
अलीशा परवीन के चेहरे पर अब मुस्कान है. 14 साल की यह लड़की अपने गांव से एक आम मरीज बनकर पटना एम्स आई थी. उसे डेंगू हुआ था. हीमोग्लोबिन का लेवल घटकर तीन के पास पहुंच गया था. उसे खून चाहिए था, मगर कोई खून उसके शरीर से मैच ही नहीं कर पा रहा था. फिर एक दिन पता चला कि उसका ब्लड ग्रुप कुछ खास है. नाम है बॉम्बे ब्लड ग्रुप. यह ब्लड ग्रुप बहुत कम लोगों का होता है. बिहार के अस्पतालों को ऐसे सिर्फ पांच लोग उससे पहले मिले हैं, जिनका यह ब्लड ग्रुप है. फिर अलीशा के लिए मुम्बई से ही खून आया और अब वह स्वस्थ होकर अपने घर लौट रही है. एक खास ग्रुप की इंसान बनकर जिसका ब्लड ग्रुप रेयर (दुर्लभ) है.
अपनी कहानी बताते हुए एम्स के शिशु रोग वार्ड में भर्ती अलीशा कहती है, “मैं बचपन से आज तक कभी बीमार नहीं पड़ी. 10 अगस्त, 2023 को पहली दफा बुखार आने लगा तो उस वक्त मेरे टेस्ट चल रहे थे. मैंने किसी तरह दवा खाकर दो दिन परीक्षा दी. मगर 12 अगस्त तक मेरी तबीयत बिगड़ने लगी. फिर मुझे अपने गांव रोहतास के अकबरपुर के एक अस्पताल में भर्ती कराया गया. वहां पता चला कि मुझे डेंगू हो गया है और मेरा हीमोग्लोबिन लेवल 3.8 पहुंच गया है. उसके बाद से मुझे जो ब्लड चढ़ाने की कोशिशें शुरू हुईं उसकी वजह से मुझे पटना एम्स आना पड़ा.”
अलीशा को गांव के अस्पताल से लेकर पहले डेहरी ओन सोन के सरकारी अस्पताल ले जाया गया. वहां से फिर रोहतास के नारायण अस्पताल में रेफर कर दिया गया. अलीशा के भाई जीशान बताते हैं, “नारायण अस्पताल में ओ पोजिटिव ब्लड चढ़ाने की कोशिश की गई. मगर जैसे ही इसे खून चढ़ाया गया, इसे ठंड लगने लगी और तेज बुखार आ गया. यह अजीब हरकतें करने लगीं. हालांकि तब भी अस्पताल के स्टाफ जबरदस्ती खून चढ़ाना चाहते थे. मगर हमलोगों ने इसकी हालत देखकर इसे वहां से डिस्चार्ज करा लिया और लेकर पटना एम्स आ गये.”
पटना एम्स के स्टाफ को भी यह समझ नहीं आया कि अलीशा का ब्लड ग्रुप - बॉम्बे ब्लड ग्रुप है. यहां इसका हीमोग्लोबिन लेवल घटकर 3.2 आ गया था. एम्स के स्टाफ ओ पोजिटिव के हिसाब से इसे खून चढ़ाने की तैयारी कर रहे थे, मगर कोई ब्लड इसके खून से मैच नहीं कर रहा था. फिर एम्स के डॉक्टरों ने अलीशा के परिजनों से बाहर से खून लाने को कहा.
एक निजी ब्लड बैंक वालों ने पहचाना
अलीशा के परिजन पटना के कई ब्लड बैंकों में भटकते रहे. मगर कहीं उसका ब्लड मैच नहीं किया. जीशान बताते हैं, “आखिर में हम मां ब्लड सेंटर पहुंचे. वहां के डॉक्टर ने अलीशा की रिपोर्ट देखते ही कह दिया कि यह तो बॉम्बे ब्लड ग्रुप है. मगर उसके बाद हमारी मुसीबत और बढ़ गई. हमने कभी इस ग्रुप का नाम नहीं सुना था. हम यह भी नहीं जानते थे कि खून कहां से मिलेगा. मगर आखिर में मां ब्लड सेंटर वालों ने हमें भरोसा दिलाया कि वे खून अरेंज करवा देंगे. उन्होंने अपने स्तर से मुम्बई से दो यूनिट ब्लड मंगा दिया. एम्स की तरफ से भी जमशेदपुर में एक यूनिट ब्लड अरेंज कराया गया. तीनों यूनिट खून चढ़ने के बाद अलीशा की तबीयत सुधरने लगी है. डॉक्टर ने कहा है कि अब जल्द वह घर जा सकती है.” (नीचे तस्वीर में - अलीशा के भाई जीशान को ब्लड सौंपते मां ब्लड सेंटर के संचालक, )

मां ब्लड सेंटर में ब्लड बैंक के इंचार्ज उपेंद्र प्रसाद सिंह, जिन्होंने इस अलीशा के ब्लड ग्रुप की पहचान की, बताते हैं, “दरअसल मैं लंबे समय तक बिहार के सबसे बड़े अस्पताल पीएमसीएच के ब्लड बैंक का इंचार्ज रह चुका हूं, इसलिए मुझे इस ग्रुप के बारे में पता था. मेरे वहां काम करने के दौरान ऐसे सिर्फ पांच केस आये थे. मेरी जानकारी में जो आखिरी केस मिला था, वह एक गर्भवती महिला का था. उसके लिए भी पुणे से खून मंगवाया गया था. बिहार में कुल कितने लोग इस ब्लड ग्रुप के हैं, यह तो मैं नहीं बता सकता. मगर मेरी जानकारी में यह छठा केस है. यह रेयर ग्रुप है, जो अमूमन पारसी लोगों में ही मिलता है.”
आसान नहीं था खून अरेंज करना
मां ब्लड बैंक के संस्थापक-संचालक मुकेश हिसारिया कहते हैं, “पहले तो हमने सोचा कि बहुत महंगा काम है, इसलिए हम यह काम नहीं करेंगे. मगर जब मरीज के परिजनों को परेशान देखा तो मैंने थेलिसीमिया के लिए काम करने वाले एक मित्र विनय सेठी से संपर्क किया. उन्होंने मुम्बई के दो ब्लड बैंक सायन ब्लड सेंटर और वामनराव ब्लड बैंक से एक-एक यूनिट खून की मांग की. फिर हमने पेपर्स तैयार करके रात ग्यारह बजे भेजे. वहां से एक बजे रात में खून निकला.”
मुकेश बताते हैं, “सिर्फ एक ही कोरियर सर्विस है, जो ढाई से पांच डिग्री टेंपरेचर पर खून का ट्रांसफर कराता है. अगले दिन शाम छह बजे खून पटना पहुंच गया और हमने उसे सात बजकर दस मिनट पर एम्स पहुंचवा दिया. प्रोसेसिंग और कोरियर चार्ज मिलाकर इस काम में हमारे लगभग बीस हजार रुपये खर्च हो गये हैं, हालांकि हमने मरीज के परिजनों से कोई चार्ज नहीं लिया है.”
क्या है बॉम्बे ब्लड ग्रुप
इंसानों में अमूमन ए, बी, एबी और ओ पोजिटिव या निगेटिव ब्लड ग्रुप मिलते हैं. मगर कुछ इंसानों में सबसे अलग बॉम्बे ब्लड ग्रुप भी पाया जाता है. यह काफी रेयर ब्लड ग्रुप होता है. भारतीय महाद्वीप और ईरान में तो यह लोगों में मिल भी जाता है, मगर यूरोप में तो यह अत्यंत दुर्लभ होता है. दस लाख लोगों में से एक यूरोपियन का यह ब्लड ग्रुप होता है. भारत में हर दस हजार लोगों में से एक में यह ग्रुप पाया जाता है. हालांकि इसकी सघनता मुंबई के आसपास अधिक होती है. 1952 में मुम्बई में ही सबसे पहले इस ब्लड ग्रुप की पहचान हुई थी, वहां के डॉ वाई.एम. भेंडे ने इसकी खोज की थी. इसलिए इसका नाम बॉम्बे ब्लड ग्रुप पड़ा. डॉ. उपेंद्र बताते हैं कि अमूमन पारसियों में यह ब्लड ग्रुप पाया जाता है. इसे एचएच या ओएच ब्लड ग्रुप भी कहते हैं.