15 अप्रैल को जब राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के 'डीफैक्टो मुखिया' तेजस्वी यादव कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे से मिलने नई दिल्ली स्थित उनके आवास पहुंचे, तो शायद तेजस्वी के जेहन में पांच साल पहले की वो यादें जरूर उमड़ी होंगी. 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में राजद-कांग्रेस-सीपीआई (एमएल) ने महागठबंधन के तौर पर चुनाव लड़ा था, और 243 सदस्यीय विधानसभा में साधारण बहुमत हासिल करने से वे सिर्फ 12 सीटें पीछे रह गए थे.
राजद तब सदन में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी, फिर भी सरकार नहीं बना सकी. इसका दोष सीधे तौर पर सहयोगी कांग्रेस पर मढ़ा गया. कांग्रेस को उस चुनाव में कुल 70 सीटें दी गई थीं, लेकिन पार्टी सिर्फ 19 ही जीत पाई. इसकी तुलना में राजद ने 144 सीटों पर चुनाव लड़ा, और 75 पर जीत हासिल की थी. महागठबंधन के एक और दल सीपीआई (एमएल) ने 19 सीटों पर उम्मीदवार उतारे, जिनमें से 12 पर उसे जीत हासिल हुई.
बिहार एक बार फिर चुनावी साल में है, और तेजस्वी बिना किसी लाग-लपेट के सहयोगियों की ताकत का आकलन कर गठबंधन को मजबूत बनाने के लिए कमर कस चुके हैं. शायद इसी संकल्प के चलते उन्होंने राज्य में कांग्रेस इकाई द्वारा सीट बंटवारे को लेकर किसी भी तरह के दावे से पहले खड़गे और कांग्रेस नेता राहुल गांधी से बातचीत के लिए दिल्ली का दौरा किया.
तेजस्वी का कांग्रेस को साफ संदेश है: पिछली गलतियों से सबक लें और वैसी सीट-शेयरिंग अरेंजमेंट को अंतिम रूप दें जो वाकई बिहार की चुनावी जमीनी हकीकत को बताता हो. राजद की अगुआई वाला गठबंधन, जो अभी भी पिछले चुनावी असफलताओं से उबर रहा है, जानता है कि हालात उसके खिलाफ हैं. 2024 के लोकसभा चुनाव के नतीजों के क्षेत्रवार विश्लेषण से पता चला कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने 243 विधानसभा सीटों में से 170 से अधिक पर बढ़त बनाए रखी.
हालांकि, आम चुनावों और विधानसभा चुनाव का गुणा-गणित अलग-अलग होता है, लेकिन मायने साफ है: राजद और कांग्रेस के सामने मुश्किल चुनौतियां हैं.
रणनीति को नए सिरे से तैयार करना
राजद के लिए यह काम दोहरा है. इसका तात्कालिक लक्ष्य मुस्लिम और यादवों के अपने कोर वोट बेस से आगे बढ़कर अन्य जाति समूहों में अपनी पैठ बढ़ाना है, जिसके लिए बातचीत और जमीनी स्तर पर नए सिरे से अभियान चलाने की जरूरत है, खासकर ऐसे समय में जब पारंपरिक चुनावी गणित में बहुत छोटे लेकिन गंभीर बदलाव हो रहे हैं.
इस बीच कांग्रेस, जिसे 1990 में अपने स्वर्णिम युग के खात्मे के बाद से बिहार में पिछड़ते हुए देखा जाता रहा है, को एक अलग ही चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. कभी बिहार में एक प्रमुख राजनीतिक शक्ति रही कांग्रेस को अक्सर क्षत्रपों, जैसे राजद की किस्मत पर सवारी करते हुए देखा जाता है. फिर भी, इस साल राहुल गांधी के तीन बार के बिहार दौरे के आश्वासनों और रणनीतिक कदमों, जैसे दलित नेता राजेश कुमार को बिहार प्रदेश कांग्रेस समिति का अध्यक्ष नियुक्त करने के साथ, पार्टी अपनी प्रासंगिकता को फिर से स्थापित करने के लिए कमर कस रही है.
जमीनी स्तर पर, कांग्रेस की हालिया 'पलायन रोको, नौकरी दो' यात्रा बिहार के युवाओं से जुड़ने के लिए नए प्रयासों का संकेत देती है, जबकि पार्टी ओबीसी और दलितों तक भी पहुंचने की कोशिश कर रही है. हालांकि इसका जमीनी प्रभाव अभी भी अटकलों का विषय है, लेकिन यह साफ है कि कांग्रेस पिछली गलतियों से सीखने का प्रयास कर रही है.
उभरती सच्चाईयां
राजनीतिक वफादारी के चलते गठबंधन की चुनौतियां और भी जटिल हो जाती हैं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सेहत को लेकर अफवाहों के बावजूद, अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) पर उनकी पकड़ बरकरार है; यह एक अटल मतदाता समूह है जो लंबे समय से उनके समर्थन का आधार रहा है. अब एक ऐसे राज्य में जहां जाति ने ऐतिहासिक रूप से चुनावी नतीजों को आकार दिया है, यह फैक्टर खास तौर पर ध्यान खींचता है. इस तरह नीतीश के स्थायी प्रभाव का ये डर पहले से ही बहुआयामी चुनावी परिदृश्य में जटिलता की एक और परत जोड़ता है.
असल में, राजद और कांग्रेस नेताओं के बीच बैठक सिर्फ सीटों के बंटवारे के बारे में नहीं थी; यह एक मौन स्वीकारोक्ति थी कि दोनों पार्टियों को पिछले चुनावी असफलताओं की जड़ता को पार करना होगा. 2020 चुनाव के दुखदायी सबक, जब कांग्रेस के निराशाजनक प्रदर्शन को महागठबंधन को नीचे खींचने के रूप में देखा गया था, और पिछले साल लोकसभा चुनावों के मिले जुले नतीजे दोनों पार्टियों के लिए एक रिमाइंडर की तरह हैं.
यह साफ है कि गठबंधन ने पुरानी गलतियों को अपने भविष्य को तय नहीं करने देने का संकल्प लिया है, भले ही एनडीए की प्रमुख क्षेत्रों में व्यापक बढ़त खतरनाक रूप से मंडरा रही हो.
एक नई ताकत
इस चुनौतीपूर्ण समय में अगर राजद और कांग्रेस को बिहार के भविष्य को आकार देने में निर्णायक भूमिका निभानी है, तो उन्हें अपनी रणनीतियों पर फिर से सोच-विचार करना होगा. उन्हें एक ऐसे मतदाता वर्ग को अपने पाले में करना होगा, जो दशकों से चली आ रही 'प्रेडिक्टेबल पॉलिटिक्स' (पहले से अनुमानित राजनीति) से लगातार निराश हो चुका है.
जैसे-जैसे गठबंधन एक और चुनावी लड़ाई के लिए तैयार हो रहा है, दांव ऊंचे होते जा रहे हैं: आंतरिक गतिशीलता में सुधार, जातिगत समीकरणों से परे जाकर अपील को व्यापक बनाना और मौजूदा व्यवस्था के लिए एक विश्वसनीय विकल्प के रूप में उभरना, जिसके बारे में कई लोगों का मानना है कि इसने बिहार को फेल करके रख दिया है.
इन कामों के अलावा, राजद-कांग्रेस गठबंधन को अब वोटरों की संरचना से अतिरिक्त चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. राजद के लिए, एक अहम लक्ष्य अपने पारंपरिक मुस्लिम-यादव वोट बेस से परे अपने समर्थन का विस्तार करना है, और अन्य जाति समूहों में पैठ बनाना है.
यह पैंतरा ऐसे राज्य में महत्वपूर्ण है जहां इस तरह के विभाजन गहराई से जड़ जमाए हुए हैं. साथ ही, नीतीश का ईबीसी आधार काफी हद तक बरकरार है, जो किसी भी चुनावी उलटफेर के लिए एक अहम रुकावट है.
आगे की राह चुनौतियों से भरी है, फिर भी इन दिग्गजों के बीच नए सिरे से संकल्प एक नाटकीय चुनावी बदलाव के लिए मंच तैयार कर सकता है. छूटे हुए मौकों और दुखदायी सबक के इतिहास के साथ, तेजस्वी की राहुल और खड़गे के साथ बैठक अतीत के साथ एक हिसाब-किताब और उनके गठबंधन के भविष्य को नया आकार देने की दिशा में एक साहसिक कदम है.