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बिहार : नीतीश कुमार ने कैसे खत्म किया था ‘जंगलराज’; क्या अब उसकी वापसी हो रही है?

बिहार में अपराधों पर लगाम लगाना यानी ‘जंगलराज’ को खत्म करना कभी नीतीश कुमार की सबसे बड़ी उपलब्धि हुआ करती थी, लेकिन हाल के दिनों में बढ़ी बेखौफ वारदातों से उनकी इस साख पर सवाल खड़े हो रहे हैं

Nitish Kumar during election campaign in year 2000 (Feb)
नीतीश कुमार साल 2000 के विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान अपने समर्थकों के साथ
अपडेटेड 28 जुलाई , 2025

पारस अस्पताल पटना के एक भीड़-भाड़ भरे बाजार में है और यहां से महज सात मिनट की दूरी पर बिहार राज्य पुलिस का मुख्यालय है. राजभवन और मुख्यमंत्री आवास भी महज चार किमी दूर हैं. यही वजह रही कि अस्पताल में 17 जुलाई की सुबह हुए हत्याकांड से पूरा बिहार सकते में आ गया.

इन अपराधियों ने अस्पताल के कमरा नंबर 209 में इलाज करा रहे एक सजायाफ्ता कैदी और बदनाम शूटर चंदन मिश्रा की हत्या कर दी थी. बाद में पता चला कि उन पांचों हत्यारों ने मिलकर 35 से अधिक गोलियां चलाईं, जिसमें एक तीमारदार को भी गोली लगी.

हालांकि तीमारदार बच गया मगर यह घटना बिहार की नीतीश सरकार के उस अपराधमुक्त शासन की छवि में बड़ी चोट साबित हुई. सिर्फ इसलिए नहीं कि यह घटना बिहार में पुलिस प्रशासन के इकबाल को सीधी चुनौती थी, बल्कि जुलाई में इससे पहले राजधानी पटना में 14 लोगों की हत्या हो चुकी थी. इनमें बड़े कारोबारी गोपाल खेमका, कारोबारी विक्रम झा, वकील जितेंद्र कुमार और निजी स्कूल के संचालक अजीत कुमार जैसे लोग शामिल थे. पटना ही नहीं पूरे बिहार में ऐसी वारदातों की झड़ी लगी हुई है. इस घटना के बाद भी हत्या का सिलसिला थमा नहीं है.

हत्याकांड के बाद पारस अस्पताल के सामने जुड़ी भीड़
हत्याकांड के बाद पारस अस्पताल के सामने जुड़ी भीड़

इसी वजह से पारस अस्पताल में हुई हत्या के दिन एक प्रेस कांफ्रेंस में नेता-प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने कहा, “सुबह से अब तक बिहार में पांच लोगों की हत्या हो चुकी है.” उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा, “बिहार में कहीं कोई सुरक्षित नहीं. 2005 से पहले ऐसा होता था जी?” विरोधियों के साथ-साथ अपने भी इस घटना के बाद सरकार की बदहाल कानून व्यवस्था पर सवाल उठाने लगे. लोजपा (रामविलास) नेता चिराग पासवान ने पोस्ट किया, “अपराधी अब कानून और प्रशासन को सीधी चुनौती दे रहे हैं. बिहार विधानसभा चुनाव से ठीक पहले बढ़ते आपराधिक मामले चिंताजनक हैं. उम्मीद है कि प्रशासन जल्द ही कानून व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए ठोस और कड़े कदम उठाएगी.”

नीतीश कानून व्यवस्था सुधारने वाले नेता रहे हैं

जिस बिहार में आज अपराधियों को राजधानी के सबसे बड़े अस्पताल में हथियार के साथ घुसने और हत्या करने का हौसला पैदा हो गया है, वहां महज डेढ़ दशक पहले पुलिस द्वारा जब्त की गईं अवैध पिस्तौलों को पिघलाकर खेती के हथियार बनाने की मुहिम चली थी यह नीतीश कुमार के पहले कार्यकाल के दौरान हुआ था. लालू-राबड़ी काल दौरान लगभग ध्वस्त हो चुकी कानून व्यवस्था को सुधारने और अपराध नियंत्रण करने का वादा करके सत्ता में आए नीतीश कुमार ने उस दौर के काबिल पुलिस अफसरों में से एक अभयानंद को एडीजी (स्पेशल ब्रांच) की जिम्मेदारी दी थी. इंडिया टुडे से बातचीत में अभयानंद कहते हैं, “मैंने इसकी शुरुआत आर्म्स एक्ट को ठीक से लागू करने से की. क्योंकि मुझे लगता था, अगर मैंने किसी तरह से अवैध हथियारों पर नियंत्रण कर लिया तो हर तरह के अपराध पर नियंत्रण कर सकता हूं. क्योंकि अपराधी छोटा हो या बड़ा वह हथियार रखता ही है. पकड़े जाने के 10-15 दिनों के अंदर दो साल की जेल हो जाती थी. सार्जेंट मेजर स्तर के अधिकारी इसमें गवाही देते थे. इससे ज्यादातर अपराधी जेल चले गए.”

वे अपनी किताब अनबाउंडेड में लिखते हैं, “एक साल के भीतर आर्म्स एक्ट के तहत गिरफ्तारी और तत्काल सजा दिलाने का फार्मूला सफल हो गया. तब भारी मात्रा में जब्त हथियारों को गलाकर खेती के हथियार बनाने की सांकेतिक मुहिम शुरू की गई. आर्म्स एक्ट के बाद अधिकारियों को ट्रायल समझ आने लगा. फिर मैंने किडनैपिंग और मर्डर केसेज पर फोकस किया. वह भी सफल हुआ तो पब्लिक का भरोसा कानून के राज पर होने लगा.”

जब्त हथियारों को इस तरह गलाया जाता था (फोटो : प्रशांत रवि)
जब्त हथियारों को इस तरह गलाया जाता था (फोटो : प्रशांत रवि)
जब्त हथियारों को गलाकर खेती के औजार बनाने की मुहिम (फोटो : प्रशांत रवि)
जब्त हथियारों को गलाकर खेती के औजार बनाने की मुहिम (फोटो : प्रशांत रवि)

दरअसल उस दौर में बिहार पुलिस ने अभयानंद जैसे अधिकारियों के नेतृत्व में स्पीडी ट्रायल की व्यवस्था विकसित की. फास्ट ट्रैक अदालतों के जरिये तेज न्याय की प्रक्रिया को लागू किया. बड़े अपराधियों को जेल में डालकर उनके साथ सख्ती करके उनका मनोबल तोड़ा. सैप जैसे पारामिलिटरी फोर्स की स्थापना की. स्पेशल टास्क फोर्स जैसे पुलिस बल का अपराध नियंत्रण में भरपूर इस्तेमाल हुआ और दो-तीन साल के भीतर बेलगाम अपराध, जिसे पटना हाई कोर्ट ने ‘जंगलराज’ का नाम दिया था. उस पर काबू पा लिया गया.

मगर पिछले कुछ वर्षों से बिहार पुलिस ने इन पारंपरिक और सफल तरीकों से दूरी बना ली है. जानकारों का मानना है कि इसी वजह से हाल के वर्षों में पुलिस का इकबाल लगातार कमजोर हुआ है. अभयानंद कहते हैं, “इस मसले में मेरा बोलना ठीक नहीं, मगर अगर आर्म्स एक्ट ठीक से लागू होता तो इस तरह अपराधी राजधानी पटना में हथियार लेकर बेखौफ नहीं घूम सकता था.”

पुलिस विभाग के शीर्ष अधिकारी भी दबे स्वर में इस बात को स्वीकार करते हैं कि स्पीडी ट्रायल की प्रक्रिया लगभग खत्म हो गई है. बिहार पुलिस के महानिदेशक विनय कुमार ने 16 जून को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में इसे स्वीकार करते हुए कहा भी था, “स्पीडी ट्रायल की प्रक्रिया फिर से शुरू हुई है, पिछले चार-पांच महीनों में इसमें तेजी आई है. अगर दो बार के नोटिस में भी पुलिस अधिकारी गवाही पर नहीं पहुंच रहे तो उनके वेतन में कटौती की जा रही है.  इसके लिए अलग सेल बनाया गया है, जो रिटायर पुलिस अधिकारियों और डॉक्टरों को अदालत पहुंचाने के लिए वाहन उपलब्ध करा रहा है और उनकी मदद कर रहा है.“

स्पीडी ट्रायल के साथ फास्ट ट्रैक अदालतों की भी अपराध पर नियंत्रण में बड़ी भूमिका थी. बिहार में एक जमाने में देश में सबसे अधिक 183 फास्ट ट्रैक अदालतें हुआ करती थीं. इस वजह से राज्य का कन्विक्शन रेट भी बेहतर हुआ था. मगर केंद्र सरकार ने इस फास्ट ट्रैक अदालतों को फंड देना बंद कर दिया तो 2013 तक आते-आते ये अदालतें भी बंद हो गईं. बिहार पुलिस ने अब फिर से सौ फास्ट ट्रैक अदालतों को खोलने का प्रस्ताव सरकार के पास भेजा है. इसके अलावा नियमित गश्ती और गुप्तचर सेवाएं भी सुस्त पड़ रही हैं. इसलिए बैंक डकैती और हत्याओं के मामले बढ़ रहे हैं.

शराबबंदी ने बढ़ाए अपराध?

सभी जानकार मानते हैं कि शराबबंदी लागू होने के बाद बिहार में अपराध भी बढ़े हैं और पुलिस पर काम का दबाव भी. अभयानंद कहते हैं, “मेरा स्पष्ट मानना है कि काले धन और अपराध का आपस में रिश्ता होता है. शराबबंदी के बाद बिहार में 25 हजार करोड़ का कालेधन का कारोबार तैयार हो गया है. जाहिर है यह अपराध को बढ़ा रहा है.”

बिहार में एसटीएफ के शुरुआती प्रमुख रहे विनय कुमार सिंह भी कहते हैं, “शराबबंदी अपराध के बढ़ने की सबसे बड़ी वजह है. काला कारोबार तो एक वजह है, इसकी वजह से बिहार में ड्रग्स का चलन भी बढ़ा है, उसने भी नए अपराधी पैदा किए हैं.” उन्होंने इसे लेकर बिहार सरकार को सुझाव भेजे हैं. साथ ही उन्होंने यह सुझाव भी भेजा है कि एसटीएफ का आकार घटाया जाए. इसे कभी भी फील्ड में 45 दिन से अधिक न रखा जाए. क्योंकि आकार बड़े होने और इनके फील्ड में अधिक रहने से इसका दबदबा और इसी मारक क्षमता घटी है. इसका इस्तेमाल हमेशा बड़े आपराधिक मामलों में किया जाए.

पहले पुलिस विभाग में अधिकारी रहे पटना साइंस कॉलेज के व्याख्यता अखिलेश कुमार कहते हैं, “मुझे लगता है नये अधिकारी पारंपरिक पुलिसिंग के तरीकों से बचती है. जबकि नियमित गश्ती और आर्म्स एक्ट को लागू कराने जैसे तरीके एवरग्रीन रहे हैं. पुलिस को इस दिशा में सोचना चाहिए. आखिर नियमित निगरानी और दबाव से बिहार के शहरों में लोग हेलमेट और सीट बेल्ट लगाने लगे हैं तो पुलिस वैसी ही निगरानी हथियार की जांच में भी कर सकती है.” इसके अलावा कई जानकार यह भी कहते हैं कि हाल के वर्षों में नीतीश कुमार की सक्रियता में कमी आई है, जिससे एक तो पुलिस विभाग पर उनका नियंत्रण घटा है. दूसरा राजनेताओं का दखल बढ़ा है.

नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर एक सीनियर पुलिस अधिकारी बताते हैं, “लालू जी का पीरियड इसलिए बदनाम था कि तब अपराधियों को राजनेताओं का संरक्षण था. मगर तब भी लालू अच्छे अधिकारियों की कीमत समझते थे और उन्हें क्राइम कंट्रोल के लिए इस्तेमाल करते थे. आज के समय में यह पहली बार हो रहा है कि अपराध अनियंत्रित है और सरकार को कोई फिक्र नहीं. शायद इसलिए कि नीतीश कुमार सक्रिय नहीं हैं. उनके सहयोगी ट्रांसफर पोस्टिंग में पैसे बना रहे हैं. यह पहली बार हमने देखा कि विधायक स्तर के नेता भी ट्रांसफर पोस्टिंग के लिए पैसे ले रहे हैं, क्योंकि चुनाव के पहले उन्हें अपनी पसंद का अधिकारी रेकमेंड करने की अलिखित छूट रहती है. जब नेता पुलिस की ट्रांसफर पोस्टिंग कराएगा तो उसका असर पुलिसिंग पर होगा ही.”

क्या योगी मॉडल लागू होगा

बिहार में बढ़ते अपराध के बीच बीजेपी के समर्थक अक्सर यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के मॉडल को लागू करने की बात करते हैं. वे एनकाउंटर के जरिये अपराधियों की हत्या और बुलडोजर के जरिये उनके घरों को ध्वस्त करने की भी बात करते हैं. पारस मामले में भी जब हत्या के आरोपियों को पश्चिम बंगाल के जिंदा पकड़ कर लाया गया तो सोशल मीडिया पर लोगों में नाराजगी थी, वे कह रहे थे कि इनका एनकाउंटर होना चाहिए था.

मगर अभयानंद जैसे पुलिस अधिकारी इस मॉडल के खिलाफ हैं. वे कहते हैं, अगर एनकाउंटर करवाना है तो राजनेताओं को इसका कानून बनवाना चाहिए. यह नहीं कि कानून कुछ रहे और राजनेताओं के दबाव पर पुलिस एनकाउंटर करती रहे. आपको पता होना चाहिए कि फेक एनकाउंटर की वजह से कितने पुलिस अधिकारी जेल में उम्रकैद की सजा काट रहे हैं. अभयानंद कहते हैं, “जब मुझे जिम्मेदारी मिली तो मुख्यमंत्री ने मुझसे कहा था कि पुलिस का राज लागू करायें. तब मैंने कहा था - पुलिस का राज लागू होगा तो पुलिस की गुंडागर्दी बढ़ जाएगी. राज कानून का लागू होना चाहिए. जो होगा कानून के हिसाब से होगा. कानून के रास्ते भी अपराध नियंत्रण हो सकता है, यह हमलोगों ने करके दिखाया है.”

एसटीएफ के प्रमुख रहे विनय कुमार सिंह भी फेक एनकाउंटर के विरोधी रहे हैं. वे कहते हैं, “एसटीएफ ने मेरी जानकारी में एक भी फेक एनकाउंटर नहीं किया है. मगर मुझे याद है कि उस दौर में जब कोई बड़ा व्यापारी अगवा होता था तो उसके परिजन कहते थे, मामला एसटीएफ को सौंपा जाए. बड़े अपराधी हमारा नाम सुनते ही आत्मसमर्पण के लिए तैयार हो जाते थे. जबकि हमारा स्पष्ट नियम था, पहली गोली हम नहीं चलाएंगे. एक बार तो रणबीर सेना का एक बड़ा कमांडर टाइप हमारे हत्थे चढ़ गया था. उसने पहले गोली चलाई तो हमने भी जवाब दिया. उसके पांव में गोली लग गई. हमारे अधिकारियों ने कहा कि क्यों न इसका एनकाउंटर कर दिया जाए. हमने कहा, नहीं, यह जिंदा है तो इसे गिरफ्तार कर इसका इलाज कराया जाएगा.”

विनय कहते हैं, “अभी स्थिति हाथ से निकली नहीं है, थोड़ी सी कोशिश से मामला ठीक हो सकता है.” अभयानंद भी कहते हैं, “तरीका वही है, आर्म्स एक्ट और स्पीडी ट्रायल और अपराधियों के आर्थिक संसाधनों को ध्वस्त करना.”

हालांकि पिछले कुछ दिनों में लगातार आपराधिक घटनाओं के होने से अभी राज्य का कोई पुलिस अधिकारी बयान देने को तैयार नहीं है मगर विभाग की तरफ से जो आंकड़े उपलब्ध कराए गए हैं, उसके मुताबिक पुलिस का कहना है बिहार में अपराध अभी भी नियंत्रित है. इसे इक्का-दुक्का मामलों से जज नहीं करना चाहिए. 

सत्ताधारी दल के प्रवक्ता भी इस बात को स्वीकार नहीं करते कि राज्य में अपराध बढ़ा है. जदयू के मुख्य प्रवक्ता नीरज कुमार के मुताबिक, “अपराध बढ़ा है यह झूठी बात है, विपक्ष गलत परसेप्शन बनाने की कोशिश कर रहा है. जहां तक पारस अस्पताल के मामले का सवाल है, क्या वहां के प्रबंधन की कोई जिम्मेदारी नहीं है? पुलिस तो बाहर देखेगी, अंदर का मामला तो अस्पताल प्रबंधन देखेगा. आप अपराध के आंकड़ों को देखिए, हाल के वर्षों में हत्या के मामले में गिरावट आई है. ये घटनाओं के आधार पर नैरेटिव बनाते हैं, आंकड़ों को नहीं देखते.”

मगर सवाल यह है कि क्या पुलिस और सत्ताधारी नेताओं के कहने से जनता मान लेगी कि बिहार में अपराध बढ़े नहीं हैं. और अगर बिहार में फिर से जंगलराज की वापसी का नैरेटिव बन गया तो इस चुनाव में उसका क्या असर होगा? अभयानंद कहते हैं, “आंकड़े से जरूरी बात है परसेप्शन. अगर लोगों को लगता है कि अपराध बढ़े हैं, तो उन्हें आप आंकड़ों से कैसे कनविंस करेंगे.”  वे अपनी बात आगे बढ़ाते हैं, “जब हमारे जमाने में अपराध पर काबू पाया गया था तो एक रोज मेरी पत्नी ने मुझे बिना सुरक्षा गार्ड के सादी वर्दी में अपने साथ नाइट शो सिनेमा देखने की चुनौती दी थी, जिसे मैंने पूरा करके दिखाया.”

चूंकि सुशासन बाबू के नाम से चर्चित मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हमेशा यह दावा करते रहे हैं कि उन्होंने लालू-राबड़ी के कुशासन और जंगलराज से बिहार को मुक्ति दिलाई. यह नैरेटिव उनके लिए लगभग हर चुनाव में कारगर साबित होता रहा. फिर से कथित “जंगलराज” न लौट जाए, इसके डर से बिहार के मतदाता लगभग हर चुनाव में उन्हें जिताकर मुख्यमंत्री बनाते रहे हैं. मगर 2025 बिहार विधानसभा से ऐन पहले इन घटनाओं ने उनका यह दावा कमजोर कर दिया है.

उस दौर में कानून-व्यवस्था स्थापित करने के अगुआ रहे अभयानंद भी अनौपचारिक बातचीत में कहते हैं कि मौजूदा माहौल उन्हें भी भयभीत करने लगा है. क्या पता कब कोई गोली मार दे? कुछ अन्य पुलिस अधिकारी भी इस माहौल में भय की बात अनौपचारिक बातचीत में स्वीकार करते हैं.

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के पूर्व प्रोफेसर पुष्पेंद्र बिहार में लालू यादव के दौर पर शोध करने वाले लेखक जेफ्री विट्सो को उद्धृत करते हैं, “वे कहते थे, लालू यादव के दौर में बिहार में डेमोक्रेसी फली-फूली और गवर्नेंस ध्वस्त हुआ. यह काफी हद तक सच्चाई भी थी. लालू यादव ने अपनी राजनीति का पूरा फोकस दबी-कुचली जातियों को अधिकार दिलाने पर रखा. इस प्रक्रिया में इन जातियों के बीच से अपराधी भी निकले, जिन्होंने अपनी जाति के शोषण को रोकने में मदद की और लालू ने भी इन अपराधियों की थोड़ी छूट दी. इस वजह से कानून व्यवस्था को बड़ा नुकसान हुआ. नीतीश इसे ही ठीक करने का वादा करके आए थे. उन्हें कुछ हद तक इस काम में सफलता भी मिली. मगर अब उनका गुड गवर्नेंस का दावा कमजोर पड़ता नजर आ रहा है और सुशासन बाबू की उनकी छवि को डेंट लग गया है.”

जाहिर है इसका फायदा चुनाव में महागठबंधन और खास तौर पर जंगलराज की पुरानी छवि से जूझ रहे राजद को होगा. अब तक अलग-अलग तरीके से तेजस्वी इस छवि से निजात पाने की कोशिश करते रहे हैं, अब उनकी यह दिक्कत दूर होगी.

मगर नीरज कुमार इन आशंकाओं को खारिज करते हैं. वे कहते हैं, “बिहार के आमलोगों को भरोसा है कि नीतीश कुमार हैं तो रूल ऑफ लॉ बरकारर रहेगा. उसको जब लगता है नीतीश कुमार नहीं रहेंगे, तो वह डर जाता है. महिलाएं भी उनके राज में सुरक्षित महसूस कर रही है. इसलिए यह नैरेटिव सफल नहीं होगा.”

राजधानी पटना में जुलाई महीने में हत्या की घटनाएं :

4 जुलाई : गांधी मैदान थाना इलाके में रामगुलाम चौक के पास घर के गेट पर गोपाल खेमका की हत्या

6 जुलाई : सगुना मोड़-खगोल रोड पर निजी स्कूल के संचालक अजीत कुमार की हत्या

10 जुलाई : रानी तालाब थाना के धाना गांव बगीच में बालू कारोबारी रामाकांत यादव की हत्या

11 जुलाई : रामकृष्णानगर थाना के जकरियापुर में दुकानदार विक्रम झा की हत्या

12 जुलाई : पुनपुन थाना पिपरा में ग्रामीण पशु चिकित्सक सुरेंद्र केवट की हत्या

13 जुलाई : सुल्तानगंज थाना के ट्रेनिंग स्कूल के पास चाय दुकान के पास वकील जितेंद्र कुमार मेहता की हत्या

17 जुलाई : पारस अस्पताल में घुसकर सजायाफ्ता अपराधी चंदन मिश्रा की हत्या

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