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सात साल बाद साथ नजर आए गहलोत और पायलट; राजस्थान की राजनीति में क्या कुछ बदलेगा?

पिछले एक दशक में अशोक गहलोत और सचिन पायलट का संबंध काफी नोकझोंक वाला रहा है. गहलोत तो पायलट को नकारा, निकम्मा और गद्दार तक कह चुके हैं

सचिन पायलट से गुफ्तगू करते राजस्थान के पूर्व सीएम अशोक गहलोत
सचिन पायलट से गुफ्तगू करते राजस्थान के पूर्व सीएम अशोक गहलोत
अपडेटेड 11 जून , 2025

राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच पिछले एक दशक से चली आ रही अदावत की बर्फ अब पिघलने लगी है. 11 जून का दिन सूबे में कांग्रेस की सियासत के लिए कुछ ऐसा ही खास दिन था.

7 साल के लंबे अंतराल के बाद कांग्रेस के ये दो दिग्गज नेता किसी निजी कार्यक्रम में एक साथ नजर आए. यूं 7 जून से ही इन दोनों के बीच फिर से नजदीकियां बढ़नी शुरू हुई जब सचिन पायलट अपने पिता की पुण्यतिथि पर दौसा जिले के भंडाना में आयोजित होने वाले कार्यक्रम के लिए न्योता देने अशोक गहलोत के घर पहुंचे.

वहां दोनों नेताओं के बीच करीब दो घंटे तक बतकही हुई. इस बातचीत का असर 11 जून को सार्वजनिक तौर पर नजर आया जब अशोक गहलोत ने यह कहा, "मैं और सचिन पायलट दूर कब थे. हम दोनों में खूब मोहब्बत है और ये हमेशा बनी रहेगी. ये तो मीडिया वाले हैं जो हमें अलग दिखाने की बात करते हैं."

(बाएं) अशोक गहलोत और (दाएं) सचिन पायलट
(बाएं) अशोक गहलोत और (दाएं) सचिन पायलट

काबिलेगौर है कि कुछ साल पहले ही अशोक गहलोत सचिन पायलट के लिए निकम्मा, नकारा और गद्दार जैसे हर्फ प्रयोग में ला चुके हैं. वाकया उस वक्त का है जब मुख्यमंत्री की कुर्सी नहीं मिलने से नाराज सचिन पायलट ने राजस्थान में सत्ता परिवर्तन की मांग को लेकर जुलाई 2020 में अपने समर्थक विधायकों के साथ मानेसर के एक रिसॉर्ट में डेरा डाल दिया था. उस वक्त सूबे में अशोक गहलोत की सरकार बने हुए डेढ़ साल का समय ही बीता था.

हालांकि, दोनों के बीच अदावत अक्टूबर-नवंबर 2018 से ही शुरू हो गई थी. उस समय पायलट राजस्थान की कांग्रेस इकाई के मुखिया थे और अशोक गहलोत अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में महासचिव और संगठन प्रभारी का दायित्व संभाल रहे थे. प्रदेश में विधानसभा चुनाव 2018 के टिकट बंटवारे के साथ ही दोनों नेताओं के बीच खींचतान शुरू हो गई थी. 

संगठन के मुखिया पायलट थे, मगर टिकट बंटवारे में ज्यादा अशोक गहलोत की चली. यही कारण है कि विधानसभा चुनाव में जब कांग्रेस को 99 सीटें मिलीं और प्रदेश के नए मुखिया के लिए रेस शुरू हुई तो बाजी अशोक गहलोत के ही हाथ लगी. उस वक्त पायलट और अशोक गहलोत दोनों ही मुख्यमंत्री पद के लिए अड़ गए थे.

ऐसे में कांग्रेस आलाकमान ने विधायकों के बीच एक त्वरित मोबाइल सर्वे कराया जिसमें अशोक गहलोत पायलट पर भारी पड़े. नतीजतन, गहलोत को मुख्यमंत्री और पायलट को उपमुख्यमंत्री का पद मिला. बताया जा रहा है कि पायलट उपमुख्यमंत्री पद और उन्हें मिले विभाग से संतुष्ट नहीं थे. इसी दौरान कुछ ऐसी घटनाएं भी हुईं, जिनसे दोनों नेताओं के बीच सियासी दरार बढ़ती चली गई.

पहला वाकया तो सचिन पायलट के उपमुख्यमंत्री बनते ही सचिवालय में ऑफिस को लेकर हो गया. सचिन पायलट सचिवालय के मुख्यमंत्री कार्यालय में ही अपना ऑफिस चाहते थे मगर उन्हें ऑफिस मुख्यमंत्री कार्यालय की जगह मुख्य भवन में मिला. कुछ घटनाएं उनके विभाग के अफसरों के तबादलों को लेकर भी हुईं जिनमें यह आरोप था कि उनकी मंजूरी के बिना उनके दफ्तर में अफसर लगाए और हटाए जा रहे हैं.

अशोक गहलोत के नेतृत्व में सरकार को बने डेढ़ साल का ही वक्त हुआ था कि पायलट ने बगावती तेवर अपना लिए और सीएम परिवर्तन की मांग को लेकर अपने 19 समर्थक विधायकों के साथ हरियाणा के मानेसर स्थित एक रिसॉर्ट में पहुंच गए. राजनीति विश्लेषक अजय पुरोहित कहते हैं, "पायलट को उस वक्त यह भरोसा था कि कुछ और विधायक भी उनके साथ आ जाएंगे और वे प्रदेश में अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री पद से हटाने में कामयाब रहेंगे. मगर और विधायक आना तो दूर, पायलट के साथ मानेसर जाने वाले विधायकों में से ही चार विधायक वापस अशोक गहलोत के पाले में आ गए."

उस वक्त राजस्थान में विपक्षी बीजेपी इस पूरे प्रकरण पर बारीकी से नजर बनाए हुए थी. मगर जब बीजेपी को लगा कि पायलट के साथ ज्यादा विधायक नहीं हैं तो उन्होंने पूरे प्रकरण से किनारा कर लिया.

कांग्रेस आलाकमान ने पायलट के इस कदम को सरकार के खिलाफ विद्रोह माना और उन्हें उपमुख्यमंत्री व कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा दिया. करीब 15 दिन तक यह सियासी ड्रामा चला और उसके बाद कांग्रेस आलाकमान की पहल पर दोनों के बीच सुलह के बाद मामला शांत तो हो गया, मगर दोनों नेताओं के बीच सियासी खींचतान कम नहीं हुई.

यही कारण है कि 2023 के विधानसभा चुनाव और 2024 के लोकसभा चुनाव में भी दोनों नेता एक दूसरे के साथ नजर नहीं आए. विधानसभा चुनाव की रैलियों में अशोक गहलोत ने सचिन पायलट पर खूब निशाने साधे. पाली में एक रैली में उन्होंने सचिन पायलट को गद्दार तक कह दिया. मानेसर प्रकरण के बाद प्रदेश में गोविंद सिंह डोटासरा के रूप में कांग्रेस की सियासत के एक और शक्ति केंद्र का उदय हुआ. पायलट की जगह अशोक गहलोत के खास डोटासरा के हाथ प्रदेश कांग्रेस की बागडोर आई.

2023 के विधानसभा चुनाव तक गोविंद सिंह डोटासरा और अशोक गहलोत दोनों एक साथ नजर आते रहे, मगर 2024 के लोकसभा चुनाव के टिकट बंटवारे में जब गोविंद सिंह डोटासरा की ज्यादा चली तो गहलोत ने उनसे सियासी दूरी बनानी शुरू कर दी. लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और उसके गठबंधन के हाथ जब 25 में से 11 सीटें लगी तो गोविंद सिंह डोटासरा का कद केंद्र में भी बढ़ने लगा. इसी दौरान टीकाराम जूली विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता चुने गए तो कांग्रेस में एक और शक्ति केंद्र बन गया. जूली कांग्रेस नेता भंवर जितेंद्र सिंह के समर्थक माने जाते हैं.

11 जून को राजेश पायलट की पुण्यतिथि पर आयोजित कार्यक्रम में अन्य नेता जहां अलग-अलग पहुंचे, वहीं गोविंद सिंह डोटासरा कांग्रेस के अपने समर्थक नेताओं के साथ वहां गए. दौसा जाने से पूर्व डोटासरा ने अपने समर्थक 12 विधायक, 1 सांसद, 7 विधायक उम्मीदवार, तीन सांसद उम्मीदवार और कई अन्य नेताओं को प्रदेश कांग्रेस मुख्यालय में बुलाया और वहां से उनके काफिले के साथ वे कार्यक्रम में पहुंचे. सियासी जानकार कहते हैं कि पायलट और गहलोत के साथ आने से प्रदेश कांग्रेस में गोविंद सिंह डोटासरा नए शक्ति केंद्र होंगे.

सचिन पायलट हर साल अपने पिता राजेश पायलट की पुण्यतिथि पर दौसा जिले के भंडाना गांव के पास सर्व धर्म प्रार्थना सभा का आयोजन करते हैं. इस बार प्रार्थना सभा में कांग्रेस के सभी 8 सांसद और 47 विधायक पहुंचे.

उल्लेखनीय है कि 11 जून 2000 को दौसा से जयपुर आते हुए भंडाना कस्बे के निकट एक कार दुर्घटना में राजेश पायलट का निधन हो गया था. 1980 में सीनियर पायलट राजस्थान के भरतपुर जिले से सांसद बने थे. उसी साल अशोक गहलोत भी जोधपुर से सांसद चुने गए थे. उस समय सचिन पायलट की उम्र करीब 4 साल की थी.

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