अनुच्छेद 370, एक ऐसा संदर्भ बिंदु जो जम्मू-कश्मीर की राजनीति में अहम पड़ाव है. भारत में विलय के दो साल बाद 1949 में जब राजा हरि सिंह ने शेख अब्दुल्ला को जम्मू-कश्मीर का प्रधानमंत्री नियुक्त किया, तब नए आजाद भारत के लिए संविधान का निर्माण हो ही रहा था. अब्दुल्ला राज्य के विशेष दर्जे की बातचीत के लिए संविधान सभा में शामिल हुए. इस तरह अनुच्छेद 370 का जन्म हुआ और इसने देश के भीतर एक स्वायत्त जम्मू-कश्मीर की नींव रखी, जिसका अपना संविधान था, अपने नियम-कानून थे.
लेकिन 5 अगस्त, 2019 को केंद्र सरकार ने इस विशेष दर्जे को खत्म कर दिया और जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांट दिया. एक विधानसभा वाला जम्मू-कश्मीर, और दूसरा बिना विधानसभा वाला लद्दाख. अनुच्छेद 370 के खात्मे के बाद से वहां के राजनीतिक दल लगातार राज्य का दर्जा वापस दिए जाने की मांग कर रहे थे. वहीं सरकार का कहना था कि पहले चुनाव होंगे उसके बाद ही राज्य का दर्जा मिलेगा. अब जबकि वहां चुनाव हो रहे हैं, तो एक सवाल उठता है कि इस नई विधानसभा की शक्तियां और अधिकार क्या होंगे और ये पहले से कितने अलग होंगे?
अनुच्छेद 370 के खत्म होने से पहले जम्मू-कश्मीर की स्थिति
अनुच्छेद 370 के मुताबिक, विदेश मामले, रक्षा और संचार के मामलों पर ही देश की संसद कानून बना सकती थी. इस अनुच्छेद में इस बात की भी सीमा थी कि इसमें संशोधन कैसे किया जा सकता है. इनको छोड़कर अन्य सभी कानूनों के लिए संसद को राज्य सरकार के अप्रूवल की जरूरत होती थी.
संविधान के अनुच्छेद-1 के अलावा, जो कहता है कि भारत राज्यों का एक संघ है, कोई अन्य अनुच्छेद जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होता था. राज्य का अपना एक अलग संविधान था. हालांकि भारत के राष्ट्रपति के पास जरूरत पड़ने पर किसी भी बदलाव के साथ संविधान के किसी भी हिस्से को राज्य में लागू करने की शक्ति थी. लेकिन इसके लिए राज्य सरकार की सहमति अनिवार्य थी.
इस अनुच्छेद ने राज्य को एक निश्चित सीमा तक स्वायत्तता भी प्रदान की. मसलन, राज्य का अपना संविधान, अलग झंडा और कानून बनाने की आजादी थी. नतीजतन, जम्मू-कश्मीर स्थायी निवास, संपत्ति के स्वामित्व और मौलिक अधिकारों से संबंधित अपने नियम बना सकता था. साथ ही, यह राज्य के बाहर के लोगों को अपने यहां संपत्ति खरीदने या वहां बसने से भी रोक सकता था.
अनुच्छेद 370 खत्म होने के बाद राज्य में स्थिति
जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन कानून, 2019 के तहत दो नए केंद्रशासित प्रदेश बने, जिनकी ऊपर चर्चा की जा चुकी है. इस कानून ने राज्य की एक बहुत ही अलग संरचना बनाई, जिसमें राज्य विधानसभा की तुलना में एलजी (उपराज्यपाल) की भूमिका बहुत बड़ी है. इसे दो प्रमुख कानूनों से समझा जा सकता है.
पहला, कानून की धारा 32. यह विधानसभा की विधायी शक्ति की सीमा से संबंधित है. इसमें कहा गया है कि "इस कानून के नियमों के तहत, प्रदेश की विधानसभा जम्मू और कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश के पूरे या उसके किसी भी हिस्से के लिए राज्य सूची में दर्ज किसी भी मामले के संबंध में कानून बना सकती है. सिवाय प्रविष्टि 1 और 2 में जिक्र उन विषयों को छोड़कर जो क्रमश: "सार्वजनिक व्यवस्था" और "पुलिस" है. इसके अलावा प्रदेश की विधानसभा समवर्ती सूची में दर्ज उन विषयों पर ही कानून बना सकती है जो सिर्फ केंद्र शासित प्रदेशों के संबंध में लागू होता है."
हालांकि, दूसरी ओर, राज्य समवर्ती सूची के उन सभी विषयों पर कानून बना सकते हैं, जो केंद्र सरकार के कानूनों से नहीं टकराता हो. दूसरा, 2019 पुनर्गठन कानून की धारा 36. यह वित्तीय विधेयकों के संबंध में विशेष कानूनों से संबंधित है. इसमें कहा गया है कि किसी विधेयक या संशोधन को "उपराज्यपाल की सिफारिश के अलावा विधान सभा में पेश या स्थानांतरित नहीं किया जाएगा", अगर ऐसा विधेयक अन्य पहलुओं के अलावा "केंद्र शासित प्रदेश की सरकार द्वारा किए गए या किए जाने वाले किसी भी वित्तीय दायित्व के संबंध में कानून में संशोधन" से संबंधित है.
नई विधानसभा की क्या होंगी शक्तियां
चूंकि जम्मू-कश्मीर एक केंद्रशासित प्रदेश है जहां एक विधानसभा भी है. ऐसे में यहां भी अनुच्छेद 239 लागू होगा जो केंद्रशासित प्रदेशों के प्रशासन से संबंधित है. इस अनुच्छेद के मुताबिक, प्रत्येक केंद्र शासित प्रदेश का प्रशासन राष्ट्रपति द्वारा किया जाएगा. यह काम वह किसी प्रशासक के जरिए करेगा. अनुच्छेद कहता है कि राष्ट्रपति को जहां तक उचित लगेगा, उस सीमा तक वह वहां काम कर सकता है.
जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन कानून 2019 की धारा 13 में कहा गया है कि संविधान का अनुच्छेद 239ए (जो स्थानीय विधानसभाओं या मंत्रिपरिषद या कुछ केंद्र शासित प्रदेशों के लिए इन दोनों के निर्माण से संबंधित है), जो केंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी के प्रशासन के लिए जो प्रावधान तय करता है, वही केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर पर भी लागू होगा. हालांकि दिल्ली जैसे केंद्रशासित प्रदेश से इसकी तुलना करें तो अनुच्छेद 239AA के तहत मिली शक्तियों के चलते दिल्ली का मामला थोड़ा अलहदा है.
दिल्ली के मामले में तीन विषय - भूमि, सार्वजनिक व्यवस्था और पुलिस - एलजी के हवाले हैं. बाकी मामलों पर दिल्ली सरकार कानून बना सकती है. हालांकि,'सेवाओं' या नौकरशाही पर नियंत्रण राज्य और केंद्र के बीच जरूर विवाद का विषय रहा है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह स्पष्ट किए जाने के बाद कि एलजी तीन आरक्षित विषयों के अलावा अन्य विषयों पर स्वतंत्र विवेक का इस्तेमाल नहीं कर सकते, केंद्र ने 2023 में एक नया कानून बनाया, जिसके तहत सेवाओं को भी एलजी के नियंत्रण में लाया गया. इसे भी अब अदालत के सामने चुनौती दी गई है.
विधानसभा या एलजी, कौन पॉवरफुल?
2019 का जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन कानून, उपराज्यपाल की शक्तियों को भी बताता है. इसकी धारा 53, जो मंत्रिपरिषद की भूमिका से संबंधित है, उसके मुताबिक, "उपराज्यपाल अपने कामों के निष्पादन में कई मामलों में अपने विवेक से फैसला करेंगे. मसलन, वैसे मामले, जो विधान सभा को प्रदत्त शक्तियों के दायरे से बाहर आते हैं. या उन मामलों में जिनमें किसी कानून द्वारा या उसके तहत अपने विवेक से काम करने या कोई न्यायिक कार्य करने की अपेक्षा की जाती है.
इसके अलावा अखिल भारतीय सेवाओं और भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो से संबंधित मामलों में भी उपराज्यपाल अपने विवेक से फैसला करेंगे. इसका मतलब यह है कि सार्वजनिक व्यवस्था और पुलिस के अलावा नौकरशाही और भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो भी एलजी के नियंत्रण में होंगे.
इस कानून में यह भी कहा गया है कि जब भी कभी यह प्रश्न उठे कि कोई मामला ऐसा है या नहीं, जिसके संबंध में उपराज्यपाल को इस कानून के तहत अपने विवेक से काम करने की जरूरत है, तो उपराज्यपाल का अपने विवेक से लिया गया फैसला अंतिम होगा. इसके अलावा, उपराज्यपाल द्वारा की गई किसी भी फैसले की वैधता इस आधार पर सवालों में घेरे में नहीं आएगी कि उसे अपने विवेक से काम करना चाहिए था या नहीं. कानून के मुताबिक, उपराज्यपाल को मंत्रियों द्वारा दी गई सलाह की किसी भी अदालत में चुनौती नहीं दी जाएगी.