दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के पास कोई चेहरा नहीं है? दिल्ली में बीजेपी का मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार कौन होगा? क्या दिल्ली बीजेपी यूनिट सांगठनिक तौर पर बीजेपी की सबसे कमजोर यूनिट है?
इन सवालों के अलावा और भी कई सवाल दिल्ली में अब तक सत्ताधारी आम आदमी पार्टी (आप), मीडिया और बीजेपी के आलोचकों के अलावा खुद बीजेपी के अंदर भी उठ रहे थे. खुद बीजेपी के अंदर इस बात को लेकर बहुत दुविधा की स्थिति थी कि आखिर दिल्ली विधानसभा चुनाव में किन रणनीतियों के साथ उतरें.
दिल्ली प्रदेश एक ऐसी पहेली बनी हुई थी, जिसे बीजेपी के शीर्ष नेता नरेंद्र मोदी का जादू और नई बीजेपी के चाणक्य माने जाने वाले अमित शाह की रणनीतियां भेद पा रही थीं. दिल्ली की सत्ता से ढाई दशक से अधिक का वनवास दूर करने के रास्ते को लेकर बीजेपी के अंदर भी स्पष्टता नहीं थी.
बीजेपी 1998 से लगातार दिल्ली प्रदेश की सत्ता से बाहर रही है. इसके बाद दिल्ली में 2003, 2015 और 2020 में तीन विधानसभा चुनाव ऐसे हुए हैं, जब केंद्र में बीजेपी की सरकार रही. 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में दिल्ली के मतदाताओं ने सभी सात सीटें बीजेपी को दीं. लेकिन दोनों बार तकरीबन सात महीने के अंतराल पर हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी को बहुत बुरी हार का सामना करना पड़ा.
यह तब हुआ जब नरेंद्र मोदी के तौर पर बीजेपी के पास एक ऐसा चेहरा है, जिसके नेतृत्व में बीजेपी कई राज्यों में पहली बार सरकार बनाने में कामयाब हुई और दो बार केंद्र में पूर्ण बहुमत हासिल करने में सफल हुई. ऐसे में मोदी और अमित शाह की जोड़ी के लिए दिल्ली के विधानसभा चुनाव अब तक एक जटिल पहेली ही साबित हुए हैं.
इस अनसुलझी पहेली की गुत्थियों को सुलझाते हुए दिल्ली की सत्ता से तकरीबन 27 वर्षों का वनवास दूर करने के लिए बीजेपी ने कई स्तर पर रणनीतियां बनानी शुरू की. प्रदेश बीजेपी के नेताओं समेत दिल्ली के चुनाव प्रबंधन में लगे बीजेपी के केंद्रीय नेताओं से अलग-अलग हुई बातचीत से यह पता चलता है कि बीजेपी ने दिल्ली विधानसभा चुनाव प्रबंधन में बहुत व्यापक स्तर पर योजना बनाकर काम किया.
इनमें से कुछ ऐसी रणनीतियां रहीं जिन्होंने बीजेपी को दिल्ली विधानसभा में दो तिहाई बहुमत दिलाकर प्रदेश की सत्ता में ढाई दशक बाद वापसी कराई.
सोशल इंजीनियरिंग
1990 के दशक में सोशल इंजीनियरिंग का जो फॉर्मूला पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय संगठन महासचिव केएन गोविंदाचार्य लेकर आए थे, उसे बीजेपी ने पिछले कई लोकसभा चुनावों और कई प्रदेशों के विधानसभा चुनावों में सफलतापूर्वक लागू किया है.
इस बार दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी पार्टी सोशल इंजीनियरिंग के जरिए प्रदेश के मतदाताओं के विभिन्न वर्गों को साधने में सफल रही. प्रदेश बीजेपी के एक नेता की मानें तो इसके लिए पार्टी ने 2023 के दिसंबर से ही काम करना शुरू कर दिया था लेकिन इसे गति दिया गया 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद. इस बारे में बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, "पार्टी ने अलग-अलग सामाजिक वर्गों को लेकर माइक्रो स्तर पर रणनीति तैयार की. इसमें जाति और वर्ग के आधार पर योजना बनाई गई."
दरअसल, बीजेपी ने अपनी सोशल इंजीनियरिंग के तहत विभिन्न जातियों को ध्यान में रखकर जो रणनीति बनाई, उसके तहत हर जाति के प्रमुख चेहरों को चुनाव में भी उतारा गया. उदाहरण के तौर पर गुर्जर समाज से आने वाले रमेश बिधूड़ी और जाट समाज से आने वाले प्रवेश वर्मा का टिकट बीजेपी ने 2024 के लोकसभा चुनाव में काट दिया था. दोनों दो बार के सांसद हैं. लेकिन इन दोनों को बीजेपी ने विधानसभा चुनाव में उम्मीदवार बनाया. रमेश बिधूड़ी को कालकाजी से निवर्तमान मुख्यमंत्री आतिशी के खिलाफ तो प्रवेश वर्मा को नई दिल्ली से आप के संयोजक और पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के सामने उम्मीदवार बनाया गया.
हालांकि, रमेश बिधूड़ी चुनाव हार गए लेकिन अपने विवादास्पद बयानों से बीजेपी की किरकिरी कराने वाले बिधूड़ी की उम्मीदवारी के मुख्यधारा में वापसी की पृष्ठभूमि के बारे में प्रदेश बीजेपी के एक नेता बताते हैं, "2025 के विधानसभा चुनावों को लेकर जब पार्टी में कुछ महीने पहले मंथन शुरू हुआ तो यह बात समझ में आई कि बीजेपी और आप के वोट प्रतिशत में जो तकरीबन 16 प्रतिशत का अंतर है, उसे कम करके अगर बीजेपी को जीतना है तो सोशल इंजीनियरिंग के रास्ते पर आगे बढ़ना होगा. पार्टी का अनुमान है कि दिल्ली में तकरीबन पांच प्रतिशत गुर्जर आबादी है. ऐसे में इस बात पर सहमति बनी कि अगर बिधूड़ी को उम्मीदवार बनाया जाता है तो यह आबादी पार्टी के साथ जुड़ सकती है."
वे आगे कहते हैं, "यह तर्क दिया कि ग्रामीण दिल्ली में तकरीबन 70 गांव ऐसे हैं, जहां गुर्जर समाज के लोगों का प्रभुत्व है. बदरपुर, तुगलकाबाद, संगम विहार, घोंडा, गोकलपुर, ओखला और करावल नगर जैसे विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं, जहां गुर्जर वोट निर्णायक साबित होता है." बीजेपी नेताओं का कहना है कि भले ही बिधूड़ी चुनाव हार गए लेकिन उनके उम्मीदवार बनाए जाने से गुर्जर समाज के प्रभाव वाली सीटों पर बीजेपी को फायदा हुआ.
दिल्ली में जाट मतदाताओं की संख्या तकरीबन आठ प्रतिशत है. इन वोटरों को अपने पाले में लाने के लिए बीजेपी ने अलग से योजना बनाई. इस योजना के केंद्र में प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा के बेटे प्रवेश वर्मा को रखा गया. प्रवेश वर्मा दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री और आप के सर्वेसर्वा अरविंद केजरीवाल को नई दिल्ली सीट से 3,000 से अधिक वोटों से हराने में कामयाब रहे.
जाट समाज को लेकर पार्टी की रणनीति के बारे में बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, "पूर्व मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा को लेकर न सिर्फ जाट समाज में बल्कि बाहरी दिल्ली के दूसरे वर्गों में भी एक सकारात्मक भाव रहा है. इसलिए उनके बेटे और दो बार के लोकसभा सांसद प्रवेश वर्मा को नई दिल्ली से केजरीवाल के खिलाफ उम्मीदवार बनाया गया." पार्टी को लगता है कि जाटों के एक बड़े वर्ग को बीजेपी के पाले में लाने में प्रवेश वर्मा की उम्मीदवारी से मदद मिली.
आप के बड़े नेता कैलाश गहलोत के बीजेपी में आने से भी पार्टी को मदद मिली. जाट समाज में अपनी पैठ बढ़ाने के लिए बीजेपी सिर्फ प्रवेश वर्मा और गहलोत का ही इस्तेमाल नहीं कर रही बल्कि दूसरे राज्यों के प्रमुख जाट नेताओं को भी दिल्ली में चुनाव प्रचार में लगााया. उदाहरण के लिए पूर्व केंद्रीय मंत्री संजीव बालियान को दिल्ली के उन क्षेत्रों में लगाया गया, जहां मूल तौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आने वाले जाट मतदाता प्रभावी स्थिति में थे. नांगलोई, बादली, नरेला और मुंडका जैसे विधानसभा क्षेत्रों में बालियान ने व्यापक जनसंपर्क किया.
बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव और हरियाणा से राज्यसभा सांसद चुने गए दुष्यंत कुमार गौतम को करोल बाग विधानसभा क्षेत्र से उम्मीदवार बनाया गया. अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित इस सीट से गौतम को उम्मीदवार बनाकर बीजेपी ने पूरे दिल्ली में आप के दलित वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश की. दिल्ली में दलित मतदाताओं की संख्या तकरीबन 16 फीसदी है. दलितों के बीच बीजेपी की रणनीति के बारे में पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से बात करने पर पता चलता था कि दलित मतदाता बीजेपी के लिए बड़ी चुनौती थे. क्योंकि आप की योजनाओं का सीधा लाभ इस वर्ग तक पहुंचा है.
दलितों को कैसे अपने पाले में लाना है, इसके लिए बीजेपी ने अपने कार्यकर्ताओं और सर्वे एजेंसियों को काम पर लगाया. पार्टी को इससे जो इनपुट मिला, उसके आधार पर बीजेपी ने यह तय किया बस्तियों में रहने वाले दलितों और झुग्गियों में रहने वाले दलितों के मुद्दे अलग-अलग हैं और दोनों के हिसाब से अलग-अलग रणनीति बनानी पड़ेगी. पार्टी नेताओं का कहना था कि झुग्गियों में रहने वाले दलितों को मुफ्त बिजली-पानी आदि का लाभ सीधे तौर पर महसूस हो रहा था, वहीं बस्तियों में रहने वाले लोगों पर इसका उतना प्रभाव नहीं था. ऐसे में बीजेपी ने बस्तियों में रहने वाले दलितों पर अधिक फोकस किया और झुग्गियों में रहने वाले दलितों पर अधिक ताकत नहीं लगाई.
दिल्ली प्रदेश में जो तकरीबन 30 प्रतिशत अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी मतदाता हैं, उनके अलग-अलग वर्गों के लिए भी बीजेपी ने अलग-अलग रणनीति बनाई. पार्टी के ओबीसी मोर्चा ने चुनाव प्रचार अभियान के दौरान हर दिन कम से कम तीन अलग-अलग जाति आधारित छोटी-बड़ी सभाएं कीं. बीजेपी को इसका काफी फायदा मिला. दिल्ली के तकरीबन चार प्रतिशत यादव मतदाताओं के लिए दूसरे प्रदेशों के यादव नेताओं को जनसंपर्क अभियान में लगाया गया.
इसी तरह से अन्य ओबीसी जातियों के लिए, भले ही उनका मत प्रतिशत कम हो, उनके समाज के नेताओं को दूसरे प्रदेशों से बुलाकर दिल्ली में काम बीजेपी ने करवाया. बिहार के उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य को भी इसी रणनीति के तहत दिल्ली के चुनाव प्रचार में उतारा गया.
क्षेत्र आधारित रणनीति
जाति के अलावा क्षेत्र के आधार पर सोशल इंजीनियरिंग करने की रणनीति को भी बीजेपी ने दिल्ली विधानसभा चुनाव में बहुत प्रभावी ढंग से अंजाम दिया. दिल्ली में पूर्वांचली मतदाताओं की संख्या तकरीबन 32 से 35 प्रतिशत है. पिछले तीन विधानसभा चुनावों से इस वोट बैंक का एक बहुत बड़ा हिस्सा आप के पाले में रहा. इसमें सेंध लगाने के लिए दिल्ली प्रदेश बीजेपी ने अपने पूर्वांचल मोर्चा के माध्यम से लगातार गतिविधियां चलाई.
केजरीवाल के एक बयान के बाद बीजेपी ने पूर्वांचल के लोगों के सम्मान का मुद्दा बेहद आक्रामक ढंग से उठाया. इस वोट बैंक के बीच कैसे काम करना है, इसे लेकर दिसंबर, 2024 के अंत में बीजेपी मुख्यालय में एक महत्वपूर्ण बैठक हुई थी. इसमें बिहार और उत्तर प्रदेश के प्रमुख बीजेपी नेताओं ने भी हिस्सा लिया. इस बैठक में यह रणनीति बनाई गई कि बीजेपी इन दोनों राज्यों के प्रमुख नेताओं से दिल्ली में प्रचार करवाएगी.
इसी रणनीति के तहत उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कई सभाएं दिल्ली में कराई गईं. इसी तरह से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की सभाएं और रोडशो दिल्ली में आयोजित कराई गईं. बिहार के दोनों उपमुख्यमंत्रियों सम्राट चौधरी और विजय सिन्हा को पार्टी ने दिल्ली में चुनाव प्रचार में लगाया. चुनाव प्रचार अभियान में इन प्रदेशों के शीर्ष नेताओं को ही नहीं लगाया गया बल्कि मंत्रियों, सांसदों और विधायकों को भी दिल्ली में छोटी-छोटी सभाएं करने के लिए कहा गया.
यहां तक की पूर्व सांसदों को भी लगाया गया. उत्तर प्रदेश के कैसरगंज से बीजेपी के सांसद रहे बृजभूषण शरण सिंह को पार्टी ने उन विधानसभा क्षेत्रों में प्रचार के लिए भेजा जहां अवध क्षेत्र के लोग रहते हैं. यहां तक की दोनों प्रदेशों के सांगठनिक नेताओं को भी चुनाव प्रचार में लगाया गया.
नैरेटिव
बीजेपी ने अपनी पूरी ताकत दिल्ली में एक ऐसा नैरेटिव गढ़ने में लगाई जिसके जरिए अरविंद केजरीवाल की 'भ्रष्टाचार विरोधी केजरीवाल' से 'भ्रष्ट केजरीवाल' की छवि बनाई जा सके. इसके लिए "आप'दा" जैसे शब्द गढ़कर प्रचार अभियान को तेज किया गया. चुनाव प्रबंधन में लगे बीजेपी नेताओं से बात करने पर पता चलता है कि बीजेपी के आईटी सेल को स्पष्ट निर्देश था कि हर घंटे एक ऐसा इन्फ्रोग्राफिक या पोस्टर या मीम जारी करना है जिसके माध्यम से केजरीवाल की भ्रष्ट नेता की छवि बन सके.
मैक्रो तौर पर नैरेटिव गढ़ने का काम किया गया. इसमें अरविंद केजरीवाल और आप के ईमानदारी के दावे को ध्वस्त करने के लिए कैंपेन डिजाइन किया गया. इसके तहत शीशमहल से लेकर आप सरकार के विभिन्न घोटालों को पार्टी प्रमुखता से उठाया गया. मुख्यमंत्री आवास को लेकर सीएजी की जो रिपोर्ट थी, उसे सिलेक्टिव ढंग से लीक कराया गया और मीडिया में इसका ठीक से बीजेपी ने प्रचार करवाया. मुख्यमंत्री आवास को 'शीशमहल' का नाम देने वाली बीजेपी ने शीशमहल का मॉडल बनवाकर दिल्ली के गली-मोहल्ले में घुमवाया और लोगों को यह समझाने में कामयाब रही कि केजरीवाल ईमानदार नहीं हैं.
कोई मुख्यमंत्री उम्मीदवार नहीं
बीजेपी ने दिल्ली में मुख्यमंत्री पद का कोई उम्मीदवार नहीं घोषित किया. पार्टी ने इसे एक रणनीति के तौर पर हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में आजमाया था. जिस तरह से हरियाणा में अलग-अलग सामाजिक वर्ग के नेताओं की तरफ से मुख्यमंत्री पद की दावेदारी की जा रही थी, उसी तरह की स्थिति पार्टी ने दिल्ली में भी योजना के तहत बनाई. जिस तरह से हरियाणा में मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में नायब सैनी के अलावा अनिल विज, राव इंद्रजीत सिंह और अन्य नेताओं का नाम लिया जा रहा था, उसी तरह की रणनीति बीजेपी ने दिल्ली में अपनाई.
दिल्ली की मुख्यमंत्री आतिशी ने सार्वजनिक तौर पर यह बयान दिया कि अगर बीजेपी जीत गई तो रमेश बिधूड़ी मुख्यमंत्री बन जाएंगे. हालांकि, बिधूड़ी चुनाव हार गए लेकिन बीजेपी को लगता है कि इस बयान के बाद गुर्जर समाज बीजेपी के पक्ष में एकजुट हुआ. गुर्जर समाज के लोगों में यह संदेश गया कि उनका नेता मुख्यमंत्री बन सकता है. इसी तरह की बात प्रवेश वर्मा और दुष्यंत गौतम को लेकर भी उनके समर्थक सार्वजनिक तौर पर कह रहे थे. पार्टी को लगता है कि इससे हर नेता के समर्थकों में उम्मीद जगी कि और इसका फायदा पार्टी को चुनाव में मिला.
संघ का साथ
दिल्ली प्रदेश की सत्ता में बीजेपी का ढाई दशकों से अधिक का वनवास दूर कराने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भी बहुत बड़ी भूमिका रही. संघ के नेताओं और बीजेपी की तरफ से दिल्ली के चुनाव प्रबंधन में लगे नेताओं में लगातार संवाद रहा और मिलकर रणनीतियां बनाई गईं.
दिल्ली को संघ ने अपने कामकाज के लिहाज से आठ विभागों में बांटा है. इसके तहत संघ के कुल 30 जिले हैं और 173 नगर हैं. हर स्तर पर संघ की यूनिट ने 'ड्राइंग रूम' बैठक की रणनीति बनाई गई. संघ नेताओं का दावा है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव के पहले तकरीबन 50,000 ड्राइंग रूम बैठकें आयोजित करके बीजेपी के पक्ष में माहौल बनाने का काम किया. संघ नेताओं का कहना है कि इन बैठकों में चार लाख से अधिक लोगों ने हिस्सा लिया. संघ स्वयंसेवकों को लग रहा था कि ये चार लाख लोग तो बीजेपी के पक्ष में मतदान करेंगे ही लेकिन ये ऐसे लोग थे जो दूसरे को भी प्रभावित करते.
संघ ने अपने आनुषंगिक संगठनों की मदद से पूरी दिल्ली में बीजेपी के पक्ष में माहौल बनाने का काम किया. संघ ने कई स्तर पर 'लोकमत परिष्कार अभियान' के नाम से जनसंपर्क किया और भाजपा के पक्ष में मतदाताओं को लाने का काम किया. उदाहरण के तौर पर छोटे कारोबारियों के बीच काम करने वाली संघ का अनुषांगिक संगठन लघु उद्योग भारती ने छोटे कारोबारियों के बीच लगातार संवाद किया.
इस संस्था ने प्रेस वार्ता करके तथ्यों के साथ यह साबित करने की कोशिश की कि कैसे अरविंद केजरीवाल के कार्यकाल में प्रदेश के छोटे कारोबारी परेशान हैं. इसी तरह से शिक्षा क्षेत्र में काम करने वाले संघ के संगठनों ने अपने स्कूलों और शैक्षणिक संस्थानों में 'लोकमत परिष्कार अभियान' के तहत लगातार बैठकें करके भाजपा के पक्ष में माहौल बनाने का काम किया.