यह 18 अक्टूबर की बात है जब झारखंड में पश्चिमी सिंहभूम जिले के चाईबासा सदर अस्पताल में थैलेसीमिया से पीड़ित पांच बच्चे रूटीन चेकअप के लिए पहुंचे. इन्हें बीते 3 सितंबर को यहीं खून चढ़ाया गया था.
थैलेसीमिया खून से जुड़ी एक बीमारी है. यह खून में हीमोग्लोबिन की लगातार कमी बने रहने से होती है. इसके पीड़ितों को अक्सर एनीमिया (खून की कमी) की दिक्कत से जूझना पड़ता है और उन्हें बार-बार खून चढ़ाने की जरूरत पड़ सकती है.
अस्पताल में जब इन बच्चों के खून की जांच हुई तो हड़कंप मच गया. थैलेसीमिया तो था ही अब इनमें से कुछ HIV पॉजिटिव भी पाए गए. शुरुआती जांच में पता चला कि इन्हें सितंबर में जो खून चढ़ाया गया था, वह इस वायरस से संक्रमित था.
दरअसल मामला सामने आने के बाद झारखंड हाईकोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेते हुए जांच के आदेश दिए थे. 25 अक्टूबर को रांची से विशेषज्ञों की टीम चाईबासा सदर अस्पताल पहुंची. जिसने रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि की कि चढ़ाए गए खून में HIV वायरस था. झारखंड के सरकारी स्वास्थ्य महकमे में लापरवाही से जुड़ा यह ऐसा पहला मामला है.
26 अक्टूबर को जब मामले ने और तूल पकड़ा तो नेता प्रतिपक्ष बाबूलाल मरांडी ने कहा कि भविष्य में इन बच्चों के साथ कुछ होता है, तो यह राज्य प्रायोजित हत्या होगी. सीएम हेमंत सोरेन ने तत्काल संज्ञान लिया और जांच का आदेश दिया. उन्होंने कहा कि चाईबासा में थैलेसीमिया पीड़ित बच्चों का संक्रमित होना अत्यंत पीड़ादायक है. स्वास्थ्य प्रक्रिया में लचर व्यवस्था किसी भी हालत में बर्दाश्त नहीं की जाएगी. साथ ही उन्होंने पीड़ित बच्चों के परिजनों को 2-2 लाख रुपए देने की घोषणा की है.
इसके बाद स्वास्थ्य मंत्री डॉ इरफान अंसारी ने जवाब देते हुए कहा, "थैलेसीमिया से पीड़ित बच्चों में ब्लड ट्रांसफ्यूजन के माध्यम से HIV संक्रमण की आशंका का मामला अत्यंत गंभीर है. दो दिन पहले यह मामला मेरे संज्ञान में आया था, जिसके बाद मैंने तत्काल उच्च स्तरीय जांच के आदेश दिए. जांच के क्रम में एक थैलेसीमिया पीड़ित बच्चे में HIV संक्रमण की प्राथमिक पुष्टि हुई है. इस गंभीर मामले पर त्वरित कार्रवाई करते हुए चाईबासा के सिविल सर्जन, HIV यूनिट के प्रभारी चिकित्सक तथा संबंधित टेक्नीशियन सभी को तत्काल प्रभाव से निलंबित कर दिया गया है.”
इरफान अंसारी ने जानकारी दी कि बीते डेढ़ साल में इन बच्चों में 32 बार प्लाज्मा ट्रांसफ्यूजन हुआ है. ऐसे में उन सभी 32 लोगों की पहचान की जा रही है. झारखंड के इस जिले में थैलेसीमिया के कुल 56 मरीज हैं. वहीं राज्यभर में 5000 से अधिक मरीज हैं.
दोषी सिविल सर्जन या कोई और
नियम ये है कि जब कोई व्यक्ति ब्लड डोनेट करता है, तो ब्लड बैंक सबसे पहले उसके खून की सभी तरह से जांच करता है. इस रिपोर्ट को आने में बमुश्किल आधे घंटे का समय लगता है. रिपोर्ट आने के बाद उस डोनेट करनेवाले के ब्लड पैकेट पर ब्लड ग्रुप, HIV, हेपेटाइटिस सी, एचबीएस एजी, वीडीआरएल की रिपोर्ट दर्ज होती है. जब तक सब निगेटिव न मिले, उस ब्लड यूनिट को किसी दूसरे मरीज में नहीं चढ़ाया जा सकता.
हालांकि HIV संक्रमण की आखिरी पुष्टि होने में लगभग चार हफ्ते का समय लगता है. टेस्ट से लेकर रिपोर्ट आने तक के विंडो पीरियड में अगर संक्रमित व्यक्ति का खून ट्रांसफ्यूज हो जाए, तो खून लेने वाले में संक्रमण की ऐसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है.
आखिर संक्रमित खून जरूरतमंदों तक किन हालात में पहुंच जाते हैं? रांची के अतुल गेरा लाइफ सेवर्स रांची नाम की संस्था चलाते हैं और बीते 13 साल से राज्य भर में ब्लड डोनेशन कैंप लगाते आ रहे हैं. वे थैलेसीमिया पीड़ितों के लिए एक जनहित याचिका में बतौर एक्सपर्ट हाईकोर्ट को सलाह भी दे रहे हैं. गेरा बताते हैं, "पूरे राज्य में पैसों के लिए खून बेचनेवालों की तादाद बहुत ज्यादा है. ये प्रोफेशनल डोनर्स अपनी मेडिकल हिस्ट्री छुपाते हैं जिससे असुरक्षित ब्लड डोनेशन अधिक संख्या में होते हैं. इसके अलावा राज्य में अप्रवासी मजूदर बड़ी संख्या में आते हैं. वे भी ब्लड डोनेट करते हैं. इन मजदूरों में एड्स संक्रमण की आशंका अधिक होती है. नशा करने के लिए युवा भी खून बेचते हैं. सारे प्राइवेट हॉस्पिटल और प्राइवेट ब्लड बैंक इनके सहारे ही मरीज को खून देते हैं. चूंकि इसमें सभी पक्ष लाभार्थी हैं, ऐसे में कोई शिकायतकर्ता नहीं है. सरकार भी कैंप लगाकर ब्लड डोनेट को प्रोत्साहित करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं करती.”
हालांकि ऐसा भी नहीं है कि खून में HIV वायरस की आखिरी पुष्टि के लिए चार हफ्ते की समयसीमा को कम नहीं किया जा सकता. दरअसल इसके लिए एक डिवाइस - एनएटी (नैट) स्पर्ट मशीन की सहायता ली जाती है. जिससे जांच महज छह से सात दिन में पूरी हो सकती है. झारखंड के मात्र 6 अस्पतालों में यह मशीन काम कर रही है. इनमें से दो रांची में हैं. अतुल गेरा एक और कमी की तरफ इशारा करते हैं. वे जानकारी देते हैं, "राज्य में स्टेट ब्लड ट्रांसफ्यूजन काउंसिल की बैठक पिछले 6 साल से नहीं हुई है.”
यह काउंसिल ब्लड ट्रांसफ्यूजन सर्विस के हर काम से जुड़े नियम-कायदे तय करती है और उनके लागू होने पर नजर रखती है. हालांकि इसकी बैठक के लिए कोई समय सीमा तय नहीं की गई है, लेकिन अमूमन यह हर तीन महीने या छह महीने पर हो जानी चाहिए
नेशनल गाइडलाइन के मुताबिक ब्लड बैंकों में जांच की पूरी प्रक्रिया सही तरीके से हो, इसके लिए एक विशेष अधिकारी की नियुक्ति की जाती है. झारखंड में ज्यादातर जगहों पर मेडिकल सुपरिटेंडेंट को ब्लड बैंक का प्रभार सौंप दिया गया है. सामाजिक कार्यकर्ताओं के मुताबिक वे अपने मूल काम पर ज्यादा ध्यान देते हैं और ऐसे में ब्लड बैंक पर निगरानी ढीली पड़ जाती है. ऐसे में लापरवाही की संभावना हमेशा बनी रहती है. पश्चिमी सिंहभूम जहां ये घटना हुई है, वहां भी जेल के डॉक्टर दिनेश सवैंया ब्लड बैंक के प्रभारी थे. खूंटी जिले में भी सदर अस्पताल के मेडिकल सुपरिटेंडेंट ब्लड बैंक के प्रभारी हैं.
ऐसे में सवाल उठता है जिन सिविल सर्जन को सस्पेंड किया गया है, वहां क्या उनके पास पावर थी कि वे ब्लड बैंक की देखरेख के लिए एक अलग से अफसर नियुक्त कर सकते थे. जवाब है, नहीं. यह काम मंत्री और विभाग के सचिव स्तर पर होता है. जो अभी तक नहीं किया गया है. यानी इस मामले में एक बलि का बकरा ढूंढ़ लिया गया है.
साल 2021 में सीएम हेमंत सोरेन ने छह जिला अस्पतालों में ब्लड सेपरेशन कंपोनेंट मशीनों का उद्घाटन किया था. यह मशीन होल ब्लड यानी एक यूनिट ब्लड को तीन हिस्से में सेपरेट करती है. ताकि किसी मरीज को उसकी जरूरत के मुताबिक ब्लड कंपोनेंट में से जरूरत का कंपोनेंट दिया जा सके. यानी एक यूनिट ब्लड से तीन अन्य जरूरतमंद मरीज की जान बचाई जा सके. लेकिन राज्य के 24 जिलों में से 21 में इसकी व्यवस्था ही नहीं है. रांची में भी सिर्फ दो साल पहले यह व्यवस्था शुरू हुई है. आरोप यह भी लगाया जाता है कि कुछ जिलों में खराब क्वालिटी वाली मशीनों की खरीदारी की गई है. इसके अलावा कहीं मशीन हैं तो उसे ऑपरेट करनेवाले नहीं हैं.
इन सब के बीच एक बड़ा सवाल है कि अगर मरीज थैलेसीमिया से पीड़ित है और उसको HIV हो जाए तो फिर आगे क्या रास्ता रह जाता है. रांची सदर अस्पताल के हेमेटोलॉजिस्ट डॉ. अभिषेक रंजन कहते हैं, "थैलेसीमिया के मरीज पहले से ही नियमित ट्रांसफ्यूजन और आयरन ओवरलोड की समस्या से जूझ रहे होते हैं. अगर उनमें HIV संक्रमण हो जाए, तो उनका इम्यून सिस्टम पहले से अधिक कमजोर हो जाता है. ऐसे में हार्ट, लीवर व अन्य अंगों पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता है. थैलेसीमिया के मरीजों की औसत उम्र वैसे भी 30-35 साल होती है. HIV संक्रमण से ये और भी कम हो जाती है.
इस खतरे का एहसास पीड़ित बच्चों को भी है. जिले के मंझारी इलाके के एक परिजन ने कहा, "हम बच्चे के लिए जिंदगी की आशा लेकर जाते थे, अब बर्बाद हो गए.” टोंटो प्रखंड की एक छह साल की बच्ची थैलेसीमिया से पीड़ित है. उसके पिता नहीं हैं. मां ही ब्लड चढ़ाने के लिए अस्पताल लाती थी. वे कहती हैं, "ये (एड्स) क्या होता है मुझे पता नहीं. अब बस भगवान का भरोसा है.” चक्रधरपुर का एक बच्चा भी पॉजिटिव पाया गया है. इसके माता-पिता खुद को गुनहगार मान रहे हैं.
व्यवस्था की कमी को ढंकते हुए कुछ डॉक्टरों, कर्मचारियों को सस्पेंड कर दिया गया है. कुछ दिन बाद मामला ठंडा पड़ जाएगा. बात आई-गई हो जाएगी. उन पीड़ित बच्चों को छोड़ पूरा सिस्टम फिर पुरानी रफ्तार में चल पड़ेगा, अगली किसी गलती के पकड़े जाने तक.

