उत्तर प्रदेश की अदालतों का बोझ समझना हो तो सबसे अहम पैरामीटर है जमीन-जायदाद के मामले. दरअसल प्रदेश की अदालतों और तहसीलों में इस वक्त लाखों मुकदमे लंबित हैं, जिनका सीधा संबंध पैतृक संपत्ति के बंटवारे या भूमि विवाद से है.
एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक, यूपी की राजस्व अदालतों में करीब साढ़े 16 लाख मुकदमे अटके पड़े हैं. इनमें से ढाई लाख से ज्यादा तो ऐसे हैं जिन्हें पांच साल से अधिक हो चुके हैं और अब भी केवल तारीख पर तारीख मिल रही है.
यह आंकड़ा केवल संख्या भर नहीं है, बल्कि उस पीड़ा की झलक है जो इन मुकदमों से गुजरने वाले परिवारों को झेलनी पड़ती है. लखनऊ की निचली अदालतों से लेकर गोरखपुर, वाराणसी, मेरठ और कानपुर की तहसीलों तक, हर जगह लोग अपने हिस्से की जमीन पाने के लिए सालों से लड़ाई लड़ रहे हैं. राजस्व अदालतों में लंबित 26 हजार से ज्यादा मुकदमे और सिर्फ लखनऊ में ही छह हजार से ज्यादा जमीन विवाद यह बताते हैं कि व्यवस्था पर कितना दबाव है.
केवल राजस्व अदालत ही नहीं, पारिवारिक न्यायालयों का हाल भी यही है. देशभर में लंबित 11.79 लाख पारिवारिक मामलों में अकेले उत्तर प्रदेश का हिस्सा चार लाख से अधिक है. इनमें अधिकांश विवाद पैतृक संपत्ति से जुड़े होते हैं. यही वजह है कि प्रदेश की अदालतों में कुल लंबित मामलों का लगभग पांचवां हिस्सा सीधे-सीधे भूमि और संपत्ति विवाद से जुड़ा हुआ माना जाता है.
पारिवारिक मामलो के वकील राम उग्रह के अनुसार इस देरी का असर केवल अदालतों तक सीमित नहीं रहता है, कई बार यह कानून व्यवस्था का सवाल भी बन जाते हैं. राम उग्रह बताते हैं, “जिन परिवारों की रोजमर्रा की जिंदगी इन विवादों में फंसी होती है, उनके लिए यह मुकदमे पीढ़ियों तक का बोझ बन जाते हैं. खेत का बंटवारा न हो पाने पर भाई-भाई के बीच दूरी बढ़ जाती है. शहरी इलाकों में मकान और प्लॉट के विवाद कई बार हिंसा में बदल जाते हैं. देवरिया और आजमगढ़ जैसे जिलों में जमीन विवादों के चलते हत्याओं और सामूहिक झगड़ों तक के मामले सामने आ चुके हैं.”
ज्यादातर ग्रामीण परिवारों में मौखिक समझौते पर भरोसा किया जाता है, लेकिन जब अगली पीढ़ी आती है तो वही समझौता विवाद का कारण बन जाता है. तहसीलों में नामांतरण और खतौनी अपडेट न होने से समस्या और गहरी हो जाती है. ऊपर से रजिस्ट्री और स्टांप ड्यूटी का भारी खर्च पहले तक लोगों को औपचारिक दस्तावेज बनाने से रोकता रहा है. नतीजा यह होता है कि न तो परिवार को स्थायी समाधान मिलता है और न ही अदालतें फाइलों के बोझ से मुक्त हो पाती हैं.
राम उग्रह बताते हैं, “यह स्थिति समाज में अविश्वास का माहौल भी पैदा करती है. जब लोग न्याय व्यवस्था पर भरोसा खोने लगते हैं तो विवाद सड़क पर सुलझाने की कोशिशें शुरू हो जाती हैं. पंचायतों में झगड़े, दबंगई से कब्जे और हिंसक टकराव इसी के नतीजे हैं. इससे न केवल परिवार टूटते हैं बल्कि सामाजिक ताने-बाने पर भी गहरी चोट पड़ती है.”
अब कैसे बदल सकते हैं हालात
उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ की सरकार ने इन विवादों की जड़ में घुसकर एक अहम फैसला किया है. मुख्यमंत्री योगी की अध्यक्षता में 2 सितंबर को हुई कैबिनेट बैठक में अब पैतृक संपत्ति के विभाजन यानी पार्टीशन डीड पर लगने वाली स्टांप ड्यूटी और पंजीकरण शुल्क अधिकतम 5,000 रुपए तक सीमित करने का निर्णय लिया गया है. पहले यह शुल्क जमीन की कीमत के हिसाब से 4 फीसदी स्टांप ड्यूटी और 1 फीसदी रजिस्ट्री शुल्क होता था, जबकि नोएडा जैसे शहरी क्षेत्रों में यह 7 फीसदी तक पहुंच जाता था. यानी करोड़ों की संपत्ति के बंटवारे में लाखों रुपये सरकारी शुल्क देना पड़ता था.
अब चाहे संपत्ति कितनी भी बड़ी क्यों न हो, परिवार को अधिकतम 5,000 रुपए ही देना होगा. सरकार का मानना है कि जब रजिस्ट्री का खर्च कम होगा तो अधिक लोग औपचारिक बंटवारा कराएंगे. इससे अदालतों पर बोझ घटेगा, परिवारिक विवाद कम होंगे, भूमि व राजस्व रिकॉर्ड अपडेट होंगे और रियल एस्टेट लेन-देन पारदर्शी होंगे
राजस्व का नुकसान या भविष्य की कमाई?
सरकार के खुद के आकलन के मुताबिक, इस निर्णय से हर जिले में सालाना औसत के हिसाब से स्टांप ड्यूटी में करीब 5.58 करोड़ रुपए और पंजीकरण शुल्क में 80 लाख रुपए की कमी होगी. लेकिन योगी सरकार का तर्क है कि यह नुकसान अस्थायी है. जैसे-जैसे लोग औपचारिक बंटवारे के लिए रजिस्ट्री कराएंगे, संख्या बढ़ेगी और राजस्व की भरपाई हो जाएगी.
स्टांप एवं पंजीकरण विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी के शब्दों में, "पहले लोग लाखों रुपये स्टांप ड्यूटी देने से बचने के लिए मौखिक समझौते कर लेते थे. अब केवल 5,000 रुपए में उन्हें कानूनी दस्तावेज़ मिल जाएगा. लंबी अवधि में इसका फायदा सरकार और जनता दोनों को होगा." इस निर्णय से पहले योगी सरकार ने महिलाओं के लिए संपत्ति पंजीकरण पर 1 फीसदी की विशेष छूट भी लागू की है. पहले यह रियायत 50 लाख रुपए तक की संपत्ति पर थी, अब इसे बढ़ाकर 1 करोड़ रुपए तक कर दिया गया है. इसका मकसद महिलाओं को संपत्ति स्वामित्व के लिए प्रोत्साहित करना और सामाजिक-आर्थिक रूप से सशक्त बनाना है.
महिलाओं की बेहतरी के लिए काम कर रहीं समाजसेवी सुमन सिंह रावत योगी सरकार के इस फैसले को महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक मजबूत पहल मानती हैं. वे बताती हैं, “इस कदम से दोहरा फायदा होगा, महिलाओं का नाम संपत्ति रजिस्ट्री में बढ़ेगा और जमीन जायदाद संबंधी पारिवारिक फैसलों में महिला की हिस्सेदारी स्पष्ट होगी. इससे भी छोटे मोटे विवाद जो कि आगे चलकर बड़े पारिवारिक तनाव के रूप में सामने आते हैं, पर रोक लगेगी.”
योगी सरकार का नैरेटिव
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने वर्ष 2017 में सत्ता संभालते ही कानून-व्यवस्था सुधारने पर जोर दिया था लेकिन उनकी दूसरी प्राथमिकता राजस्व और प्रशासनिक सुधार रही है. जमीन-जायदाद विवादों में कमी उसी एजेंडा का हिस्सा है. राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि यह फैसला योगी सरकार को ग्रामीण वोट बैंक में भी फायदा पहुंचा सकता है. ग्रामीण परिवारों में ज़मीन-जायदाद बंटवारे की पीड़ा सबसे ज्यादा है. सस्ती रजिस्ट्री व्यवस्था को वे एक राहत मान सकते हैं. लखनऊ के अवध कालेज की प्राचार्य और राजनीतिक शास्त्र विभाग की प्रमुख बीना राय कहती हैं, “पैतृक संपत्ति विभाजन में लगे वाले स्टांप ड्यूटी और पंजीकरण शुल्क से जुड़ा फैसला अगर तेजी से जमीनी स्तर पर लागू हो गया तो अगले साल होने वाले पंचायत चुनावों में सत्तारूढ़ बीजेपी को इसका फायदा मिल सकता है. इसी लिहाज से इस फैसले की टाइमिंग अहम हो जाती है.”
हालांकि कानूनी विशेषज्ञों की राय है कि 5,000 रुपए की सीमा व्यवहारिक है, लेकिन इसके साथ दस्तावेज़ीकरण की प्रक्रिया को आसान बनाना भी जरूरी है. वरना लोग फिर से बिचौलियों के जाल में फंस सकते हैं. वरिष्ठ वकील और आरटीआइ एक्टिविस्ट शैलेंद्र सिंह चौहान योगी सरकार के इस निर्णय से जुड़ी कुछ चुनौतियों के बारे में भी इशारा करते हैं. उनके मुताबिक, “ग्रामीण जनता को इस फैसले की जानकारी कितनी मिलेगी, यह अहम सवाल है. तहसील स्तर पर रजिस्ट्री की प्रक्रिया अब भी लंबी और भ्रष्टाचार से भरी मानी जाती है. कई जगह रजिस्ट्री कराने में लोग सीधे तहसील नहीं जाते, बिचौलियों पर निर्भर रहते हैं. इससे दलालों के एक नए नेटवर्क का भी जन्म होगा जिससे निबटना सरकार के सामने बड़ी चुनौती होगी.” जाहिर है कि यह निर्णय अब योगी सरकार की प्रशासनिक ईमानदारी और जनजागरूकता की कसौटी पर ही खरा उतर सकेगा.