
जनवरी का सर्द मौसम. पटना के गांधी मैदान में महात्मा गांधी की विशाल प्रतिमा के सामने बरामदे पर अपने साथियों और बीपीएससी अभ्यर्थियों के साथ प्रशांत किशोर आमरण अनशन पर बैठे हैं. उनके ठीक पीछे एक नौजवान बड़े आकार के तिरंगे को हिला रहा है. माइक पर छात्र कविता पढ़ रहे हैं, गाने गा रहे हैं और नारे लगा रहे हैं.
बरामदे के दूसरे किनारों पर युवा पोस्टर लिख रहे हैं. सामने के मैदान में खाना बंट रहा है और वहां कतार लगी है. लगातार गीत और नारेबाजी से पूरा माहौल चार्ज लगता है. इस माहौल को देख कर सहज ही 2011 का भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना आंदोलन याद आता है जिसने आम आदमी पार्टी को जन्म दिया और अरविंद केजरीवाल व उनके साथियों को देश की राजनीति में एक बड़े नेता के रूप में स्थापित कर दिया.
जनसुराज पार्टी के संस्थापक प्रशांत किशोर भी उसी को रिपीट करते नजर आ रहे हैं. हालांकि उनका ऐसा करना उन लोगों को अजीब लग रहा है, जो उनके विचारों को जानते रहे हैं. वे कई बार कह चुके हैं कि उनका आंदोलनों में कोई भरोसा नहीं है. वे कहते रहे हैं, "अगर आप मानव सभ्यता के इतिहास को पढ़ेंगे तो फ्रांस की क्रांति को अपवाद के तौर पर हटा दें, तो पिछले हजार साल के इतिहास में किसी आंदोलन ने मानव सभ्यता के सृजन में कोई बड़ा योगदान नहीं किया. हां, आंदोलनों से आपने लोगों को सत्ता से हटाया है. जेपी का आंदोलन हुआ तो इंदिरा जी को सत्ता से हटा दिया गया. अन्ना का आंदोलन हुआ, उससे यूपीए की सरकार हट गई. मगर इनसे नई व्यवस्था नहीं बनी." इस तरह के उनके बयानों के वीडियो जनसुराज के आधिकारिक सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर मौजूद हैं.
ऐसे में अगर प्रशांत किशोर आंदोलन कर रहे हैं, धरने पर बैठ रहे हैं और इसे वे ‘ध्वस्त शिक्षा और भ्रष्ट परीक्षा व्यवस्था के खिलाफ आमरण अनशन’ का नाम दे रहे हैं, तो इसका मतलब क्या यह है कि आंदोलनों को लेकर उनके जो पुराने विचार थे, वे बदल गए? या फिर पदयात्रा और दूसरे अभियानों के जरिये उन्होंने पार्टी बनाने और बिहार में उस पार्टी को सत्ता में लाने का जो अभियान उन्होंने सोचा था, वह वैसी सफलता नहीं हासिल कर सका, जिसकी उन्हें उम्मीद थी.
सवाल ये भी है कि क्या अकेले अपने दम पर बिहार में सरकार बनाने का दावा करने वाले प्रशांत किशोर पिछले विधानसभा उपचुनाव के नतीजे को देख कर अपनी रणनीति बदलने पर मजबूर हो रहे हैं. उस उपचुनाव में चार सीटों में से एक पर भी जनसुराज पार्टी के प्रत्याशी नंबर दो तक भी नहीं पहुंच पाये थे.

इस मसले पर इंडिया टुडे से बात करते हुए प्रशांत किशोर कहते हैं, "मैं परीक्षा में अनियमितता के खिलाफ धरने पर नहीं बैठा हूं. मैं धरने पर इसलिए बैठा हूं कि बच्चों को लाठी मारी गई है, उनको डराया गया है. मैं समझता हूं कि किसी सभ्य समाज में इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती. आंदोलन को लेकर मेरे नजरिये में कोई बदलाव नहीं आया है. मैं आज भी शांतिपूर्ण तरीके से बैठा हुआ हूं. कोई चक्का-जाम नहीं है. कोई मारपीट नहीं है. कोई हिंसा की बात नहीं है. जो भी लोकतांत्रिक तरीके हैं, उनका इस्तेमाल कर रहा हूं." इस टिप्पणी से जाहिर है कि अब वे लोकतांत्रिक और अहिंसक आंदोलन को तो जायज बताते हैं, बस हिंसक और तोड़फोड़ वाली राजनीति से परहेज की बात करते हैं. जबकि पहले के अपने बयान में वे अन्ना आंदोलन तक को खारिज करते रहे हैं.
जब वे चक्का जाम और तोड़फोड़ के आंदोलनों की बात करते हैं तो जाहिर तौर पर उनका इशारा पूर्णिया के निर्दलीय सांसद पप्पू यादव की तरफ होता है. जो उनके आंदोलन के समानांतर तीन जनवरी को पूरे बिहार में चक्का जाम करवा रहे थे. वही पप्पू यादव प्रशांत किशोर पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं, "इसको पता क्या है. ये तो कहता है आंदोलनों से कुछ नहीं हो सकता. जब बच्चे लाठी खा रहे थे, पानी के बौछारों में भीग रहे थे, तो ये पच्चीस-तीस मिनट पहले भाग गये. इनको तो पता ही नहीं है, दुनिया में जितने परिवर्तन हुए आंदोलनों से हुए, छात्रों ने किया है. बांग्लादेश का परिवर्तन तो हाल का परिवर्तन है. भारत में एक बार नहीं कई बार ऐसे परिवर्तन हुए."
तो क्या प्रशांत किशोर छात्र आंदोलन की ताकत को नहीं समझते? क्या उन्होंने आंदोलनों के जरिये भारत में आये बदलावों को नहीं देखा है? इस सवाल के जवाब में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, पटना के पूर्व निदेशक पुष्पेंद्र कहते हैं, "ऐसा लगता नहीं है कि उन्हें छात्र आंदोलनों का इतिहास मालूम नहीं होगा. उन्हें पता होगा ही कि कैसे छात्र आंदोलनों के जरिये असम में सत्ता हासिल हुई. जेपी आंदोलनों का इतिहास भी मालूम होगा. यूरोप और अमेरिका के छात्र आंदोलनों का इतिहास भी वे जानते होंगे. उनकी यह भी समझदारी रही होगी कि छात्र आंदोलन किसी को भी राजनीति में बड़ा उछाल देता है. मगर दिक्कत यह कि इनका पूरा जीवन प्रबंधन में गुजरा है, आंदोलनों से इनका कभी नाता नहीं जुड़ा. इसलिए इनकी दृष्टि सत्ता और प्रबंधन वाली ही रही है. अब जब ये राजनीति में आये हैं, तो यह स्वीकार करना इनके लिए मुश्किल है, इसमें समय लगेगा. धीरे-धीरे इनको भी आंदोलनों की महत्ता समझ आने लगेगी."
पुष्पेंद्र आगे यह भी जोड़ते हैं, "अब तक ये पार्टी बनाने के नाम पर पदयात्रा करते रहे. पदयात्रा तो बस एक पब्लिसिटी थी. वे यह बता रहे थे कि सरकारों को क्या करना चाहिए. वे जब सत्ता में आयेंगे तो क्या करेंगे. मगर पहली बार इन्हें एंटीएस्टैब्लिशमेंट वाले काम का अनुभव हो रहा है. अगर इन्होंने इसे ठीक से किया तो इससे इन्हें एक उछाल मिलेगा."
हालांकि प्रशांत किशोर के इस आंदोलन की दूसरे कारणों से भी आलोचना हो रही है. इसे फाइव स्टार आंदोलन बताया जा रहा है. आंदोलन स्थल पर खड़ी की महंगी वैनिटी वैन की चर्चा तो मीडिया में है ही. बैठने से लेकर खाने-पीने तक के भी बेहतरीन इंतजाम हैं.
इस मसले पर टिप्पणी करते हुए वरिष्ठ पत्रकार अरुण अशेष कहते हैं, "ये फैशनवाले आंदोलनकारी हैं. जिस आंदोलन को अब तक ये नकारते रहे हैं, वह कोई आसान काम नहीं है. इसमें अपना जीवन खपाना पड़ता है. कष्ट झेलना पड़ता है. जिसका इन्हें अनुभव नहीं है. इन्हें तो दरअसल बिहार का भी कागजी अनुभव ही है. आंकड़ों के जरिये ये बिहार में पार्टी बनाने आये थे, शोध और प्रबंधन से ये सत्ता हासिल करना चाहते थे. जबकि बिहार आंदोलनों की धरती रही है. ये खुद को फंसा हुआ महसूस कर रहे हैं. ऐसे में आंदोलन तो कर रहे हैं, मगर सुविधाओं से दूरी सही नहीं जा रही. वैनिटी वैन इसी का उदाहरण है."

मगर सवाल यह भी है कि क्या इस आंदोलन से बीपीएससी अभ्यर्थिंयों को न्याय मिलेगा? क्योंकि सरकार फिर से परीक्षा की मांग को ठुकरा चुकी है. जिस बापू परीक्षा परिसर की परीक्षा रद्द कर दोबारा परीक्षा ली जानी थी, वह परीक्षा भी चार जनवरी को पटना में आयोजित हो रही है. आमरण अनशन पर बैठे प्रशांत किशोर ने उनसे बातचीत करने करने पहुंची पुलिस से कहा है कि अगर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इन छात्रों के प्रतिनिधियों से मुलाकात कर लें तो वे अपना अनशन खत्म कर देंगे. क्या ऐसा वे इस वजह से ऐसा कर रहे हैं कि अब उन्हें आमरण अनशन का अपना फैसला भारी पड़ता दिख रहा है? सरकार की तरफ से इन्हें ठीक से नोटिस नहीं किया जा रहा? इन्हें हेल्थ बुलेटिन निकालना पड़ रहा है.
हालांकि इंडिया टुडे से बातचीत में प्रशांत कहते हैं, "अभी सरकार की वजह से डेडलॉक की स्थिति है. हमलोग लचीला रुख अपनाए हुए हैं. छात्र संसद के बाद छात्रों की मुख्य सचिव से बात हुई थी, उसका कोई नतीजा नहीं निकला. मुख्य सचिव के बाद तो मुख्यमंत्री ही हैं. मैंने वार्ता के लिए आये प्रशासन के लोगों से कहा है कि वे छात्रों के प्रतिनिधियों की मुलाकात नीतीश कुमार से बात करा दें."
मुख्यमंत्री से बातचीत के बाद प्रशांत किशोर अनशन खत्म कर देंगे? इस पर कहते हैं, "बात जब छात्र करेंगे तो छात्रों को राजी होना पड़ेगा. आंदोलन जारी रखें या नहीं यह उनको तय करना है. मैं यहां से हटूंगा या नहीं यह तब तय होगा, जब छात्र सीएम से बात करके लौटेंगे. मेरा अनशन तब तक जारी रहेगा, जब तक इस मामले का समाधान नहीं निकाला जाता."