scorecardresearch

चिराग पासवान बिहार चुनाव में इतनी ताकत क्यों लगा रहे हैं?

लोकसभा में जोरदार जनादेश मिलने के बावजूद लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के पास बिहार में एक भी विधायक नहीं है. इसके एकमात्र प्रतिनिधि राज कुमार सिंह अप्रैल 2021 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की JDU में शामिल हो गए थे

चिराग पासवान (फाइल फोटो)
चिराग पासवान (फाइल फोटो)
अपडेटेड 7 जुलाई , 2025

बिहार की राजनीति में चिराग पासवान का प्रदर्शन अब तक ऐसा रहा है, जैसे कोई अधूरी तस्वीर या स्केच, जो पूरी तरह से तैयार कैनवास बनते-बनते रह गया हो.

2014 लोकसभा चुनाव में चिराग पासवान की पार्टी को छह लोकसभा सीटों पर जीत मिली. 2019 में फिर से उन्होंने इस कारनामे को दोहराया. 2024 में NDA गठबंधन से उन्हें पांच सीटें मिली और वे सभी सीटें जीतने में कामयाब रहे.

चिराग पासवान की यह जीत नई दिल्ली में भले ही चमकदार लगती हो, लेकिन जिस बिहार की जमीन पर असली ताकत गढ़ी जाती है वहां यह जीत खोखली लग रही थी.  

लोकसभा में जोरदार जनादेश मिलने के बावजूद लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के पास बिहार में एक भी विधायक नहीं है. इसके एकमात्र प्रतिनिधि राज कुमार सिंह अप्रैल 2021 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की JDU में शामिल हो गए.

2020 में चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी ( (LJP) ने स्वतंत्र रूप से बिहार विधानसभा की 135 सीटों पर चुनाव लड़ा.110 सीटों पर पार्टी की जमानत जब्त हुई और केवल 5.66 फीसद मतों के साथ पार्टी को सिर्फ एक सीट पर जीत मिली. इसके कुछ समय बाद ही जून 2021 में LJP दो हिस्सों में बंट गई. पार्टी के एक गुट के नेता चिराग पासवान बने, जबकि दूसरे गुट के नेता उनके चाचा पशुपति पारस बने.

2015 में भाजपा की गठबंधन सहयोगी के रूप में पार्टी ने 42 सीटों पर चुनाव लड़ा, लेकिन 4.83 फीसद मतों के साथ उसे केवल दो सीटें हासिल हुईं. 2010 में राष्ट्रीय जनता दल के साथ गठबंधन में लोक जनशक्ति पार्टी ने बिहार विधानसभा की 75 सीटों पर चुनाव लड़ा और केवल तीन सीटों पर जीत दर्ज की थी. पार्टी ने इस चुनाव में 6.74 फीसद मत हासिल किए थे.

अक्टूबर 2005 में जब नीतीश कुमार पहली बार बिहार के प्रमुख नेता के रूप में उभरे, तब भी लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) ने 203 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे. इस चुनाव में LJP ने महज 10 सीटें जीती और 141 पर उसकी जमानत जब्त हो गई. हालांकि, 6 महीने पहले फरवरी 2005 में हुए इस विधानसभा चुनाव में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था.

इसी कारण फरवरी 2005 की त्रिशंकु विधानसभा भंग होने के बाद बिहार में दोबारा विधानसभा चुनाव कराए गए. फरवरी 2005 के विधानसभा चुनाव में लोक जनशक्ति पार्टी का प्रदर्शन थोड़ा बेहतर था. पार्टी ने 178 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ा और 12.62 फीसद मतों के साथ 29 सीटों पर जीत दर्ज की थी.
 
भले ही LJP का बिहार विधानसभा चुनाव में रिकॉर्ड कुछ खास नहीं रहा हो, लेकिन इसके बावजूद रामविलास पासवान वीपी सिंह से लेकर नरेंद्र मोदी तक छह प्रधानमंत्रियों के आठ केंद्रीय मंत्रिमंडलों में शामिल रहे.

उनके इस राजनीतिक कौशल की भले ही केंद्रीय स्तर पर तारीफ की गई हो, लेकिन उनका ये केंद्रीय प्रभाव पटना के सत्ता के गलियारों में कभी भी मजबूती से पैर जमाने में सफल नहीं हो सका.

इसी विरोधाभास को चिराग अब सुधारने की कोशिश कर रहे हैं. वे अपने पिता की राजनीतिक विरासत को एक मजबूत क्षेत्रीय ताकत में बदलना चाहते हैं. चिराग चाहते हैं कि उनकी पार्टी का प्रभाव केवल संसदीय चुनाव में जीत से तय नहीं हो, बल्कि वे बिहार विधानसभा चुनाव में भी उसी तर्ज पर ही जीत हासिल करना चाहते हैं.  

भले ही पासवान परिवार दिल्ली की राजनीति में बेहद प्रभावशाली हो, लेकिन बिहार विधानमंडल में उनकी अनुपस्थिति ने उन्हें पटना की राजनीति में मूकदर्शक बना दिया है. ऐसा हो भी क्यों न! भारत के संघीय ढांचे में विधानसभा सीटें ही सत्ता की असली ताकत हैं.

अगर चिराग कुछ सीटें जीतने में कामयाब रहते हैं तो उन विधायकों का समूह लोक जनशक्ति पार्टी (राम विलास) को गठबंधन की बातचीत में मजबूत सौदेबाजी की ताकत दे सकता है. अपने विधायकों के दम पर वे गठबंधन में होने के नाते सिर्फ समर्थन में तालियां बजाने के अलावा राज्य में सरकार बनाने में भी अहम भूमिका निभा सकते हैं.

यही वह संभावना है जो अब चिराग को बिहार की राजनीति के लिए प्रेरित कर रही है. वे  अपनी पार्टी को लोकसभा में उभरने वाली ताकत से एक अनिवार्य क्षेत्रीय शक्ति में बदलना चाहते हैं. इसी वजह से 2025 के विधानसभा चुनाव में वे पूरी ताकत से मैदान में उतरना चाहते हैं.

चिराग की अपील का केंद्र उनका नारा ‘बिहारी फर्स्ट’ है. यह नारा उनके पिता की बातों की याद दिलाता है, लेकिन उन्हें इस बात को और प्रभावशाली व तेजी से लोगों तक ले जाने की जरूरत है. हालांकि, केंद्रीय मंत्रियों को भी मुख्यमंत्री के बराबर प्रोटोकॉल रैंक मिलता है. इसके बावजूद वे अक्सर बिहार की जमीनी हकीकत से दूर नजर आते हैं. ठीक टेनिस खेल के उस कप्तान की तरह जो खुद नहीं खेलता है.

केंद्रीय मंत्री के कहने पर भले ही दिल्ली के अस्पतालों में बेड की व्यवस्था या किसी स्कूल में दाखिला आसानी से हो जाए, लेकिन वे अपने ही राज्य में मुख्यमंत्री के अधिकारों और ताकत के सामने शक्तिहीन व फीके नजर आते हैं.

इसके उलट अगर उनकी पार्टी के कुछ विधायक चुनाव जीतने में सफल होते हैं तो उनकी ताकत पर वह राज्य सरकार की मशीनरी को कार्रवाई के लिए बाध्य कर सकते हैं. अपने दल के निर्वाचित प्रतिनिधियों के जरिए पार्टी के नेता प्रशासनिक अधिकारियों को भी जवाबदेह बना सकता है, जिससे लोगों के बीच नेता का प्रभाव बढ़ता है.  

इस बात की काफी संभावना है कि बिहार विधानसभा चुनाव में NDA गठबंधन में चिराग को 30 से ज्यादा सीटें नहीं मिलेगी. यही वजह है कि सीट बंटवारे की बात से विचलित हुए बिना चिराग ने सावधानीपूर्वक एक नई रणनीति बनाई है.

चिराग की टीम ने मोबाइल सर्वेक्षणों और ब्लॉक-दर-ब्लॉक सर्वे के जरिए लगभग 20 ऐसी सीटों की पहचान की है, जो मजबूत समर्थन के साथ वास्तव में जीती जा सकती हैं. इन सभी विधानसभा में स्थानीय कैडर को मजबूत किया गया है.

यहां कार्यालयों की स्थापना की जा रही है और अनुभवी नेताओं को पार्टी से जोड़ा जा रहा है. अगर चिराग खुद बिहार विधानसभा चुनाव लड़ते हैं, तो यह एक स्पष्ट संकेत देगा कि उनकी पार्टी बिहार में राजनीति का केंद्र बनने की आकांक्षा रखती है, न कि BJP या JDU का सिर्फ सहयोगी बने रहना चाहती है.

हालांकि, यह मुकाबला आसान नहीं होने वाला है. नीतीश के नेतृत्व में JDU एक मजबूत पार्टी बनी हुई है. भाजपा भी दलित वोटों में सेंध लगाने की कोशिश करेगी. ऐसे में चिराग कैसे गठबंधन में जगह बना पाएंगे, यह देखने की बात होगी. इसके अलावा, बिहार में कागजों पर बनाए गए गठबंधन अक्सर स्थानीय प्रतिद्वंद्विता के दबाव में टूट जाते हैं.

इन सबके बीच चिराग को इस चुनाव में खुद को रामविलास की दलित विरासत के उत्तराधिकारी के रूप में पेश करना होगा. साथ ही गैर-यादव ओबीसी और उच्च जाति के मतदाताओं तक भी उन्हें पहुंच बनानी होगी.

चिराग ने घोषणा की है कि उनकी प्राथमिकताएं बिहार में हैं और राज्य के लोगों की मांग पर वे प्रदेश की राजनीति में लौटना चाहते हैं. यह अलग बात है कि उन्होंने केंद्रीय मंत्री पद भी नहीं छोड़ा है.

अगर उन्होंने दिल्ली में केंद्रीय मंत्री की कुर्सी को त्यागकर खुद को बिहार की राजनीति में पूरी तरह लगा दिया होता तो उन्हें तुरंत मुख्यमंत्री पद का दावेदार माना जाता. लेकिन, केंद्र में मंत्री रहते हुए उन्होंने बिहार की राजनीति में एंट्री की है.

मुख्यमंत्री पद के लिए नीतीश का समर्थन करते हुए बिहार विधानसभा चुनाव लड़ने की अपनी मंशा जाहिर करके चिराग ने एक कुशल राजनेता की छवि बनाई है. यह बिहार के लोगों के बीच पहुंच बढ़ाने के लिए उनकी उत्सुकता को भी दिखाता है. इन सबके साथ वह अपने पद को भी खोना नहीं चाहते.

चिराग को पता है कि उनका भविष्य तभी उज्ज्वल होगा जब उनकी पार्टी एक मजबूत क्षेत्रीय पार्टी बनकर उभरेगी. लगातार तीन लोकसभा चुनावों से अनुभव लेने के बाद अब चिराग आगामी विधानसभा चुनाव के लिए तैयारी कर रहे हैं.

जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहा है, कुछ आंतरिक सर्वेक्षणों से पता चलता है कि चिराग का यह दांव उन्हें फायदा दे सकता है. विधायकों का एक मामूली समूह भी चिराग को किंगमेकर बना सकता है. दूसरे शब्दों में कहें तो शायद वह धुरी भी जिस पर बिहार की अगली सरकार टिकी हुई हो.

चिराग के लिए इस चुनाव में विरासत को बचाने का भी सवाल है. इस तरह 2025 का विधानसभा चुनाव वह कसौटी बन गया है, जिसमें चिराग पासवान और चिराग के 'बिहार फर्स्ट' विजन की परीक्षा होगी.

Advertisement
Advertisement