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जब नरेंद्र मोदी से चिढ़कर नीतीश ने छोड़ा NDA, दोनों नेताओं की दोस्ती-दुश्मनी की पूरी कहानी

9 जून को गोवा में बीजेपी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में नरेंद्र मोदी को 2014 की कैंपेन कमिटी की कमान सौंपी गई. इसके ठीक 10 दिन बाद नीतीश ने 118 विधायकों के साथ NDA का साथ छोड़ दिया

पीएम नरेंद्र मोदी और सीएम नीतीश कुमार (फाइल फोटो)
पीएम नरेंद्र मोदी और सीएम नीतीश कुमार (फाइल फोटो)
अपडेटेड 20 नवंबर , 2025

10 मई 2009. लुधियाना में NDA की रैली की तैयारियां पूरी थीं. 16 मई को लोकसभा चुनाव के नतीजे आने वाले थे. इससे पहले, रैली में NDA के सभी घटकों के नेता जुट रहे थे. लक्ष्य था–एकता और शक्ति का प्रदर्शन. और एक संदेश, कि NDA अगर सरकार बनाती है, तो ये गठबंधन कैसा दिखेगा. लेकिन गठबंधन को लेकर कुछ सुगबुगाहटें न्यूज़ चैनलों पर पहले से थीं.

पत्रकार अटकलें लगा रहे थे, कि जिस तरह की तनातनी गठबंधन में दिख रही है, क्या बिहार के CM नीतीश कुमार इसमें शामिल होंगे? एक दिन पहले, 9 मई को बीजेपी प्रवक्ता सिद्धार्थनाथ सिंह मीडिया से मुखातिब थे. नीतीश के लुधियाना आने के सवाल पर वे कह रहे थे, “आप कल तक का इंतजार कीजिए. जो दृश्य आपको दिखेगा, आप गदगद हो जाएंगे.”

पत्रकारों का सोचना गलत नहीं था. दिवंगत पत्रकार संकर्षण ठाकुर के मुताबिक, नीतीश ने न जाने के लिए सारे बहाने अपनाए. शरद यादव से आग्रह किया कि उनकी जगह वे चले जाएं. लेकिन दिल्ली से अरुण जेटली के फोन आते रहे. आखिरकार, संजय झा, जो उस वक़्त बीजेपी में थे और कुछ साल बाद JDU में आए, ने नीतीश को मनाया. मुख्यमंत्री ने अंततः इस शर्त पर हामी भरी कि सुबह-सुबह चार्टर्ड फ्लाइट से जाएंगे और दिन ढले लौट आएंगे.

नीतीश 10 मई को लुधियाना पहुंचे. मंच सजा हुआ था. उनकी और नरेंद्र मोदी की कुर्सी स्टेज के लगभग दो अलग-अलग छोर पर लगी थी. नीतीश इधर चेहरे पर मुस्कान सजाए दुआ-सलाम में लगे थे कि दनदनाते हुए मोदी आए और नीतीश का हाथ पकड़कर ऊपर तान दिया. दोनों के चेहरों पर मुस्कान थी. बिहार के मुख्यमंत्री को मालूम ही नहीं पड़ा कि उनके साथ क्या हुआ. चेहरे पर मुस्कान तो ठहरी रही, लेकिन गाल सुर्ख हो गए.

कुछ ही मिनटों में न्यूज़ चैनलों पर ये तस्वीर छा गई. एक पत्रकार ने टीवी पर कहा, “भारतीय राजनीति का यह वो दृश्य है जिससे पूरे चुनाव के दौरान बिहार के मुख्यमंत्री कतराते रहे. लेकिन लुधियाना में उन्होंने साफ़ कर दिया कि NDA ही उनकी नियति है. और धर्मनिपेक्षता के नाम पर नरेंद्र मोदी और आडवाणी के नाम से दूर भागना सिर्फ एक छलावा था. चुनाव बीत जाने के बाद मोदी की मित्रता से उन्हें परहेज नहीं है…”

गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री की गर्मजोशी, नीतीश के लिए शर्मिंदगी थी. अगले दिन अखबारों में दोनों की तस्वीर थी, हाथ थामे, मुस्कुराते. नीतीश अब ये आशा मात्र कर सकते थे कि कुछ दिनों में ये दृश्य लोगों की स्मृति से मिट जाए. उन्हें क्या मालूम था कि एक बरस बाद एक यही तस्वीर उनके भूतकाल से किसी काले साए की तरह निकलकर उन्हें तंग करेगी.

अब आगे की स्टोरी में जानते हैं कि आखिर कैसी वापस आई ये तस्वीर, कैसे नरेंद्र मोदी ने बदली JDU और बिहार की पॉलिटिक्स और कैसे एक दिन नीतीश ने तय किया कि अब वे मोदी को और बर्दाश्त नहीं कर सकते?

यह कहानी है साल 2013 की, जब बीजेपी में मोदी के उभार, और बिहार में उनकी दखल से नाखुश नीतीश ने NDA को ‘डंप’ कर दिया था. इंडिया टुडे मैगज़ीन की 29 अप्रैल 2013 अंक में छपी रिपोर्ट ‘द लूजिंग बैटल’ और 26 जून 2013 अंक में छपी ‘बीजेपी का मोदी युग’ आर्टिकल के जरिए इस पूरी कहानी को शुरुआत से जानते हैं.

मई 2004 में केंद्र में UPA की सरकार बनने के पहले नीतीश कुमार अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में रेल मंत्री थे. इसी दौरान 2003 में वे कच्छ में एक रेलवे प्रोजेक्ट का उद्घाटन करने गुजरात पहुंचे थे.

यहां भाषण देते हुए वे कह रहे थे, "मुझे उम्मीद है कि नरेंद्र मोदी ज़्यादा समय तक गुजरात तक सीमित नहीं रहेंगे और देश को उनकी सेवाएं मिलती रहेंगी. गुजरात में काफ़ी काम हुआ है, लेकिन राज्य और नरेंद्र भाई की एक अलग छवि राज्य के बाहर बन गई है. राज्य में हुए काम का उस तरह प्रचार नहीं हो रहा है जैसा होना चाहिए." उन्होंने आगे कहा, "जो 2002 में हुआ वह एक कलंक था. लेकिन अगर हम सिर्फ़ उसे याद रखें और बाकी चीज़ों को भूल जाएं, तो यह अच्छा नहीं है."

शायद तब नीतीश ने कल्पना नहीं की होगी कि उनके नरेंद्र भाई की आहट अगले 10 साल में बिहार की चौखट तक पहुंच जाएगी. 2002 को भुलाने की अपील करने वाले नीतीश अपने मुसलमान वोट बैंक खोने के डर से खुद बार-बार उस साल को याद करेंगे.

नवंबर 2005 में जब बतौर मुख्यमंत्री नीतीश ने बिहार में NDA सरकार बनाई, गठबंधन के नियम भले ही अनकहे थे, लेकिन साफ़ थे. कि नीतीश की लोहियावादी, समाजवादी छवि के साथ कोई समझौता नहीं होगा. RJD के हाथ से फिसलकर जो मुस्लिम वोट बैंक उनकी झोली में आया है, उसकी रक्षा की जाएगी.

आरएसएस और बीजेपी अपने हिंदुत्व एजेंडा को बिहार तक लेकर नहीं आएंगे. अरुण जेटली और सुशील मोदी, जो न सिर्फ गठबंधन में, बल्कि निजी तौर पर भी नीतीश के दोस्त थे, ने इन अनकही शर्तों का मान रखा था. पहले आडवाणी, और अब नरेंद्र मोदी– नीतीश को इन नामों से पर्याप्त दूरी चाहिए थी.

लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद NDA में नीतीश का कद पहले से बड़ा हो गया था. यूं तो NDA बहुमत से ख़ासा पीछे रहा और केंद्र में सरकार नहीं बना पाया. लेकिन बिहार में इस गठबंधन ने कमाल कर दिया था और 40 में से 32 सीटें झटकी थीं और ये नीतीश के नेतृत्व में हुआ था. इस नतीजे ने संभवतः बिहार के मुख्यमंत्री के आंखों में सपना बोया. सपना आने वाले वक़्त में प्रधानमंत्री बनने का.

जून 2010 में पटना के गांधी मैदान में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक थी. इसके लिए मोदी पहली बार बिहार आ रहे थे. बिहार के बीजेपी नेताओं का उत्साह आसमान छूता था. लेकिन नीतीश के पास पटना में बैठने का वक़्त नहीं था. कुछ महीनों में बिहार विधानसभा चुनाव थे और वे विकास यात्रा पर थे. हालांकि नीतीश ने सुशील मोदी से वादा किया था कि पटना पहुंचे शीर्ष बीजेपी नेताओं के लिए महाभोज वे अपने आवास पर रखेंगे.

इसके लिए वे पटना वापस आ रहे थे. लेकिन यहां एक सरप्राइज उनका इंतज़ार कर रहा था. बैठक के कुछ दिन पहले ही पटना में गुजरात के मुख्यमंत्री के पोस्टर लग गए थे. जिनमें नरेंद्र मोदी को बिहार के कोसी बाढ़ राहतकोष में 5 करोड़ के ‘महादान’ के लिए धन्यवाद दिया गया था.

रात को महाभोज था. सुबह नीतीश अख़बार पढ़ने बैठे तो पहले पन्ने पर छपे फुल पेज विज्ञापन ने उनकी चाय को कसैला कर दिया. नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार हाथ में हाथ लिए और हवा में ताने दिखते थे. नीचे बिहार के मित्र मोदी को महादान के लिए धन्यवाद दिया गया था. लुधियाना का भूत लौट आया था.

विज्ञापन किसने छपवाए, गुस्से में संजय झा और सुशील मोदी से क्या कहा गया, ये इतना महत्वपूर्ण नहीं, जितना यह जानना है कि भोज के लिए ताना गया शामियाना शाम तक उतार लिया गया.

पत्रकार संतोष सिंह अपनी किताब ‘कितना राज, कितना काज’ में बकौल सुशील मोदी लिखते हैं, “नीतीश ने शर्त रख दी थी कि डिनर तभी होगा जब नरेंद्र मोदी न आएं. जिसपर बीजेपी में चर्चा हुई. और सुषमा स्वराज ने कहा कि निमंत्रण में कोई शर्तें नहीं होतीं, या तो सब जाएंगे, या कोई नहीं जाएगा.” इसके ठीक 9वें दिन बिहार के मुख्यमंत्री ने गुजरात से आया हुआ 5 करोड़ का चेक लौटाने की घोषणा कर दी.

क्या खोया, क्या पाया

बढ़ते तनाव के बीच बिहार विधानसभा चुनाव आ गए. 2005 में जब दोनों पार्टियों के बीच संबंध अच्छे थे, जदयू 141 और बीजेपी 102 सीटों पर चुनाव लड़ी थी. इस बार नीतीश बीजेपी को 90 से अधिक सीटें नहीं देना चाह रहे थे. लेकिन तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष अध्यक्ष नितिन गडकरी के नेतृत्व में बीजेपी ने जोर लगाया कि 102 सीटों से कम में काम नहीं चलेगा.

2010 में नीतीश ने आखिरकार 102 सीटें दीं, लेकिन इनमें से लगभग 13 सीटें पिछली बार से बदल दीं. ये 13 बीजेपी के लिए कमज़ोर सीटें आंकी गई थीं. लेकिन नतीजों ने नीतीश को बैकफुट पर ला दिया.

बीजेपी ने 102 में से 91 सीटें जीतीं और जदयू ने 141 में से 115. जीत की फीसद के हिसाब से बीजेपी का प्रदर्शन बेहतर था. अपने दम पर 7 सीटों से बहुमत चूकने के बाद गठबंधन में बने रहना नीतीश की मजबूरी हो गई. लेकिन चुनाव में जीत के बाद नीतीश न तो किसी बीजेपी नेता के साथ दिखे, न ही NDA की कोई साझा प्रेस कांफ्रेंस की.

इस बार बीजेपी के पास 2005 के मुकाबले अधिक सीटें थीं, लिहाजा वे मंत्रीपद के बंटवारे में अधिक हिस्सा चाहते थे. लेकिन नीतीश नहीं माने. अरुण जेटली ने बात को आगे बढ़ने से रोका.लेकिन आने वाले वर्षों में नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी एक-दूसरे पर हमलावर रहे.

2014 के आम चुनाव को लेकर जब NDA में PM फेस को लेकर चर्चा शुरू हुई, तो नरेंद्र मोदी का नाम नीतीश को ज़ाहिरा तौर पर परेशान कर रहा था. न सिर्फ इसलिए कि वे केंद्रीय मंत्री रह चुके होने के नाते न सिर्फ खुद को गुजरात के मुख्यमंत्री से सीनियर मानते बल्कि मोदी के PM बनने के बाद देश के बाकी ओबीसी नेताओं की चमक फीकी पड़ने के डर से घिरे हुए थे. अब तक आडवाणी के नाम से कटने वाले नीतीश उनके पाले में आने लगे थे. मोदी के मुकाबले ‘पितामह’ उन्हें बेहतर लगने लगे थे.

इस बीच नीतीश की ज़ाहिर नाराजगी के बीच NDA से अलग होने की अटकलें लगने लगी थीं. इंडिया टुडे मैगज़ीन के 29 अप्रैल 2013 अंक में छपी रिपोर्ट में अमिताभ श्रीवास्तव ने लिखा कि नीतीश अगर बीजेपी का साथ छोड़ते हैं तो एक बड़ा नुक्सान झेलने के लिए उन्हें तैयार रहना होगा.

अपर कास्ट और मिडिल क्लास वोट बैंक उनके पास नहीं था. कुछ EBC (एक्सट्रीमली बैकवर्ड) की बीजेपी के साथ जाने की संभावना थी. बीजेपी के साथ मिलकर बनाया गया एक समीकरण, जो जाति के आधार पर बंटे हुए बिहार ने पहले कभी नहीं देखा था, का टूटना तय था. मुसलमान वोट का छिटककर कांग्रेस के पाले में जाने का रिस्क था.

एंटी-इनकंबेंसी नीतीश के इंतज़ार में थी. लेकिन दूसरी ओर नीतीश को अपनी सोशल इंजीनियरिंग पर भरोसा था. EBC और महादलित के अलावा 16.5% मुस्लिम का वोट जो मोदी से अलग होकर उनके लिए पक्का हो जाएगा, वो इसपर यकीन रखते थे. वहीं नीतीश ने जाति से परे, एक नए महिला वोटर बेस तैयार किया था. जिसकी वफादारी पर उन्हें पूरा यकीन था.

जब मुसुकुराते हुए नीतीश ने छोड़ा साथ

लेकिन अगले लोकसभा चुनाव के पहले गुजरात का नंबर था. नरेंद्र मोदी ने 2012 के गुजरात चुनाव में जीत हासिल की. वे केंद्र में 10 साल से विपक्ष में बैठी बीजेपी की नई पीढ़ी थे. इधर बिहार में न सिर्फ बीजेपी और जदयू के मंत्रियों के बीच तनातनी थी, बल्कि गिरिराज सिंह जैसे मंत्री खुलकर नीतीश के खिलाफ बोलते थे.

अप्रैल 2013 में नीतीश ने बीजेपी को अल्टीमेटम दिया. कि दिसंबर 2013 तक प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा की जाए. लेकिन दिसंबर अभी दूर था. उसी साल 9 जून को गोवा में बीजेपी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हुई. यहां 2014 की कैंपेन कमिटी की कमान नरेंद्र मोदी को सौंपी गई.

इस बैठक में आडवाणी शामिल नहीं थे. और 9 जून को हुई घोषणा के बाद आडवाणी ने बीजेपी के सभी प्रमुख पदों से इस्तीफा दे दिया. इंडिया टुडे की 26 जून 2013 अंक की रिपोर्ट के मुताबिक़, "उथल-पुथल भरे पूरे घटनाक्रम के दौरान नीतीश कुमार आडवाणी के संपर्क में थे. वे बिहार में मोदी के व्यापक प्रचार अभियान से चिंतित हैं."

भावना विज अरोड़ा अपनी रिपोर्ट में आगे लिखती हैं, "नीतीश ने स्पष्ट संकेत दिए हैं कि बीजेपी में बदलाव के वे मूक दर्शक नहीं बनेंगे.” इसी रिपोर्ट के मुताबिक़, अगले दिन अपना इस्तीफ़ा वापस लेने के बाद आडवाणी मध्यस्थ की भूमिका में आ गए. उन्होंने नीतीश से गठबंधन में बने रहने का अनुरोध किया और यह आश्वासन भी दिया कि नरेंद्र मोदी अब तक प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं हैं."

इस प्रकरण के बारे में संकर्षण ठाकुर अपनी किताब 'द ब्रदर्स बिहारी' में लिखते हैं, "अगर आडवाणी जैसे नेता को आने वाले मोदी राज के पहले इस तरह दरकिनार किया जा सकता था, तो नीतीश के लिए क्या उम्मीद बचती थी?"

बिहार के मुख्यमंत्री के लिए अब दिसंबर का इंतजार करने का कोई मतलब नहीं था. हफ्ते भर बाद, 16 जून 2013 को नीतीश ने खुद को NDA से बाहर कर लिया. उन्होंने तत्कालीन गवर्नर डीवाइ पाटिल से कहा कि वे बीजेपी के सभी मंत्रियों को बर्खास्त करना चाहते हैं यानी उन्हें अब विपक्ष में बैठना होगा.

इसके लिए तीन दिन बाद, 19 जून को फ्लोर टेस्ट हुआ. सदन में बीजेपी के विधायकों ने नरेंद्र मोदी जिंदाबाद के नारे लगाए और वॉकआउट किया. वोट ऑफ़ कॉन्फिडेंस में नीतीश के पास 118 विधायक थे. इसके अलावा कांग्रेस के 4, CPI के 1, और 4 निर्दलीय विधायक नीतीश के साथ आए. बहुमत का आंकड़ा 122 था. नीतीश इस दौरान सिर्फ मुसुकुराते रहे.

2013, और आगे

हालांकि आने वाले महीने बिहार के इस अपराजेय से मुख्यमंत्री के लिए अच्छे नहीं रहे. कुछ ही दिन बाद, जुलाई के महीने में बोधगया में हुए आतंकी हमले ने बिहार को हिला दिया. महाबोधि मंदिर में लगातार 10 ब्लास्ट हुए. हालांकि इनमें किसी की मौत की खबर नहीं आई. लेकिन इसी बीच जमुई, गया और औरंगाबाद में नक्सलियों के हमलों में 25 सुरक्षाकर्मियों की जान गई.

इस बात को 10 दिन भी नहीं हुए थे कि छपरा के पास, सारण जिले के धर्मासती गंडामन गांव में जहरीला मिडडे मील खाने से 23 बच्चों की मौत हो गई, जिसने बिहार के शिक्षा और चिकित्सा, दोनों तंत्रों पर सवाल खड़े किए. ऐसे मौकों पर बीजेपी को विपक्ष में पाना नीतीश के लिए नया था.

मोदी, जिन्हें अब तक बीजेपी ने नीतीश के वास्ते बिहार से दूर रखा था, ने इसी साल राज्य का दो बार दौरा किया और मुख्यमंत्री पर "अवसरवादी" राजनीति करने के आरोप लगाए. इसी बीच 27 अक्टूबर को मोदी की 'हुंकार रैली' में सिलसिलेवार बम धमाके हुए. इसमें सात आम लोगों और एक आतंकवादी की मौत हुई. धमाकों के बाद मोदी 2 नवंबर को पीड़ितों से मिलने के लिए फिर से राज्य लौटे.

मोदी के बिहार दौरों के नतीजे 2014 के लोकसभा चुनावों में साफ़ दिखे. मोदी के चेहरे पर बीजेपी ने कुल 282 सीटें जीतकर इतिहास रचा. वहीं बिहार में नीतीश के बाहर होने के बाद NDA (BJP+LJP+RSLP) ने कुल 40 में से 31 सीटें जीतीं. अकेले दम पर लड़ रही जदयू 2 सीटों पर सिमट गई. हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए नीतीश ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दिया.

ये इस्तीफ़ा कुछ नए समीकरण लेकर आया. नीतीश ने मुख्यमंत्री की कुर्सी अपने मंत्री जीतन राम मांझी को दी. मुसहर दलित समुदाय से आने वाले मांझी को बाहर से RJD का सपोर्ट मिला. 2015 के महागठबंधन, जिसमें एक-दूसरे के कभी दोस्त रहे दुश्मन, लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार एक होने वाले थे, की पटकथा की शुरुआत हो रही थी.

लेकिन यूं ही नहीं नीतीश को मास्टर ऑफ़ यूटर्न कहा जाता है. 2017 में वे NDA में वापस आते हैं, 2022 में अलग हो जाते हैं. 2024 में वे फिर NDA में वापस आते हैं. हर बार एक अलग कहानी के साथ.

1996 में नीतीश ने पहली बार बीजेपी से दोस्ती की थी. जब वे जॉर्ज फ़र्नाडिज़ के साथ समता पार्टी बना चुके थे और लालू प्रसाद की RJD के खिलाफ खुद को स्थापित कर रहे थे. पहली बार इस रिश्ते में दरार, नरेंद्र मोदी की एंट्री के बाद 2013 में ही आई. तब से लेकर आज तक, मोदी और नीतीश कुमार की लव-हेट रिलेशनशिप का, या यूं कहें कि खालिस पॉलिटिकल और अवसरवादी रिश्ते का गवाह ये वक़्त रहा है.

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