बिहार में इसी साल चुनाव होने हैं और अभी ही कांग्रेस के लिए एक अच्छी खबर आ गई. 4 फरवरी को जदयू के पूर्व राज्यसभा सांसद और ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज (एआईपीएमएम) के प्रमुख अली अनवर अंसारी और 'माउंटेन मैन' दशरथ मांझी के बेटे भगीरथ दिल्ली में कांग्रेस में शामिल हो गए. अंसारी का यह कदम हालांकि कोई खास चौंकाने वाला नहीं था क्योंकि उन्होंने 18 जनवरी को पटना में हुए संविधान सुरक्षा सम्मेलन में भाग लिया था. लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी भी इस कार्यक्रम में शामिल हुए थे.
इन नेताओं के शामिल होने से बिहार में कांग्रेस को अपनी खोई हुई जमीन वापस पाने के लिए एक सहारा-सा मिल गया है. राज्य में पार्टी का प्रभाव लगातार घटा है. खासकर अनवर अली अंसार के कांग्रेस में जाने से पार्टी बेहद आशान्वित नजर आ रही है. राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो अंसारी के कांग्रेस में शामिल होने से बिहार के पसमांदा मुसलमानों के बीच तेजी से कांग्रेस का वोट बैंक बढ़ने की संभावना है. लोकसभा चुनाव 2024 के पहले बीजेपी भी पसमांदा समुदाय की खातिरदारी में जुटी थी.
इंडिया टुडे के वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ श्रीवास्तव के मुताबिक, "बिहार के चुनावों में प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रही कांग्रेस पार्टी के लिए अंसारी का शामिल होना प्रतीकात्मक महत्व रखता है. जेडी(यू) से उनका जाना सिर्फ उनकी निष्ठा में बदलाव से कहीं ज़्यादा है. इसे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की ओर से पसमांदा मुसलमानों को अपने पक्ष में करने के लिए किए गए अथक प्रयासों के खिलाफ एक चाल की तरह देखा जा रहा है."
बिहार में पसमांदा मुसलमानों की राजनीति
बिहार में पसमांदा मुसलमान एक हाशिए पर पड़ा समुदाय है जो सालों से नीतीश के राजनीतिक गणित का केंद्र रहा है. साल 2023 के बिहार जाति सर्वे के मुताबिक, राज्य की आबादी में मुसलमानों की संख्या 17.7 प्रतिशत है. भले ही मुस्लिम समुदाय का रुझान बीजेपी के खिलाफ़ रहा हो मगर नीतीश ने मुसलमानों में पिछड़े समुदायों के लिए कल्याणकारी योजनाओं की मदद से अपना वोटबैंक तैयार किया है. मुसलमानों के बीच ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) और ईबीसी (अत्यंत पिछड़ा वर्ग) वर्गों को आरक्षण और छात्रवृत्ति जैसे सरकारी लाभ देकर, बिहार सीएम ने एक अखंड मुस्लिम पहचान की धारणा को बदलने का प्रयास किया है.
अब अपना खोया हुआ आधार वापस पाने के लिए उत्सुक कांग्रेस अंसारी में एक ऐसा नेता देखती है जिसकी जमीनी स्तर पर गहरी पैठ है, खासकर पसमांदा मुसलमानों के बीच. यह समुदाय बिहार की मुस्लिम आबादी का लगभग 85 प्रतिशत हैं. पसमांदा का अर्थ है 'वह जो पीछे छूट गया' और यह पिछड़े, दलित और आदिवासी मुसलमानों द्वारा समुदाय के भीतर भेदभाव के खिलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली एक व्यापक पहचान बन गई है. पिछले कुछ सालों में, 71 वर्षीय एआईपीएमएम प्रमुख अंसारी को पसमांदाओं की चिंताओं को उठाने और उन्हें राष्ट्रीय फोकस में लाने का श्रेय दिया जाता है.
मतदाताओं का वही वर्ग, जिसे नीतीश ने अपनी योजनाओं से सींचा, अनवर अली अंसारी का भी समर्थक हैं. अब कांग्रेस बिहार के हाशिए पर पड़े लेकिन चुनावी रूप से महत्वपूर्ण मुस्लिम समुदायों के बीच खुद को फिर से स्थापित करने की उम्मीद में उनके प्रभाव का फायदा उठाने की कोशिश करेगी.
बिहार में कांग्रेस की नैया क्यों डूबी?
बिहार पर कांग्रेस का एक समय में एकछत्र राज था. देश की सबसे पुरानी पार्टी ने अगड़ी जातियों, दलितों और मुसलमानों के गठबंधन के ज़रिए मार्च 1990 तक राज्य पर शासन किया था. लेकिन जैसे ही लालू प्रसाद यादव और नीतीश जैसे क्षेत्रीय दिग्गज उभरे, पार्टी का पारंपरिक वोट बैंक बिखर गया. दलित और मुसलमान लालू की राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और नीतीश की जेडी(यू) की ओर आकर्षित हुए, जबकि अगड़ी जातियों ने खुद को बीजेपी के साथ जोड़ लिया.
2020 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव तक, कांग्रेस एक पुरानी हवेली की जर्जर इमारत बनकर रह गई थी. पार्टी ने 70 सीटों पर चुनाव लड़ा और सिर्फ 19 सीटें जीतीं. यह प्रदर्शन राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन के लिए खतरनाक साबित हुआ जो महज 10 सीटों से सरकार बनाने से चूक गई थी.
अब कैसे आगे बढ़ना चाहती है कांग्रेस?
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, अंसारी के शामिल होने से पता चलता है कि कांग्रेस अब लालू पर सवार होकर और राजद के पारंपरिक यादव (15 प्रतिशत) वोट बैंक पर निर्भर रहकर संतुष्ट नहीं है. इसके बजाय वह बिहार की चुनावी राजनीति में अपनी स्थिति को बेहतर करने की कोशिश करते हुए 17 प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं के बीच अपनी पैठ कायम करने की कोशिश कर रही है.
इंडिया टुडे से बात करते हुए अंसारी ने कांग्रेस में शामिल होने के अपने फैसले का कारण राजनीतिक स्वार्थ के बजाय सिद्धांतों को बताया. उन्होंने कहा, "राहुल गांधी ने सांप्रदायिकता और क्रोनी कैपिटलिज्म (अपने करीबी कारोबारियों को नियमों से परे जाकर फायदा पहुंचाना) जैसे मुद्दों पर नरेंद्र मोदी का सामना करने का साहस दिखाया और संविधान के मूल सिद्धांतों को बनाए रखने के लिए एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन का नेतृत्व किया है. इस नए अध्याय में, मैं पहले से कहीं अधिक दृढ़ संकल्प के साथ मुस्लिम सशक्तिकरण के मुद्दे को आगे बढ़ाने का इरादा रखता हूं."
वहीं जेडी(यू) और एनडीए से अलग होने के बारे में उनका कहना था, "जब नीतीश कुमार फैसले लिया करते थे, तब मैं एनडीए का हिस्सा था. लेकिन 2014 के बाद एनडीए एक अलग ही इकाई बन गई है और नीतीश भी अब पहले जैसे नेता नहीं रहे."
कांग्रेस में शामिल होने के बाद अंसारी ने कहा कि उन्होंने मोदी को मॉब लिंचिंग और भेदभाव के कई मामलों पर कई पत्र लिखे हैं. उन्होंने कहा कि पिछले 25 सालों में उन्होंने पसमांदा मुद्दों पर चर्चा करने के लिए बिहार समेत कई राज्यों की यात्रा की है.
अमिताभ श्रीवास्तव कहते हैं, "कांग्रेस में कदवा विधायक शकील अहमद खान और बिहार कांग्रेस के पूर्व कार्यकारी अध्यक्ष कौकब कादरी जैसे मुस्लिम नेताओं की मौजूदगी के बावजूद, कांग्रेस अंसारी का समर्थन हासिल करने के लिए उत्सुक थी. पसमांदा मुसलमानों के लिए उनकी लंबे समय से चली आ रही वकालत पार्टी को राज्य के हाशिए पर पड़े मुस्लिम समुदायों को फिर से जोड़ने के प्रयास में बहुत जरूरी विश्वसनीयता प्रदान कर सकती है."
कौन है अली अनवर अंसारी?
बक्सर से ताल्लुक रखने वाले अली अनवर अंसारी ने अपना करियर एक पत्रकार के तौर पर शुरू किया था और आपातकाल के दौर के साथ ही पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के कार्यकाल को बड़े पैमाने पर कवर किया था. उन्होंने लालू प्रसाद की राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के साथ राजनीति में कदम रखा और 2000 से 2003 के बीच बिहार राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग के सदस्य के तौर पर भी काम किया.
नवंबर 2005 में नीतीश कुमार के सत्ता संभालने के बाद अंसारी जेडी(यू) की ओर चले गए. नीतीश ने पसमांदा नेता अली अनवर अंसारी को एक प्रमुख ओबीसी/ईबीसी मुस्लिम आवाज के रूप में देखा और उन्हें 2006 और 2017 के बीच दो बार राज्यसभा के लिए नामित किया. लेकिन जुलाई 2017 में नीतीश के पार्टी छोड़कर एनडीए में वापस आने के बाद वे उनसे अलग हो गए. उन्होंने पूर्व केंद्रीय मंत्री शरद यादव से हाथ मिला लिया जिन्होंने नीतीश से अलग होकर 2018 में लोकतांत्रिक जनता दल (एलजेडी) पार्टी बनाई थी. जैसे ही शरद यादव राज्य और राष्ट्रीय राजनीति के हाशिये पर चले गए, अंसारी के पास राजनीतिक रूप से बहुत कम विकल्प बचे थे. अब कांग्रेस पार्टी में अंसारी भी अपनी राजनीतिक जीवन का विस्तार देख रहे हैं.
अंसारी के अलावा और किसपर दांव लगा रही है कांग्रेस?
अंसारी के साथ ही कांग्रेस में शामिल होने वाले भगीरथ मांझी अपने पिता दशरथ मांझी की असाधारण विरासत की नैतिक ताकत को लेकर पार्टी में शामिल हो रहे हैं. दशरथ मांझी ने 22 साल अकेले ही एक हथौड़ा और छैनी का उपयोग करके पहाड़ को चीर कर रास्ता बना दिया था.
अंसारी और मांझी के अलावा, सामाजिक कार्यकर्ता मनोज प्रजापति, आम आदमी पार्टी (आप) के पूर्व नेता निशांत आनंद, चिकित्सक जगदीश प्रसाद, पूर्व बीजेपी नेता निघत अब्बास और लेखक-पत्रकार फ्रैंक हुजूर भी अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (एआईसीसी) के मीडिया एवं प्रचार विभाग के प्रमुख पवन खेड़ा और बिहार कांग्रेस प्रमुख अखिलेश प्रसाद सिंह की उपस्थिति में दिल्ली में पार्टी में शामिल हुए.
क्या निकलेगा नतीजा?
अमिताभ अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं, "कभी एक अनिच्छुक खिलाड़ी के रूप में खारिज किए जाने के बाद, राहुल अब यथास्थिति को बदलने और बिहार में अपनी पार्टी का साख बढ़ाने के इरादे से काम कर रहे हैं." उनके मुताबिक, हालांकि यह काम कठिन है.
दरअसल 2020 के चुनावों में कांग्रेस के निराशाजनक प्रदर्शन ने बिहार में पार्टी की कमजोरी जगजाहिर कर दी है. लगातार नीचे जाती पार्टी की दिशा को बदलना कोई आसान काम नहीं होगा. फिर भी, बिहार में राजनीतिक किस्मत कभी भी पत्थर की लकीर नहीं होती. नए लोगों के पार्टी में शामिल होने से उत्साहित कांग्रेस को उम्मीद है कि ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर पड़े समुदायों में पैठ कायम करने का प्रयास उसकी किस्मत को फिर से जगा सकता है. ऐसा होता है या नहीं, यह इसी साल के अंत में बिहार विधानसभा चुनावों में साफ़ हो जाएगा.