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उत्तर प्रदेश : राज्यपाल की हिदायत के बाद लिव-इन पर क्यों छिड़ी बहस

लिव-इन में रह रहीं लखनऊ की 20 वर्षीय इलहाम की संदिग्ध मौत और राज्यपाल आनंदीबेन पटेल की हिदायत के बाद छोटे शहरों में बढ़ रहे इस चलन पर बहस छिड़ गई है

सांकेतिक तस्वीर
अपडेटेड 13 अक्टूबर , 2025

लखनऊ के ठाकुरगंज इलाके के दौलतगंज में असलम मंजिल नाम की तीन मंजिला इमारत के बाहर अब भी सन्नाटा पसरा है. सात अक्टूबर की दोपहर यहां 20 साल के इलहाम का शव उसके कमरे के बिस्तर पर मिला था. पुलिस के मुताबिक मौत संदिग्ध हालात में हुई. परिजनों का आरोप है कि इलहाम की हत्या की गई है. वह पिछले कुछ महीनों से सीतापुर के सिधौली निवासी एक युवक के साथ लिव-इन रिलेशनशिप में रह रही थी. 

दोनों एक ही निजी टेलीकॉम कंपनी में काम करते थे. इलहाम के मामा असद के मुताबिक, युवक ने फोन कर बताया कि इलहाम ने आत्महत्या कर ली है. जब परिवार मौके पर पहुंचा तो उसके गले पर कसाव के निशान और शरीर पर खरोंचें थीं. असद कहते हैं, “वह खुश थी, पर पिछले कुछ दिनों से दोनों में झगड़े हो रहे थे. हम लोगों को कभी अंदेशा नहीं था कि बात यहां तक पहुंच जाएगी.” 

इलहाम की मौत सिर्फ एक निजी त्रासदी नहीं, बल्कि उस बदलते सामाजिक परिदृश्य की झलक है, जो छोटे शहरों में तेजी से उभर रहा है. लिव-इन रिलेशनशिप, जो कभी महानगरों की चीज समझी जाती थी, अब लखनऊ, मुरादाबाद, कानपुर, बरेली और गोरखपुर जैसे शहरों में भी सामान्य होती जा रही है. लेकिन साथ ही इन रिश्तों से जुड़े विवाद, झगड़े और शोषण की घटनाएं भी बढ़ी हैं. 

इसी पृष्ठभूमि में उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल ने हाल मे ही कई बार बेटियों को लिव-इन रिलेशनशिप से बचने की नसीहत दी. बलिया में 8 अक्टूबर को जननायक चंद्रशेखर विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में बोलते हुए उन्होंने कहा, “अगर लिव-इन रिलेशनशिप का परिणाम देखना है तो अनाथालय जाइए. 15-20 साल की बेटियां एक-एक साल के बच्चों को लेकर लाइन में खड़ी हैं. बेटियों को लुभावने झांसे में नहीं आना चाहिए.” अगले ही दिन वाराणसी के महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के दीक्षांत समारोह में भी उन्होंने यही दोहराया कि “बेटियां अपने जीवन को ऊंचे लक्ष्यों के लिए समर्पित करें और गलत रिश्तों से बचें.”

राज्यपाल का यह बयान सिर्फ नैतिक सलाह नहीं था. इसमें समाज की चिंता और बेचैनी की झलक थी. बीते एक साल में उत्तर प्रदेश के कई जिलों से लिव-इन रिलेशनशिप से जुड़ी घटनाएं सुर्खियों में आई हैं. इलहाम की मौत के दो दिन पहले बदायूं की 22 वर्षीय छात्रा का मामला सामने आया था. वह मुरादाबाद में पढ़ती थी, एक युवक से प्रेम हुआ, और उसके साथ दिल्ली चली गई. युवक ने शादी का वादा किया, लेकिन जब वह नौ महीने की गर्भवती हुई तो युवक फरार हो गया. बाद में पता चला कि उसका आधार कार्ड और पहचान दोनों फर्जी थे. युवती को युवक के परिवार या पते की कोई जानकारी नहीं थी. आखिरकार वह एक महिला वकील की मदद से वन स्टॉप सेंटर पहुंची और वहां से पिता उसे घर ले गए.

ऐसे ही मुरादाबाद के कांठ इलाके की 24 साल की युवती और ठाकुरद्वारा के 26 साल के युवक की कहानी भी बहुत अलग नहीं है. दोनों प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी के दौरान मिले, साथ रहने लगे, और परिवार को भी बताया कि शादी करेंगे. लेकिन जब युवक की सरकारी नौकरी लगी तो उसने शादी से इनकार कर दिया. काउंसलिंग हुई, बातचीत हुई, पर रिश्ता खत्म हो गया. युवती अब अपने घर लौट चुकी है. मुरादाबाद के वन स्टॉप सेंटर की प्रभारी गुंजन शर्मा बताती हैं कि पिछले महीने यानी सितंबर 2025 में आई कुल 89 शिकायतों में से दस शिकायतें लिव-इन रिश्तों से जुड़ी थीं. 

इनमें से अधिकांश में युवतियां पीड़ित थीं. गुंजन कहती हैं, “अधिकतर मामलों में लड़कियां कहती हैं कि पार्टनर ने साथ छोड़ दिया या शादी से मना कर दिया. कुछ के साथ शारीरिक शोषण हुआ, तो कुछ को डर है कि उनके निजी फोटो या चैट लीक कर दी जाएगी. कई बार महिलाएं सिर्फ यही चाहती हैं कि युवक के फोन से उनके फोटो डिलीट करवा दिए जाएं ताकि बदनामी न हो.” यह तस्वीर सिर्फ मुरादाबाद की नहीं है. लखनऊ, आगरा और प्रयागराज के वन स्टॉप सेंटरों में भी ऐसी शिकायतें बढ़ रही हैं. काउंसलर बताते हैं कि अब गांवों और कस्बों से भी लिव-इन के केस आने लगे हैं. जो चलन कभी सिर्फ मेट्रो सिटी तक सीमित था, अब अर्धशहरी इलाकों में आम होता जा रहा है.

लखनऊ में बलरामपुर अस्पताल के वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ. देवाशीष शुक्ल के मुताबिक, “कई युवा लिव-इन रिलेशनशिप को शादी की तैयारी या प्रयोग के तौर पर देखते हैं. लेकिन जब रिश्ता टूटता है तो आत्मग्लानि और अवसाद बढ़ जाता है. कई लोग खुद को दोषी मान लेते हैं. रिश्ते को निभाने की कला और मानसिक परिपक्वता दोनों जरूरी हैं, वरना यह रिश्ता किसी भी दिशा में जा सकता है.” डॉ. शुक्ल मानते हैं कि किसी भी रिश्ते में संवाद, सम्मान और सीमाएं जरूरी हैं. अगर अवसाद या आत्महत्या जैसे विचार आएं तो तुरंत मनोचिकित्सक, सलाहकार या भरोसेमंद व्यक्ति से बात करनी चाहिए.” 

समाजशास्त्रियों का मानना है कि यह चलन सामाजिक बदलाव की स्वाभाविक प्रक्रिया है. लखनऊ विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग के सहायक प्रोफेसर डॉ. राजेश्वर कुमार कहते हैं, “लिव-इन रिलेशनशिप व्यक्ति और समाज के बीच बढ़ती दूरी का परिणाम है. संयुक्त परिवार की जगह अब एकल परिवार ने ले ली है. अभिभावक और बच्चे के बीच संवाद कम हुआ है. युवा आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं, पर भावनात्मक रूप से अकेले. ऐसे में वे जुड़ाव और सुरक्षा रिश्तों में खोजते हैं.” डॉ. राजेश्वर बताते हैं कि बदलते समय के साथ परिवार की भूमिका सीमित होती गई है. वह कहते हैं, “पहले रिश्तों में बड़ों की स्वीकृति और जिम्मेदारी होती थी. अब सब कुछ निजी है. यही निजीपन कई बार जिम्मेदारी से दूर ले जाता है.”

राज्यपाल आनंदीबेन पटेल का बयान इसी पृष्ठभूमि में आया. लेकिन सवाल यह है कि क्या यह सिर्फ नैतिक संदेश था या एक सामाजिक चेतावनी? समाज के एक हिस्से ने इसे बेटियों के हित में कहा, तो दूसरे हिस्से ने इसे संरक्षणवादी सोच बताया. लखनऊ विश्वविद्यालय की शोध छात्रा मानसी कहती हैं, “आर्थिक आत्मनिर्भरता ने बेटियों को निर्णय की शक्ति दी है, लेकिन भावनात्मक परिपक्वता इसके साथ-साथ नहीं बढ़ी. राज्यपाल की बात डराने की नहीं, समझाने की कोशिश है. जब एक रिश्ते में कोई कानूनी या सामाजिक सुरक्षा न हो, तो नुकसान की संभावना बढ़ जाती है.” वहीं सामाजिक कार्यकर्ता काजल वर्मा का कहना है, “लिव-इन रिलेशनशिप में रहना किसी की निजी पसंद है. अगर कोई रिश्ता गलत दिशा में जाता है तो दोष रिश्ते के ढांचे का नहीं, बल्कि उसमें शामिल लोगों के व्यवहार का होता है. राज्यपाल को यह भी कहना चाहिए कि अगर बेटियां ऐसे रिश्ते में फंसे तो राज्य की व्यवस्था उन्हें सुरक्षित रास्ता दे.“

लिव-इन रिलेशनशिप पर कानून और न्यायपालिका की सोच भी पिछले कुछ सालों में बदली है. सुप्रीम कोर्ट ने 9 मार्च 2025 को अपने एक अहम फैसले में कहा कि अगर दो सक्षम वयस्क लंबे समय तक साथ रहते हैं, तो माना जाएगा कि उन्होंने यह रिश्ता अपनी मर्जी से चुना है और इसके परिणामों से परिचित हैं. जस्टिस संजय करोल और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा, “ऐसे मामलों में अदालत को सख्त नजरिया नहीं अपनाना चाहिए. लिव-इन रिलेशनशिप अब असामान्य नहीं हैं. महिलाएं आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं और अपने जीवन के निर्णय लेने में सक्षम हैं.” 

कोर्ट ने यह भी कहा कि लंबे समय तक साथ रहना अपने आप में सहमति का संकेत है. यह फैसला उस सामाजिक सोच का प्रतिनिधित्व करता है जो रिश्तों को अपराध या शर्म के रूप में नहीं, बल्कि समानता और सहमति के आधार पर देखने की वकालत करता है. लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि जब रिश्ता टूटता है, तो जिम्मेदारी और संरक्षण का सवाल सामने आ जाता है. खासकर तब, जब महिला गर्भवती हो या आर्थिक रूप से निर्भर हो.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़े बताते हैं कि 2023 में देश में लिव-इन पार्टनर से जुड़े विवादों और आत्महत्याओं के 372 मामले दर्ज हुए. इनमें सबसे ज्यादा मामले उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में थे. यूपी में इन मामलों में पिछले तीन वर्षों में 40 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई है. पीड़ितों में अधिकांश महिलाएं 18 से 28 वर्ष की थीं. मुरादाबाद के वन स्टॉप सेंटर की काउंसलर रश्मि चौधरी कहती हैं, “हर हफ्ते एक-दो मामले आते हैं, जहां लड़की को छोड़ा गया या गर्भवती होने के बाद दबाव बनाया गया. कुछ केस में युवतियां खुद भी साथी को धोखा देती हैं, लेकिन ऐसे मामले बहुत कम हैं. बड़े पैमाने पर महिलाएं ही पीड़ित हैं.” 

काउंसलर इन रिश्तों के टूटने के पीछे कई वजहें बताती हैं, दोनों का कामकाजी होना और एक-दूसरे को समय न दे पाना, दोस्तों का दबाव, सोशल मीडिया पर शक या झगड़ा, भरोसे की कमी, अभिभावकों से संवाद का अभाव और कई बार युवकों द्वारा पहली शादी छुपाना. डॉ. देवाशीष शुक्ल कहते हैं, “रिश्ता कोई भी हो, उसका टिकना आपसी समझ पर निर्भर करता है. अगर उसमें प्रतिस्पर्धा, तुलना और अविश्वास घुस जाए तो रिश्ते टूटना तय है.”

लिव-इन रिलेशनशिप का दूसरा पहलू यह भी है कि इसमें कुछ महिलाएं सुरक्षा की तलाश में आती हैं, तो कुछ पुरुष जिम्मेदारी से बचने के लिए. शहरों में किराए पर मकान लेना, साथ रहना, और किसी को जवाब न देना, यह आजादी कई बार दोनों के लिए जाल बन जाती है. लखनऊ के समाजसेवी अमन वाजपेयी कहते हैं, “यह सही है कि रिश्ते अब निजी हो गए हैं, लेकिन समाज अभी-भी परंपरा में बंधा है. जब रिश्ता टूटता है, तो दोष हमेशा महिला पर आता है. यही मानसिकता बदलने की जरूरत है.” 

राज्यपाल आनंदीबेन पटेल का बयान इसी टकराव की जमीन पर खड़ा दिखता है, एक ओर बदलती सामाजिक हकीकत, दूसरी ओर पारंपरिक चिंता. उनके शब्दों ने बहस तो छेड़ी है, लेकिन यह बहस जरूरी है. क्या सिर्फ चेतावनी से युवाओं का व्यवहार बदलेगा, या उन्हें रिश्तों को लेकर शिक्षित करने, संवाद बढ़ाने और सुरक्षा देने की जरूरत है? इलहाम, बदायूं की छात्रा और कांठ की युवती, तीनों कहानियां एक जैसी हैं, पर इनमें जो साझा बात है वह है असुरक्षा और अकेलापन. 

इलहाम का रिश्ता मौत पर खत्म हुआ, दूसरी लड़की का रिश्ता धोखे पर और तीसरी का भ्रम पर. यह सब बताते हैं कि प्रेम, भरोसा और जिम्मेदारी का संतुलन टूट रहा है. लिव-इन रिलेशनशिप पर समाज का नज़रिया धीरे-धीरे बदल रहा है, पर उसमें पारिवारिक जिम्मेदारी और भावनात्मक समझ की कमी है. अदालतें इसे व्यक्तिगत चुनाव मान रही हैं, पर समाज अब भी इसे पारंपरिक मानदंडों से आंकता है. लखनऊ के प्रतिष्ठ‍ित अवध कालेज की प्राचार्य बीना राय बताती हैं, “राज्यपाल की हिदायत का स्वर इसी द्वंद्व से उपजा लगता है. उन्होंने जो कहा, वह शायद उस पीड़ा की झलक है जो वन स्टॉप सेंटर, अस्पतालों और थानों में हर दिन सुनाई देती है. सवाल यह नहीं कि लिव-इन सही है या गलत. सवाल यह है कि क्या हमारे समाज ने युवाओं को इतना संवाद, भरोसा और समझ दी है कि वे अपने फैसले जिम्मेदारी से ले सकें?” 

इलहाम के कमरे का दरवाजा अब बंद है. उसके रिश्ते की कहानी वहीं खत्म हुई, जहां से बहस शुरू होती है, प्यार, भरोसा और जिम्मेदारी के बीच की वह महीन रेखा, जिसे समाज अब भी समझ नहीं पा रहा.

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