इरतिज़ा निशात के एक शेर का आखिरी हिस्सा कुछ यूं है कि '...कुछ कर नहीं सकते तो उतर क्यों नहीं जाते.' लगता है बिहार में तेजस्वी यादव ने इस शेर को दिल से लगा लिया है. तभी तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को उनकी जिम्मेदारी याद दिलाने का एक भी मौका वे नहीं चूकते.
हाल ही में बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री ने एक जनसभा में नीतीश पर निशाना लगाते हुए कहा, "मुख्यमंत्री को तो इतनी हैसियत मिल गई है न भाई कि स्टैंड ले सकें, और जो स्टैंड लें वो होना चाहिए. वरना सरकार गिरा दो." यह जुबानी तीर तेजस्वी ने सुप्रीम कोर्ट के 29 जुलाई के फैसले के बाद छोड़ा था.
इसमें सुप्रीम कोर्ट ने पटना हाई कोर्ट का फैसला बरकरार रखा जिसमें बिहार सरकार की तरफ से आरक्षण बढ़ाकर 75 प्रतिशत करने पर रोक लगाई गई थी. इसके अलावा एनडीए की केंद्र सरकार भी बिहार के कोटा वृद्धि को संविधान की नौवीं अनुसूची में डालने में आनाकानी कर रही है.
तेजस्वी के 2 अगस्त के इस बयान का मतलब साफ़ था. नीतीश कुमार के पास 12 लोकसभा सांसद हैं जिनका समर्थन नरेंद्र मोदी सरकार के अस्तित्व के लिए बेहद अहम है. ऐसे में अगर वे बिहार में बढ़े हुए आरक्षण को बचाने के लिए केंद्र सरकार से काम नहीं निकलवा पा रहे हैं तो इतने शक्तिशाली होने का क्या फायदा? इंडिया टुडे के वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ श्रीवास्तव का कहना है कि यह सवाल जितना आम लोगों के बीच गूंजता है, उतना ही एक पार्टी के तौर पर जेडीयू को भी नुकसान पहुंचाता है.
नवंबर 2023 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सरकार ने सरकारी नौकरियों और सरकारी शैक्षणिक संस्थानों में अनुसूचित जातियों (एससी), अनुसूचित जनजातियों (एसटी) और अन्य पिछड़ा वर्गों (ओबीसी) के लिए आरक्षण कोटा 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 65 प्रतिशत कर दिया था. इसमें आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए दिए गए 10 प्रतिशत कोटा को अगर जोड़ दिया जाए तो बिहार में कुल आरक्षण 75 प्रतिशत हो जाता है.
गौरतलब है कि बिहार सरकार ने जब फैसला लिया तब तेजस्वी यादव बिहार के उपमुख्यमंत्री थे. आरजेडी समर्थित राज्य सरकार ने केंद्र से अनुरोध किया था कि बढ़ा हुआ कोटा संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल किया जाए ताकि इसे कानूनी छूट मिल सके लेकिन केंद्र की तरफ से इसपर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई.
भारतीय संविधान की नौवीं अनुसूची में केंद्रीय और राज्य के उन कानूनों की सूची होती है, जिन्हें अदालतों में चुनौती नहीं दी जा सकती. हालांकि आई.आर. कोलोहो बनाम तमिलनाडु राज्य (2007) केस में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि 24 अप्रैल 1973 के बाद नौवीं अनुसूची में शामिल किए गए किसी भी कानून की अनुच्छेद 14, 19 और 21 के तहत जांच की जानी चाहिए. इसके अलावा, कोर्ट ने कहा कि कोई भी अधिनियम जो संविधान के मूल ढांचे के अनुरूप नहीं है, उसे चुनौती दी जा सकती है और न्यायिक समीक्षा के अधीन किया जा सकता है.
इस साल जनवरी में नीतीश कुमार बीजेपी के सहयोगी बनने के लिए एनडीए में फिर से शामिल हो गए, लेकिन आरक्षण में वृद्धि उनकी सबको साथ लेकर चलने वाली राजनीति का एक शानदार उदाहरण बनी रही. लोकसभा चुनाव में उन्हें इसका भरपूर फायदा भी मिला और बिहार में जेडीयू ने 16 में से 12 सीटों पर जीत हासिल की.
हालांकि, 20 जून को पटना हाई कोर्ट ने आरक्षण कोटा बढ़ाने संबंधी सरकार की अधिसूचना को रद्द कर दिया, जिसके बाद स्थिति बदल गई. अब पिछले महीने 29 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने पटना हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगाने की सरकार की याचिका भी खारिज कर दी.
नीतीश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपनी दलील में तर्क दिया था कि 2023 के संशोधनों - बिहार पदों और सेवाओं में रिक्तियों का आरक्षण (एससी, एसटी और ओबीसी के लिए) संशोधन अधिनियम और बिहार आरक्षण (शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश में) संशोधन अधिनियम के आधार पर सरकारी नौकरियों के लिए कई इंटरव्यू पहले से ही चल रहे हैं.
लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने किसी भी तरह की अंतरिम राहत देने से इनकार कर दिया और बिहार की अपील को सितंबर में विस्तृत सुनवाई के लिए तारीख दे दी. हाई कोर्ट के फैसले ने बिहार सरकार के इस फैसले को असंवैधानिक माना था और अब सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले ने इस विवादास्पद कानून का भविष्य धुंधला कर दिया है.
कभी राजनीतिक मास्टरस्ट्रोक माना जाने वाला नीतीश का जाति सर्वेक्षण कराने और उसके बाद बिहार में आरक्षण की सीमा बढ़ाने का फैसला, अब उनके गले की फांस बन गया है.
इंडिया टुडे के वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ श्रीवास्तव कानूनी विशेषज्ञों के हवाले से कहते हैं, "हालांकि कोई राज्य असाधारण परिस्थितियों में 50 प्रतिशत की सीमा को पार कर सकता है (उदाहरण के लिए, देश के दूरदराज के क्षेत्रों से आने वाले लोगों को आरक्षण देना, जो समाज की मुख्यधारा से बाहर हैं), लेकिन वह आरक्षित वर्गों की आबादी के अनुपात में आरक्षण नहीं मिल सकता है. ऐसा इसलिए है क्योंकि आरक्षण के पीछे एकमात्र वैध उद्देश्य 'पर्याप्त' प्रतिनिधित्व हासिल करना है, न कि 'आनुपातिक' प्रतिनिधित्व."
बिहार के जाति सर्वेक्षण में पता चला कि राज्य में ईबीसी (अति पिछड़ा वर्ग) की आबादी 36.01 प्रतिशत और ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) की आबादी 27.12 प्रतिशत है. अगर इसे मिला दें तो बिहार की कुल 13 करोड़ से अधिक की आबादी का 63.13 प्रतिशत यही दो वर्ग हैं.
अमिताभ बताते हैं, "बिहार जैसे जाति के मामले में जागरूक राज्य में इस कानूनी कार्रवाई का राजनीतिक असर होना तय है. नीतीश प्रशासन ने कोटा वृद्धि को सामाजिक न्याय और प्रतिनिधित्व बढ़ाने के उपाय के रूप में पेश किया था. चूंकि बिहार में 2025 में विधानसभा चुनाव होने हैं, इसलिए कोर्ट के फैसले का महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रभाव हो सकता है क्योंकि यह सत्तारूढ़ गठबंधन के ओबीसी और ईबीसी (पिछड़े वर्ग) समर्थकों को हतोत्साहित कर सकता है."
वे आगे कहते हैं कि राजनीतिक रूप से नीतीश सरकार के सामने अब रास्ता चुनौतीपूर्ण है. उसे आरक्षण वृद्धि को संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल कराना होगा ताकि इसे कानूनी चुनौतियों से बचाया जा सके. इस मुद्दे के अपने राजनीतिक मतलब हैं क्योंकि यह राज्य की जातिगत राजनीति और जेडीयू और बीजेपी के बीच समीकरण को प्रभावित करता है.
विधानसभा चुनावों से पहले, बीजेपी-जेडीयू गठबंधन कोटा वृद्धि को लागू करवाना और कुछ फायदा उठाना चाहेगा. नीतीश सरकार पहले ही केंद्र से अपील कर चुकी है कि कोटा वृद्धि के फैसले को नौवीं अनुसूची में शामिल किया जाए. हालांकि, बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए के भीतर जेडीयू के लिए ऐसा करवा पाना एक जटिल काम है.
बीजेपी नेताओं का एक वर्ग यह मानता है कि इस मांग को पूरा करने से अन्य राज्यों से भी इसी तरह की मांगें आ सकती हैं, जिससे मामला और जटिल हो सकता है. बिहार के पड़ोसी राज्य झारखंड, जहां इस साल विधानसभा चुनाव होने हैं, पहले ही केंद्र सरकार को इसी तरह का प्रस्ताव भेज चुका है.
अधिक असहज करने वाला प्रश्न वह है जो तेजस्वी ने पूछना शुरू कर दिया है - नीतीश के पास 12 लोकसभा सांसद होकर एनडीए का किंगमेकर होने का क्या मतलब है, अगर वे बिहार का काम नहीं करवा सकते, जैसे कि राज्य के लिए विशेष दर्जा हासिल करना या राज्य के बढ़े हुए आरक्षण संबंधी कानूनों को संरक्षण प्रदान करना?
यह सब नीतीश के लिए चुनौती को और बड़ा बनाता है, जो महागठबंधन छोड़कर वापस एनडीए के पाले में चले गए हैं. वे बढ़ा हुआ आरक्षण लागू न कर पाने के लिए केंद्र सरकार को दोषी ठहराकर या कोर्ट के आदेश से लाचारी जताकर पीड़ित की भूमिका नहीं निभा सकते.
नीतीश ने अभी तक तेजस्वी को सीधे तौर पर जवाब नहीं दिया है. भले ही उनकी पार्टी के लोग आरजेडी नेता को तिरस्कार के साथ खारिज करते हैं, लेकिन जैसे-जैसे बिहार विधानसभा चुनावों की ओर बढ़ रहा है, तेजस्वी के सवाल को और भी लोग उठा सकते हैं.

