बीजेपी शासित राज्यों में बंगाली भाषियों को निशाना बनाए जाने, कई लोगों को कथित तौर पर अपनी मातृभाषा बोलने पर परेशान किए जाने या फिर दिल्ली पुलिस की तरफ से बंगाली को बांग्लादेशी भाषा कहे जाने जैसी घटनाओं को लेकर तृणमूल कांग्रेस बीजेपी पर लगातार हमलावर है.
हालांकि बंगाल में बीजेपी इसके एकदम उलट नैरेटिव गढ़ती दिख रही है. पार्टी ने इस सियासी खेल के लिए वास्तव में खेल के मैदान का ही सहारा लेने का फैसला किया है, और अपनी नजर बंगाल के सबसे लोकप्रिय खेल और बंगालियों पर टिका दी है.
योजना ये है कि राज्यव्यापी फुटबॉल टूर्नामेंट का आयोजन बीजेपी के बैनर तले नहीं, बल्कि एक ऐसे नाम से किया जाए जिसका सांस्कृतिक और प्रतीकात्मक महत्व हो - ये है नरेंद्र कप. 14 अगस्त को पश्चिम बंगाल में बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं ने इस रणनीति को अंतिम रूप देने के लिए एक बैठक की. पार्टी सूत्रों के अनुसार, ये सब राज्य में बीजेपी के केंद्रीय सलाहकार सुनील बंसल के दिमाग की उपज है.
बैठक में बीजेपी नेता और अखिल भारतीय फुटबॉल महासंघ के अध्यक्ष कल्याण चौबे की उपस्थिति ने साफ किया कि पार्टी अपनी योजना को लेकर वाकई में कितनी गंभीर है. चौबे को बैठक में शामिल करने का उद्देश्य फुटबॉल से जुड़ी उनकी तकनीकी विशेषज्ञता का लाभ उठाना था ताकि ये सुनिश्चित किया जा सके कि मैच आधिकारिक नियमों के अनुसार हों. यही नहीं, आयोजन स्थलों पर चिकित्सा सहायता की व्यवस्था से लेकर खेल के मैदानों की बुकिंग और योग्य रेफरी की भर्ती तक में उनकी विशेषज्ञता का इस्तेमाल किया जा सके. एक सूत्र ने बताया, “इस टूर्नामेंट के लिए 18 से 35 वर्ष की आयु के 20,000 युवाओं की भागीदारी का लक्ष्य है.”
हालांकि, अभी इसकी रूपरेखा ही तैयार की जा रही है लेकिन मूल विचार ये है कि प्रत्येक मंडल जो कि बीजेपी के संगठनात्मक ढांचे की बुनियादी इकाई होती है, का प्रतिनिधित्व एक टीम करे. पूरे बंगाल में पार्टी के 1,344 मंडल हैं. आयोजन 11 सितंबर से शुरू किए जाने की संभावना है, जो स्वामी विवेकानंद के 1893 में शिकागो में विश्व धर्म संसद में दिए प्रसिद्ध भाषण की वर्षगांठ है. टूर्नामेंट का नाम विवेकानंद के जन्म के समय के नाम नरेंद्रनाथ दत्त पर रखना इसे बंगाल की आध्यात्मिक विरासत से जोड़ने की कोशिश तो है ही, इसका एक राजनीतिक संदेश भी है जो युवाओं की बीजेपी की पैठ को सीधे प्रधानमंत्री से जोड़ता हैं,
सूत्र आगे कहते हैं, “इसमें कोई दो-राय नहीं हैं कि नरेंद्र नाम के इस्तेमाल के राजनीतिक निहितार्थ भी हैं.” पार्टी की युवा शाखा और राज्य महासचिव ज्योतिर्मय सिंह महतो को इसकी रूपरेखा तय करने का काम सौंपा गया है. आयोजन के बारे में पूछे जाने पर महतो ज्यादा कोई ब्योरा न देकर सिर्फ इतना कहते हैं, “हम इसकी बारीकियां तय करने पर काम कर रहे हैं.” बैनर और प्रचार सामग्री पर बीजेपी का नाम न रखने पर जोर देना रणनीतिक है, जिसका उद्देश्य इस टूर्नामेंट को खेल और संस्कृति के एक गैर-राजनीतिक उत्सव के तौर पर पेश करना है.
दरअसल, स्पष्ट निर्देश दिया गया है कि खिलाड़ियों का चयन केवल उनकी प्रतिभा के आधार पर किया जाए, न कि किसी दलगत विचारधारा के आधार पर. फिर भी, बंगाल की सियासी सरगर्मियों के बीच शायद ही किसी को इस टूर्नामेंट की शुरुआत या इसके उद्देश्य को लेकर कोई संदेह हो. तृणमूल प्रवक्ता कृष्णु मित्रा कहते हैं, “बीजेपी का ‘नरेंद्र कप’! एक अच्छी चाल है. बंगाल स्वामी विवेकानंद की बात करेगा, बीजेपी नरेंद्र मोदी सुनेगी. इसके बाद वे गंगा का नाम बदलकर ‘नमो गंगा’ कर देंगे और दावा करेंगे कि वे मां गंगा का सम्मान कर रहे हैं. मानवता की सेवा करने वाले एक साधु और अपना जनसंपर्क बढ़ाने में जुटे राजनेता को लेकर भ्रम को स्थिति बनाकर स्वामीजी का अपमान करना बंद करें.”
अपनी पैठ बढ़ाने के लिए फुटबॉल का सहारा लेना अपने आप में एक संकेत है. इस खेल के प्रति बंगाल का जुनून राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक सीमाओं से परे है. अभी हाल में राज्य के दो सबसे चर्चित क्लबों- ईस्ट बंगाल और मोहन बागान के समर्थकों ने हाई-प्रोफाइल डूरंड कप मैचों के दौरान बड़े-बड़े टिफो लगाकर बंगालियों पर कथित अत्याचारों के खिलाफ का नाराजगी का प्रदर्शन किया. यह राजनीतिक बयानों की तुलना में ज्यादा प्रभावी था. इसे देखते हुए नरेंद्र कप सिर्फ एक खेल टूर्नामेंट से कहीं ज्यादा अहम हो जाता है. यह एक सांस्कृतिक जवाबी हमला है. फुटबॉल के मैदान का सहारा लेकर बीजेपी न केवल बयानबाजी बल्कि भावनात्मक स्तर पर भी खुद को बंगाली अस्मिता की रक्षक के तौर पर स्थापित करने की कोशिश कर रही है.
विवेकानंद के नाम पर हजारों युवाओं को संगठित कर और ऐसे आयोजन के जरिये बंगालियों के दिलो-दिमाग में जगह बनाकर बीजेपी दरअसल तृणमूल के हाथों से बंगाली गौरव का मुद्दा छीनने की की कोशिश कर रही है. नरेंद्र कप राजनीतिक रूप से कारगर होगा या नहीं, यह तो अभी तय होना बाकी है लेकिन इतना जरूर स्पष्ट है कि पार्टी खेल को एक आयोजन और एक प्रतीक, दोनों रूप में देख रही है, और उम्मीद कर रही है कि दर्शक दीर्घा से गूंजने वाली आवाजें एक नई इबारत लिखेंगी.