मराठा योद्धा रघुजी भोसले की ऐतिहासिक तलवार अपने असली ठिकाने महाराष्ट्र लौट आई है. रघुजी भोसले नागपुर के भोंसले राजघराने के संस्थापक और मराठा शासक छत्रपति शाहू प्रथम के सेनापति थे. उन्होंने 18वीं सदी के मध्य में पूर्वी भारत में मराठों के विस्तार में अहम भूमिका निभाई थी.
लंदन के सॉदबीज नीलामीघर में रघुजी भोसले की तलवार की नीलामी हुई, जिसे महाराष्ट्र सरकार ने बोली लगाकर अपने नाम कर लिया. रघुजी की यह तलवार मराठा गौरव और नागपुर की विरासत का अहम हिस्सा मानी जाती है.
महाराष्ट्र के सांस्कृतिक मामलों के मंत्री आशीष शेलार ने 29 अप्रैल को बताया कि सरकार ने 47.15 लाख रुपए में इस तलवार की बोली लगाई है, जिसमें हैंडलिंग, परिवहन और बीमा शामिल है.
यह पहली बार है, जब राज्य सरकार ने अंतरराष्ट्रीय नीलामी में कोई ऐतिहासिक धरोहर खरीदी है. नागपुर से ताल्लुक रखने वाले मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने भी सोशल मीडिया पोस्ट में इस खरीद का जिक्र किया.
यह तलवार कुछ तकनीकी समस्याओं के कारण एक अंग्रेज बिचौलिये के जरिए खरीदा गया है. इस तलवार पर सोने से 'श्रीमंत राघोजी भोंसले सेनासाहिबसुभा' लिखा हुआ है.
नवंबर 1817 में सीताबुलडी की लड़ाई में ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना ने मराठाओं को हराया था, जिसके बाद अंग्रेजों ने उनका खजाना लूटा था. इसी दौरान अंग्रेज रघुजी भोसले के तलवार समेत कई धरहोर अपने साथ ले गए थे.
राजा के वंशज और नागपुर राजघराने के नाममात्र प्रमुख राजे मुधोजी भोंसले ने महाराष्ट्र सरकार के इस फैसले का स्वागत किया है.
लेखक और इतिहासकार डॉ. उदय कुलकर्णी ने बताया कि 1740 के आसपास रघुजी प्रथम ने दक्षिण में अपना पहला बड़ा सैन्य अभियान शुरू किया था, क्योंकि उत्तर भारत में पेशवा बाजीराव प्रथम मराठा सेना का नेतृत्व कर रहे थे.
अर्काट यानी कर्नाटक सम्राज्य के नवाब ने तंजौर (तंजावुर) की घेराबंदी कर ली थी. तंजावुर मराठा शासक के अधीन था. ऐसे में सतारा के छत्रपति शाहू प्रथम ने रघुजी प्रथम और अक्कलकोट के फतेहसिंह भोसले को नवाब से लड़ने के लिए तंजावुर भेजा.
मराठों ने अर्काट के नवाब की घेराबंदी तोड़ दी, नवाब की सेना को हरा दिया. इस दौरान नवाब के दोस्त अली खान युद्ध में मारे गए. कुलकर्णी बताते हैं कि नवाब के दामाद चंदा साहब को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें सात साल तक नागपुर में रखा गया था. नागपुर की सेना ने तिरुचिरापल्ली को जीत लिया और इसे अगले तीन साल तक अपने कब्जे में रखा.
1740 में बंगाल के नवाब मुर्शिद कुली खान के वंश को उखाड़ फेंका गया और अलीवर्दी खान ने उनकी जगह ले ली. इसके बाद मुगल सूबेदारों के अधीन काम करने वाले सरदार मीर हबीब पदोन्नति नहीं मिलने के कारण अपने राजा से नाराज हो गए.
एक रोज मीर हबीब नागपुर आए और उन्होंने रघुजी प्रथम से सहायता मांगी. इसके बाद रघुजी प्रथम ने अपने सेनापति भास्कर राम कोल्हटकर या भास्कर पंडित को बंगाल और उड़ीसा पर कब्जा करने के लिए भेजा. हालांकि, कोल्हटकर को शांति वार्ता के लिए बुलाकर 1742 में अलीवर्दी ने उनकी हत्या कर दी.
कोल्हटकर की हत्या के बावजूद 1803 तक उड़ीसा पर नागपुर का नियंत्रण रहा. बाद में रघुजी प्रथम और उनके बेटे जानोजी प्रथम ने बंगाल पर हमला किया और जीतने के बाद मराठा सम्राट ने कुछ समय तक यहां कर यानी 'चौथ' वसूला.
ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1757 में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के खिलाफ प्लासी की लड़ाई जीतने के बाद मराठा सम्राट को ये कर भुगतान करना बंद कर दिया.
रघुजी प्रथम भोसले का निधन 1755 में हुआ था. उन्हें मराठा दरबार के आंतरिक सत्ता संघर्ष में पेशवा बाजीराव प्रथम के प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखा जाता था. वे छत्रपति शाहू प्रथम के प्रति वफादार थे, लेकिन पुणे के पेशवाओं के प्रति वफादार नहीं थे.
बाजीराव प्रथम की मृत्यु के बाद उनके बेटे बालाजी बाजीराव उर्फ नानासाहेब से रघुजी प्रथम का टकराव हुआ. नानासाहेब अपने पिता के बाद पेशवा बने थे. नानासाहेब ने बंगाल पर हमला कर एक छोटी लड़ाई में रघुजी प्रथम को हरा दिया था. 1743 में शाहू महाराज ने दोनों के बीच एक समझौता करवाया, बंगाल का प्रभार रघुजी प्रथम को दिया और इलाहाबाद जैसे क्षेत्रों का प्रभार नानासाहेब को मिला.
कुलकर्णी बताते हैं कि महाराष्ट्र के पास अब 18वीं सदी के दो दिग्गजों रघुजी प्रथम और रघुनाथराव पेशवा की तलवारें हैं, जिन्होंने लाहौर और अटक में मराठा सेना का नेतृत्व किया था. कुलकर्णी के मुताबिक, "अन्य कलाकृतियां भी खोजी जानी हैं और उम्मीद है कि इस पर भी काम किया जाएगा."
2023 में महाराष्ट्र सरकार ने नवंबर 1659 में प्रतापगढ़ की लड़ाई में आदिलशाही सेनापति अफजल खान को मारने के लिए छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा इस्तेमाल किए गए प्रतिष्ठित 'बाघ नख' या बाघ के पंजे को तीन साल के लिए ऋण पर खरीदा था.
महाराष्ट्र सरकार ने इसे विक्टोरिया और अल्बर्ट संग्रहालय से प्राप्त किया था. फिलहाल इस 'बाघ नख' को राज्य के अलग-अलग संग्रहालयों में प्रदर्शित किया जा रहा है और वर्तमान में यह सतारा में राज्य सरकार के ‘श्री छत्रपति शिवाजी महाराज संग्रहालय’ में है. 'बाघ नख' को 16 नवंबर 2026 को विक्टोरिया और अल्बर्ट संग्रहालय को वापस कर दिया जाएगा.
राज्य सरकार शिवाजी महाराज द्वारा इस्तेमाल की गई 'जगदम्बा' तलवार को ब्रिटेन से भारत वापस लाने की भी कोशिश कर रही है. यह तलवार ‘सेंट जेम्स पैलेस’ में शाही संग्रह का हिस्सा है.
बाघ के पंजे, जो हथियार का एक अनूठा रूप है, स्टील से बने होते हैं और इनमें चार 'नाखून' होते हैं, जिनमें पहली और चौथी उंगली के लिए दो अंगूठियां होती हैं. ‘बाघ नख’ को हथेली में छुपाने के लिए डिजाइन किया गया है और दो छल्लों के बीच के आकार का अंतर यह दर्शाता है कि यह बाएं हाथ में इस्तेमाल किया जाने वाला हथियार है.
नवंबर 1659 में शिवाजी महाराज सतारा जिले के प्रतापगढ़ किले की तलहटी में हमलावर सेनापति अफजल खान से मिलने गए. बीजापुर सल्तनत के आदिल शाही वंश के सेनापति अफजल खान तब अपनी शारीरिक ताकत के लिए प्रसिद्ध था.
शिवाजी से गले मिलते वक्त अफजल खान उनका गला घोंटने लगा. हमले की आशंका से वाकिफ शिवाजी महाराज ने ‘बाघ नख’ से अफजल खान का पेट चीरकर उसकी नापाक साजिश को विफल कर दिया. इसी वक्त अफजल खान को मराठा सेनापति संभाजी कावजी कोंधलकर ने मार डाला. इस तरह हमलावर सेना को मराठा सेना ने परास्त कर भागने पर मजबूर कर दिया.
1818 में मराठा संघ के प्रमुख पेशवाओं के पतन के बाद अंग्रेजों ने सतारा के छत्रपति प्रताप सिंह को मराठा सम्राज्य के संचालन की जिम्मेदारी सौंपी. प्रताप सिंह छत्रपति शिवाजी महाराज के वंशज थे. 1818 में जेम्स ग्रांट डफ को सतारा दरबार में ब्रिटिश रेजिडेंट (राजनीतिक एजेंट) के रूप में नियुक्त किया गया और 1822 तक उन्होंने राज्य पर शासन किया.
इसी समय जेम्स ग्रांट डफ ने मराठा सम्राज्य से जुड़े शासकों के हथियार हासिल किए थे. बाद में उन्होंने मराठ राजाओं के इतिहास पर किताब भी लिखी. जेम्स ग्रांट डफ के पोते लेफ्टिनेंट कर्नल एड्रियन ग्रांट डफ ने ‘बाघ नख’ को विक्टोरिया और अल्बर्ट संग्रहालय को सौंप दिया. सतारा राज्य को 1849 में अंग्रेजों ने प्रताप सिंह से छीनकर अपने अधीन कर लिया था.
अल्बर्ट संग्रहालय की वेबसाइट पर बताया गया है कि यह वही ‘बाघ नख’ है, जिसका इस्तेमाल शिवाजी ने एक मुगल जनरल को मारने के लिए किया था.
यह ऐतिहासिक धरोहर जेम्स ग्रांट-डफ को तब दी गई थी, जब वे मराठों के पेशवा के यहां सतारा में निवास कर रहे थे. हालांकि, मराठों के पेशवा के प्रधानमंत्री द्वारा जेम्स ग्रांट-डफ को ‘बाघ नख’ दिए जाने की बात में एक तथ्यात्मक गलती यह है कि पेशवा वंश का शासन 1818 में समाप्त हो गया था. ऐसे में पेशवा के प्रधानमंत्री द्वारा यह उपहार दिए जाने की बात उचित नहीं है.
विदेशी धरती से इन हथियारों की वापसी महाराष्ट्र के लोगों के लिए एक इमोशनल मुद्दा रहा है. महाराष्ट्र के अब तक के एकमात्र मुस्लिम मुख्यमंत्री अब्दुल रहमान अंतुले ने भी शिवाजी महाराज की 'भवानी' तलवार को इंग्लैंड से वापस लाने की अपनी इच्छा जताई थी.
राष्ट्रवादी और स्वतंत्रता सेनानी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, जो 1918-1919 तक इंग्लैंड में थे. ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने भी इस तलवार को भारत वापस लाने का प्रयास किया था. यह तलवार, जिसे शायद 1875-76 में भारत के दौरे पर आए अल्बर्ट एडवर्ड (तत्कालीन प्रिंस ऑफ वेल्स) को उपहार स्वरूप शिवाजी चतुर्थ ने भेंट की थी.