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यूपी की दिशा समितियां कैसे बन रहीं BJP नेताओं की लड़ाई का मैदान?

दिशा समितियों का गठन केंद्र सरकार ने इस उद्देश्य से किया था कि सांसदों, विधायकों और स्थानीय प्रशासन के बीच समन्वय बनाकर विकास योजनाओं की निगरानी हो

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बीजेपी सांसद देवेंद्र सिंह भोले (बाएं) और पूर्व सांसद अनिल शुक्ला वारसी कानपुर देहात की दिशा बैठक में भिड़े
अपडेटेड 7 नवंबर , 2025

कानपुर देहात के कलेक्ट्रेट सभागार में 4 नवंबर का दिन सामान्य प्रशासनिक बैठक की तरह शुरू हुआ, लेकिन कुछ ही देर में माहौल किसी पंचायत चुनाव जैसा हो गया. जिला विकास समन्वय और निगरानी समिति (दिशा) की यह बैठक देखते ही देखते आरोप, प्रत्यारोप और धमकियों का अखाड़ा बन गई. 

अकबरपुर से सांसद देवेंद्र सिंह भोले और पूर्व सांसद अनिल शुक्ला वारसी के बीच तीखी बहस, आरोपों की झड़ी और “देख लेने” जैसी चेतावनियों ने इस बैठक को हंगामे की भेंट चढ़ा दिया. दोपहर 12 बजे शुरू हुई बैठक में शुरुआती एजेंडा तो विकास योजनाओं की समीक्षा का था, लेकिन कुछ ही मिनटों में चर्चा का रुख बदल गया. 

नगर पंचायत अकबरपुर के मिर्जा तालाब में खनन की जांच पर सवाल उठे, और वहां से विवाद शुरू हुआ. पूर्व सांसद वारसी ने आरोप लगाया कि जांच दबाव में की जा रही है और अवैध खनन में नगर पंचायत अध्यक्ष के परिवार की भूमिका है. सांसद भोले ने जवाब में कहा कि वारसी “बेईमान अधिकारियों” को बचाने आए हैं. दोनों ओर से जुबानी वार शुरू हुआ, जो देखते ही देखते तीखी नोकझोंक में बदल गया. जिलाधिकारी कपिल सिंह और एसपी श्रद्धा पांडे को बीच-बचाव करना पड़ा, तब कहीं जाकर हंगामा शांत हुआ. बैठक स्थगित करनी पड़ी.

हालांकि यह पहला मौका नहीं है जब दिशा समिति की बैठकें विकास के बजाय विवादों का मंच बनी हों. इसी साल 11 सितंबर को मथुरा में भी कुछ ऐसा ही नजारा देखने को मिला. बैठक की अध्यक्षता सांसद और अभिनेत्री हेमा मालिनी कर रही थीं. बलदेव के विधायक पूरन प्रकाश अपने क्षेत्र में अधूरे विकास कार्यों को लेकर सवाल उठा रहे थे, तभी गोवर्धन विधायक मेघश्याम सिंह ने बीच में टोक दिया. दोनों के बीच बहस इतनी बढ़ी कि पूरन प्रकाश बैठक से बाहर जाने की धमकी देने लगे. हेमा मालिनी को खुद दखल देकर दोनों विधायकों को शांत कराना पड़ा. 

दिशा समितियों का गठन केंद्र सरकार ने इस उद्देश्य से किया था कि सांसदों, विधायकों और स्थानीय प्रशासन के बीच समन्वय बनाकर विकास योजनाओं की निगरानी हो. लेकिन अब ये समितियां सहयोग से ज्यादा शक्ति प्रदर्शन का मंच बनती जा रही हैं. BJP शासित राज्यों में, खासकर उत्तर प्रदेश में, यह प्रवृत्ति ज्यादा दिखाई देने लगी है. 

राजनीतिक अहं और गुटबाजी का असर

कानपुर देहात की घटना में BJP के दो नेताओं, एक सांसद और एक पूर्व सांसद, के बीच टकराव सिर्फ विचारों का नहीं, बल्कि गुटबाजी का भी नतीजा है. दोनों ही एक ही पार्टी से जुड़े हैं, लेकिन अपने-अपने खेमों के प्रतिनिधि हैं. पार्टी संगठन में टिकट की राजनीति, सत्ता समीकरण और स्थानीय स्तर पर प्रभुत्व की होड़ ने इन बैठकों को रणभूमि बना दिया है. पार्टी के एक वरिष्ठ नेता बताते हैं, “दिशा समिति की बैठकों में अक्सर वही लोग भिड़ते हैं जो आपस में क्षेत्रीय वर्चस्व को लेकर संघर्षरत रहते हैं. सांसद के पास बैठक में अध्यक्षता का अधिकार होता है, लेकिन विधायक या पूर्व सांसद खुद को नजरअंदाज किया गया महसूस करते हैं. इसी से टकराव की शुरुआत होती है.” 

मथुरा का मामला इस बात का उदाहरण है कि जब विधायक अपने क्षेत्र की समस्याओं को उठाते हैं, तो बाकी जनप्रतिनिधि इसे “राजनीतिक स्टंट” मान लेते हैं. BJP के अंदर यह भी शिकायत है कि कई सांसद अपने अधिकारों को लेकर अति-संवेदनशील हैं. दिशा बैठकों में उन्हें अध्यक्ष बनाया गया है, लेकिन विधायक या अन्य स्थानीय नेता यह मानते हैं कि सांसद अपने अधिकारों का दुरुपयोग करते हैं. एक पूर्व नौकरशाह के शब्दों में, “दिशा की बैठकों का मकसद विकास योजनाओं की समीक्षा है, लेकिन वहां अक्सर सत्ता के भीतर असली राजनीति झलकती है. सांसद और विधायक दोनों ही जनता को यह दिखाना चाहते हैं कि विकास कार्य उन्हीं के दम पर हो रहे हैं. इसी ‘क्रेडिट वॉर’ में एजेंडा पीछे छूट जाता है.”

सत्ता के भीतर प्रतिस्पर्धा का प्रतीक

BJP की सबसे बड़ी चुनौती अब यही है कि उसके जनप्रतिनिधियों के बीच प्रतिस्पर्धा खुलकर सामने आने लगी है. जहां पार्टी ने केंद्र और राज्य में मजबूत नियंत्रण बनाए रखा है, वहीं जिला स्तर पर सत्ता का विकेंद्रीकरण नेताओं को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर रहा है. साथ ही कई जिले ऐसे हैं जहां BJP के ही सांसद, जिला पंचायत अध्यक्ष और सभी विधायक हैं. 

ऐसे में पंचायत चुनाव के नजदीक आते ही इन जनप्रतिनिधि‍यों में विकास का श्रेय लेने की होड़ भी शुरू हुई है. यूपी BJP के एक वरिष्ठ नेता बताते हैं, “वर्ष 2019 के बाद BJP ने संगठन में कई नए चेहरों को मौका दिया. कई पुराने नेताओं को हाशिए पर जाना पड़ा. ऐसे नेताओं के लिए दिशा और संगठन की बैठकों में विरोध दर्ज कराना, खुद को सक्रिय दिखाने का जरिया बन गया है.” 

कानपुर देहात के वारसी जैसे पूर्व सांसदों का तर्क है कि वे “जनता की आवाज उठा रहे हैं”, जबकि वर्तमान सांसदों के लिए यह “अनुशासनहीनता” है. दिशा की समितियों में सांसद अध्यक्ष होते हैं और जिलाधिकारी सदस्य सचिव. स्थानीय विधायक, पंचायत प्रतिनिधि और नामित सदस्य शामिल होते हैं. उद्देश्य है कि केंद्र की योजनाओं की जमीन पर समीक्षा हो और जनता को फायदा पहुंचे. लेकिन जमीन पर इसका स्वरूप अब राजनीतिक रस्साकशी में बदल गया है. देवरिया, गोंडा, रायबरेली, आगरा जैसे जिलों से भी ऐसी खबरें आती रही हैं कि बैठकें तय समय से आधे में ही खत्म करनी पड़ीं क्योंकि सांसदों और विधायकों में टकराव हो गया. कई बार अधिकारी “अगली बैठक में चर्चा करेंगे” कहकर विवादास्पद मुद्दों को टाल देते हैं.

BJP नेतृत्व इन घटनाओं को गंभीरता से देख रहा है. पिछले साल पार्टी के संगठन महामंत्री ने दिशा बैठकों को लेकर सांसदों और विधायकों को सख्त निर्देश दिए थे कि “बैठकें विकास केंद्रित हों, न कि राजनीतिक विवाद का मंच” बावजूद इसके, स्थानीय स्तर पर यह अनुशासन लागू नहीं हो पा रहा है. राजनीतिक विश्लेषक वी.के. त्रिपाठी कहते हैं, “जब केंद्र से लेकर पंचायत तक एक ही दल की सरकार हो, तो जवाबदेही तय करना मुश्किल हो जाता है. सत्ता में विरोधी दल की अनुपस्थिति में विपक्ष की भूमिका पार्टी के अंदर ही दिखाई देने लगती है. दिशा की बैठकों में जो टकराव दिखता है, वह उसी अंतर्विरोध का परिणाम है.” 

स्थानीय प्रशासन की मुश्किलें

अधिकारियों के लिए ये बैठकें किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं. कानपुर देहात की बैठक में जब एडीएम ने खनन जांच पर बारिश का हवाला दिया, तो उन्हें भी “दबाव में काम करने” का आरोप झेलना पड़ा. ऐसे माहौल में अधिकारी यह तय नहीं कर पाते कि जवाबदेही किसके प्रति है, जनप्रतिनिधि के, या नियमों के. कानपुर मंडल में तैनात एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, “जब बैठक में राजनीतिक टकराव होता है, तो वास्तविक समीक्षा ठप पड़ जाती है. अफसर सिर्फ यह सोचते हैं कि किसी पक्ष को नाराज न करें. इससे योजनाओं की पारदर्शिता और गति, दोनों प्रभावित होती हैं.” 

इन झगड़ों का सीधा असर विकास योजनाओं की रफ्तार पर पड़ता है. जिन मुद्दों पर निर्णय होने चाहिए, वे अनिर्णय की स्थिति में अटक जाते हैं. अधिकारी फाइलें आगे बढ़ाने से बचते हैं, ताकि किसी राजनीतिक पक्ष में खड़े होने का आरोप न लगे. जनता की समस्याएं जस की तस रहती हैं. मथुरा के बलदेव क्षेत्र के एक स्थानीय व्यापारी कहते हैं, “हमारे इलाके में पिछले तीन साल से नाली और सड़क का काम अधूरा पड़ा है. विधायक और सांसद दोनों कहते हैं कि वे काम करवा रहे हैं, लेकिन हकीकत यह है कि फाइलें दिशा की बैठक से कभी पास ही नहीं होतीं.”

क्या BJP इन आंतरिक टकरावों को नियंत्रित कर पाएगी? क्या दिशा समितियां अपने मूल उद्देश्य,विकास की निगरानी, पर लौट पाएंगी? अभी हालात बताते हैं कि दिशा की बैठकें नीतिगत विमर्श से ज्यादा व्यक्तिगत टकरावों का मंच बन चुकी हैं. कानपुर देहात की बैठक की गर्मी अभी ठंडी नहीं हुई है. अगले महीने फिर बैठक प्रस्तावित है. अधिकारी उम्मीद कर रहे हैं कि इस बार चर्चा योजनाओं पर होगी, न कि नेताओं के बीच पुरानी अदावत पर. लेकिन जिले के राजनीतिक माहौल को देखते हुए किसी को यकीन नहीं कि यह बैठक “रणभूमि” नहीं बनेगी.

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