चुनाव से पहले के इस गर्म माहौल में, नीतीश कुमार सरकार की ओर से महिलाओं को दी जा रही आर्थिक मदद को लेकर नया विवाद शुरू हो गया है. राजद (राष्ट्रीय जनता दल) के राज्यसभा सांसद मनोज कुमार झा ने चुनाव आयोग को चिट्ठी लिखकर आरोप लगाया है कि सरकार ने मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना के तहत हर महिला को 10,000 रुपए देने का ऐलान चुनावी आचार संहिता लागू होने के बाद किया, जो नियमों का उल्लंघन है. उनका कहना है कि यह कदम सरकारी पैसे से वोटरों को लुभाने की कोशिश है.
वहीं दूसरी तरफ, नीतीश कुमार की पार्टी JDU जिसके कार्यकारी अध्यक्ष संजय झा हैं, ने इसे तीखे शब्दों में खारिज किया है. पार्टी का कहना है कि राजद की यह आपत्ति दिखाती है कि उन्हें महिलाओं के सशक्तीकरण से दिक्कत है. JDU का दावा है कि यह कोई चुनावी चाल नहीं, बल्कि पिछले बीस साल से चल रही महिलाओं पर केंद्रित नीतियों की कड़ी है, जिनमें साइकिल योजना, पेंशन, पंचायतों और नौकरियों में आरक्षण जैसे फैसले शामिल हैं.
इस विवाद ने दरअसल बिहार की उस महिला वोट बैंक पर ध्यान खींच लिया है जो जाति से परे है, एक ऐसी ताकतवर सियासी जमात जिसे अब हर बड़ी पार्टी अपने साथ जोड़ना चाहती है. अब मतदाता यह पूछ रहे हैंः कौन सी पार्टी सच में महिलाओं को बदलाव की ताकत मानती है, न कि सिर्फ चुनावी गणित का हिस्सा?
कई दशकों तक बिहार की महिलाएं लोकतंत्र की खामोश दर्शक बनी रहीं. वे अपने पति या भाइयों के साथ वोट डालने तो जाती थीं, लेकिन उनकी पसंद को कभी अहमियत नहीं दी जाती थी. पर 2000 के दशक के मध्य से अब तक, वे खामोशी धीरे-धीरे आत्मविश्वास और अपनी राय जताने की हिम्मत में बदल गई है.
1951 से 2005 तक बिहार की हर विधानसभा चुनाव में पुरुषों ने महिलाओं से ज्यादा वोट डाले. लेकिन 2010 में तस्वीर बदल गईः पहली बार महिलाओं का मतदान प्रतिशत (54.49%) पुरुषों (51.12%) से आगे निकल गया.
इसके बाद यह रुझान और मजबूत होता गया. 2015 के चुनाव में 60.54% महिलाएं वोट डालने पहुंचीं, जबकि पुरुषों का प्रतिशत 53.30% रहा. 2020 में भी यही हुआः महिलाएं 59.68% और पुरुष 54.45%. यहां तक कि 2024 के लोकसभा चुनाव में भी महिलाएं आगे रहींः 59.45% बनाम 53% पुरुष.
ये आंकड़े किसी भी चुनावी नारे से कहीं ज्यादा गहरी कहानी कहते हैं. बिहार जैसे राज्य में, जहां सालों तक जाति ने राजनीति की दिशा तय की, वहां अब जेंडर एक नई, शांत लेकिन मजबूत सियासी धुरी बनकर उभर रहा है. बिहार की महिलाएं अब पुरुषों के साथ वोट देने नहीं जातीं बल्कि वे खुद उन्हें वोट डालने के लिए लेकर जाती हैं.
नीतीश का ‘महिला वोट बैंक’
बिहार की राजनीति में महिलाओं की बढ़ती ताकत को शायद नीतीश कुमार से बेहतर कोई नहीं समझता. उन्होंने 20 साल से ज्यादा समय तक सत्ता में रहते हुए महिलाओं को अपनी चुनावी रणनीति के भावनात्मक और सामाजिक केंद्र में रखा है. उनकी राजनीति विचारधारा से ज्यादा सीधी पहुंच और ठोस लाभ देने वाली नीतियों पर टिकी रही है, ऐसी नीतियां जो घर, स्कूल और पंचायत स्तर तक असर डालती हैं. मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना के तहत अब तक 1.21 करोड़ महिलाओं को 10,000 रुपए की सहायता दी जा चुकी है ताकि वे छोटे-मोटे काम शुरू कर सकें. इससे पहले नीतीश सरकार ने 2006 में पंचायतों में महिलाओं को 50 फीसद आरक्षण दिया था और 2013 में सरकारी नौकरियों में उनका कोटा बढ़ाकर 35 फीसद कर दिया. बाद में इसे और विस्तारित किया गया ताकि ज्यादा श्रेणियों की महिलाएं इसका लाभ ले सकें.
इन कदमों ने एक स्थायी महिला वोट बैंक तैयार किया है. ऐसी महिलाएं जो मानती हैं कि नीतीश कुमार की वजह से उनकी सामाजिक स्थिति और आत्मसम्मान में सुधार हुआ है, भले बदलाव छोटा ही क्यों न हो. अब JDU को उम्मीद है कि यही मजबूत आधार सत्ता-विरोधी माहौल और थकान के असर को कम करेगा क्योंकि आज भले ही नीतीश मॉडल में नई चमक न बची हो, लेकिन महिलाओं के भरोसे की जड़ें अभी भी गहरी हैं.
महागठबंधन का जवाबी दांव
तेजस्वी यादव का राजद और कांग्रेस के नेतृत्व वाला महागठबंधन इस बार अपने चुनाव प्रचार का केंद्र नीतीश के महिला वोट बैंक को फिर से जीतना बना चुका है. इसका सबसे बड़ा वादा हैः सभी महिलाओं को हर महीने 2,500 रुपए की सामाजिक सुरक्षा पेंशन. यह योजना सिर्फ मदद नहीं, बल्कि राजनैतिक रणनीति और भावनात्मक अपील, दोनों है. इसका मकसद है नीतीश की कल्याणकारी नीतियों को टक्कर देना, लेकिन इस अंदाज में कि जैसे उनका काम अधूरा रह गया हो.
तेजस्वी का महिलाओं के लिए संदेश सरपरस्ती वाला नहीं, बल्कि सपनों से जुड़ा हुआ है. वे राहत नहीं, पहचान और सम्मान का वादा कर रहे हैं. उनकी स्कीम सार्वभौमिक बताई जा रही है यानी ये किसी खास वर्ग या शर्त पर निर्भर नहीं होगी. इस तरह वे चुनिंदा लाभ और जातीय राजनीति से अलग एक नई सोच दिखाने की कोशिश कर रहे हैं. भले ही इस योजना को लागू करने के लिए पैसे का इंतजाम कैसे होगा, यह सवाल बाकी है, लेकिन उत्तर और मध्य बिहार के गांवों में यह वादा अब लोगों की रोजमर्रा की बातचीत का हिस्सा बन चुका है.
बीच का रास्ता
इस सियासी मुकाबले में अब एक तीसरा स्वर भी जुड़ गया हैः प्रशांत किशोर और उनका जन सुराज अभियान. उनका रास्ता थोड़ा अलग हैः आधा तकनीकी, आधा लोकलुभावन. किशोर का प्रस्ताव है कि 60 साल से ऊपर के हर नागरिक — पुरुष, महिला, विधवा और दिव्यांग — को हर महीने 2,000 रुपए दिए जाएं ताकि वे अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी कर सकें. लेकिन यह सिर्फ पैसों का वादा नहीं है. इसके साथ वे सियासत में लैंगिक समानता का भी संकल्प जोड़ते हैं यानी उम्मीदवारों के चयन और पार्टी पदों पर महिलाओं की बराबर हिस्सेदारी.
उनका दांव प्रशासनिक क्षमता पर है कि अगर अच्छा शासन और बराबरी का प्रतिनिधित्व ईमानदारी से दिया जाए, तो वह काम कर सकता है जो बड़ी-बड़ी सब्सिडियां भी नहीं कर पातीं. यानी, चेक भले छोटा हो, लेकिन उसमें गरिमा और समानता की भाषा लिपटी हुई है.
बदलाव की हवा
अब सभी पार्टियों के बीच एक बात साफ दिख रही हैः बिहार की महिलाएं अब कोई ‘साइड कैटेगरी’ नहीं रहीं, बल्कि शायद सबसे निर्णायक वोट बैंक बन गई हैं. हालांकि, वे एक जैसी नहीं हैं. जाति, वर्ग और इलाका उनके फैसलों को अलग-अलग दिशा देते हैं. शहरी पटना की महिलाएं जहां एक तरह सोचती हैं, वहीं सीमांचल के तराई इलाकों या रोहतास के पहाड़ी इलाकों की महिलाओं की प्राथमिकताएं बिल्कुल अलग हैं. फिर भी, बदलाव की दिशा साफ है.
अब हर बड़ी पार्टी महिलाओं से सीधे संवाद कर रही है. उनके लिए खास घोषणापत्र और योजनाएं तैयार की जा रही हैं जो सिर्फ उनकी जरूरतों की नहीं, बल्कि उनके सपनों और आकांक्षाओं की बात करती हैं. अब मुकाबला इस बात पर है कि कौन-सा गठबंधन महिलाओं को भरोसा दिला पाएगा कि उसके वादे सिर्फ कागज पर नहीं, बल्कि उनके रोजमर्रा के जीवन में असली सुधार लाएंगे. अगर बिहार की राजनीति अब तक जाति की भाषा में लिखी गई, तो उसका भविष्य महिलाओं की आवाज में बोलेगाः ठहराव के साथ, समझदारी से और पहले से कहीं ज्यादा आत्मविश्वास के साथ. एक शांत क्रांति शुरू हो चुकी है, अब मतपेटी उसे बस थोड़ा और सुनाई दे रही है.

