा नहीं पाए. अब इन दोनों को और कितना मौका मिलना चाहिए?."
चंपाई के लिए बीजेपी में आगे की राह कहां?
JMM के अंदर जमी जमाई राजनीति छोड़ कुछ बड़े की तलाश में निकले पूर्व सीएम चंपाई सोरेन अभी तक झारखंड में अवैध बांग्लादेशियों के मुद्दे हवा दे रहे हैं. वह मुद्दा जिसपर बीते विधानसभा चुनाव में बीजेपी को मुंह की खानी पड़ी थी.
करिया मुंडा और अयोध्यानाथ मिश्र दोनों का मानना है कि झारखंड में घुसपैठ या अवैध बांग्लादेशियों का मुद्दा चंपाई का मुद्दा नहीं है. यह बीजेपी की अवधारणा से जुड़ा मुद्दा है. फिलहाल चंपाई के पास दूसरा कोई मुद्दा नहीं है, इसलिए वे इसी मुद्दे के रास्ते खुद को पार्टी में बनाए रखने की जुगत में लगे हैं.
राज्य में बीजेपी अध्यक्ष का चुनाव होना है, लेकिन इन तीनों में केवल रघुवरदास के नाम की चर्चा है. तर्क ये दिया जा रहा है कि नेता प्रतिपक्ष बाबूलाल मरांडी आदिवासी हैं, ऐसे में किसी गैर-आदिवासी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया जाना चाहिए. इस कड़ी में रघुवरके अलावा राज्यसभा सांसद प्रदीप वर्मा, आदित्य साहू और लोकसभा सांसद मनीष जायसवाल के नाम की भी चर्चा है.
इन सबके बीच अहम बात ये भी है कि हेमंत सोरेन को काउंटर करने के लिए राज्य बीजेपी में अभी तक कोई नया चेहरा नहीं उभर पाया है. बाबूलाल मरांडी, रघुवरदास, अर्जुन मुंडा के सहारे बीजेपी हेमंत को काउंटर करने में फिलहाल सफल नहीं दिख रही है.
पार्टी के अंदर रघुवरविरोधियों की तरफ से केंद्रीय नेतृत्व को मैसेज दिया जा रहा है कि वे अलायंस नहीं चला सकते. जबकि पार्टी को इस वक्त सहयोगी दल ऑल झारखंड स्टूडेंट यूनियन (आजसू) के साथ की सख्त जरूरत है. वहीं रघुवरगुट की तरफ से मैसेज दिया जा रहा है कि प्रदेश अध्यक्ष रहते बीजेपी की सरकार बना चुके हैं. सीएम रहते बेहतर शासन दिया. ईमानदार और पैशन वाले राजनेता हैं. वहीं केंद्रीय नेतृत्व के बीच चंपाई सोरेन की फिलहाल कोई लॉबिंग नहीं है. क्योंकि वो बीजेपी में आने के बाद कोई चमत्कार नहीं दिखा पाए.
पूर्व के प्रयोग और नए प्रयोग की गुंजाइश के बीच झारखंड बीजेपी फिलहाल करवट लेने की तैयारी कर रही है. उसे अगुआ मिलने का इंतजार है.

