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तमिलनाडु में गठबंधन की राजनीति किस नए बदलाव की ओर बढ़ रही है?

तमिलनाडु में सहयोगी दलों को सत्ता में भागीदारी देने का चलन अब तक नहीं रहा है लेकिन अगले विधानसभा चुनाव के पहले सत्ताधारी और विपक्षी गठबंधन में सहयोगी दलों ने इस चलन को चुनौती देना शुरू कर दिया है

इस साल अप्रैल में AIADMK और बीजेपी दोनों दोबारा साथ आईं
अमित शाह AIADMK नेताओं के साथ (फाइल फोटो)
अपडेटेड 23 जुलाई , 2025

तमिलनाडु के अगले साल विधानसभा चुनाव की ओर बढ़ने के साथ ही दोनों प्रमुख द्रविड़ दलों के सहयोगियों की ओर से एक नई राजनैतिक मांग उभर रही है. इस बार बात सिर्फ सीटों की नहीं, बल्कि सत्ता में हिस्सेदारी की भी हो रही है. दशकों से राज्य में चुनावी गठबंधन सीट बंटवारे तक ही सीमित रहे हैं. लेकिन अब यह सीमारेखा टूट रही है, क्योंकि गठबंधन सरकार और प्रशासनिक अधिकार की मांगें मुखर होती जा रही हैं.

इस महत्वाकांक्षा को परिभाषित करने वाला वाक्य- ‘शासन में भागीदारी, अधिकार में भागीदारी’- पिछले साल विदुथलाई चिरुथैगल कच्ची (वीसीके) ने पहली बार दिया था, जो फिलहाल सत्तारूढ़ द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) की एक अहम सहयोगी है. वीसीके के एक के बाद दूसरे नेता ने इसे वैचारिक मांग के रूप में पे‌श किया. इसके बाद से यह विचार राजनैतिक वजन हासिल करता जा रहा है और विपक्षी एआइएडीएमके को भी इस पर प्रतिक्रिया देने को मजबूर किया है.

पिछले साल कल्लकुरिची में आयोजित अपनी पार्टी की बैठक में अभिनेता-नेता विजय ने ऐलान किया कि 2026 के चुनाव के लिए अगर कोई दल उनकी पार्टी तमिलगा वेत्रि कड़गम (टीवीके) के साथ गठबंधन करता है, और सरकार बनती है तो उसे शासन और अधिकार में भागीदारी दी जाएगी.

पट्टाली मक्कल कच्ची (पीएमके) के नेता अंबुमणि रामदास और देशिया मुरपोक्कु द्रविड़ कड़गम (डीएमडीके) की प्रेमलता विजयकांत ने भी अपने गठबंधन सहयोगियों से सत्ता में हिस्सेदारी की मांग की है. माना जा रहा है कि ये दोनों दल एआइएडीएमके नेतृत्व वाले मोर्चे का हिस्सा होंगे.

अब सवाल यह है कि क्या तमिलनाडु राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से इस बदलाव के लिए तैयार है? दशकों से राज्य की राजनैतिक कल्पना मजबूत, एकल नेतृत्व पर टिकी रही है. चुनावी जीत में सहयोगियों की भूमिका चाहे जितनी भी अहम रही हो, उन्हें शायद ही कभी मंत्री पद या प्रशासनिक जिम्मेदारी दी गई. अब उस परंपरा को चुनौती दी जा रही है.

तमिल मीडिया को दिए एक हालिया इंटरव्यू में कांग्रेस नेता त्रिची वेलुसामी ने कहा: “तमिलनाडु में गठबंधन सरकार बनेगी और कांग्रेस के दो नेता मंत्री बनेंगे.” उन्होंने इसका ऐतिहासिक आधार भी बताया: “गठबंधन सरकार तमिलनाडु के लिए नई बात नहीं है. यह स्वतंत्र भारत का पहला राज्य था जिसने गठबंधन सरकार का प्रयोग किया. 1952 के चुनाव के बाद कांग्रेस ने छोटे दलों- जैसे मणिकवेल नायकर और रामासामी पदैयाची की पार्टियां जिनके पास कुल छह विधायक थे- के साथ गठबंधन किया था और उन्हें मंत्री पद देकर ही सी. राजगोपालाचारी (राजाजी) मुख्यमंत्री बने थे. इस नजर से देखें तो भारत में गठबंधन सरकार की शुरुआत तमिलनाडु ने ही की थी.”
वेलुसामी ने डीएमके को एक चेतावनी भी दी: “लोकतंत्र में कोई पार्टी छोटी या बड़ी नहीं होती. कोई भी जीत सकता है, कोई भी हार सकता है. डीएमके को 1971 में 134 सीटें मिली थीं, और 1991 में सिर्फ एक. सचाई यह है कि कांग्रेस, वाम दलों और वीसीके जैसे सहयोगियों के बिना डीएमके सत्ता में नहीं आ सकती. उनके बिना उसे विपक्ष में ही बैठना पड़ेगा.”

वीसीके पहले से ही मौजूदा मॉडल की सीमाओं को लेकर मुखर रहा है. थोल. थिरुमावलवन लगातार यह दलील देते रहे हैं कि प्रशासनिक जिम्मेदारी साझा करने से शासन अधिक समावेशी होगा और लोकतंत्र की गुणवत्ता बेहतर होगी. लेकिन गठबंधन सरकार पर सबसे तीखा संघर्ष शायद एआईडीएमके के मोर्चे के भीतर चल रहा है. यह पार्टी 2021 के विधानसभा चुनाव में हार झेलने के बाद एक द्वंद्व में फंसी है- सहयोगियों को साथ बनाए रखना जरूरी है, लेकिन बहुत ज्यादा रियायत देना भी खतरनाक लग रहा है. बीजेपी और पीएमके, जो चुनावी गणित के लिए अहम हैं, अब केवल सीटों की नहीं बल्कि वास्तविक सत्ता हिस्सेदारी की भी मांग कर रहे हैं.

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह कई बार कह चुके हैं कि अगर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) तमिलनाडु में सत्ता में आता है तो गठबंधन सरकार बनेगी. यह ऐसी मांग है जिसे एआइएडीएमके लगातार टालती रही है. दरअसल, एआइएडीएमके महासचिव ई. पलानीस्वामी ने यहां तक कह दिया था कि “हम बेवकूफ नहीं हैं जो गठबंधन सरकार बनाएंगे.” लेकिन बीजेपी के कई नेताओं को यह टिप्पणी बहुत नागवार गुजरी.

बाद में बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष नैनार नागेंद्रन ने कहा कि उन्होंने पलानीस्वामी से फोन पर बात की थी और यह स्पष्ट किया कि वह बयान केवल डीएमके के इस दावे के जवाब में था कि बीजेपी एआइएडीएमके को निगल जाएगी और उसका कोई दूसरा मतलब नहीं था.

पूर्व बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष के. अन्नामलाई ने तीखी प्रतिक्रिया दी: “बीजेपी न तो किसी को धोखा देगी और न ही खुद धोखा खाएगी.” उन्होंने यह भी कहा कि उन्होंने गठबंधन को नुक्सान पहुंचाने जैसा कुछ नहीं किया.

एक राजनीतिक विश्लेषक के अनुसार, “एआईएडीएमके अपने सहयोगियों को नाराज़ करने का जोखिम नहीं उठा सकती, लेकिन साथ ही उन्हें सत्ता सौंपने का जोखिम भी नहीं ले सकती.” यह विरोधाभास तब और गंभीर हो जाता है जब हम देखते हैं कि बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व दक्षिण भारत में जड़ें जमाने के लिए उत्सुक है.

वहीं डीएमके इस वक्त अपेक्षाकृत स्थिर दिख रही है. पार्टी का नेतृत्व मजबूत है, कल्याणकारी योजनाएं जनता के साथ जुड़ चुकी हैं, और उसका गठबंधन भी लगभग पूरी तरह बरकरार है. लेकिन सबसे बड़ी चुनौती सांस्कृतिक है. तमिलनाडु की राजनीति लंबे समय से नेता को विचारक, प्रशासक और प्रतीक के रूप में पूजती रही है. जानकारों का कहना है कि गठबंधन शासन की जरूरतें और मांगें बिल्कुल अलग हैं और इसके लिए कल्ट फिगर वाली राजनीति से हटकर सत्ता-साझेदारी के मॉडल को अपनाना होगा.

फिर भी, रुझान स्पष्ट है. वीसीके और कांग्रेस से लेकर भाजपा और पीएमके तक, ऐसे दल जो अब तक गठबंधन के छोटे साझेदार की भूमिका में रहे हैं, अब एक साझे और सहभागी शासन की बात कर रहे हैं. यह मांग चाहे वैचारिक प्रेरणा से आई हो या चुनावी मजबूरियों से, अब इसके पास एक भाषा है, और शायद बढ़ती राजनीतिक वैधता भी. आने वाले कुछ महीने तय करेंगे कि यह सिर्फ सौदेबाजी का औजार है या तमिलनाडु की राजनीति में एक गहरे बदलाव की शुरुआत.

- कविता मुरलीधरन 

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