
भोजपुर जिले के रहने वाले कृष्णा चौधरी ने इस चुनाव में अपनी पसंद की पार्टी भाकपा (माले) और उसके उम्मीदवार सुदामा प्रसाद को वोट देने के साथ-साथ उनके 20-20 रुपये के 25 कूपन भी खरीदे.
दलित समुदाय से आने वाले कृष्णा विकास मित्र हैं, उनकी बहुत अधिक आमदनी नहीं है, मगर उन्होंने तय किया कि वे वोट के साथ-साथ चंदा भी देंगे. ऐसा करने वाले कृष्णा चौधरी अकेले नहीं हैं.
भोजपुर लोकसभा क्षेत्र में एक से सवा लाख वोटरों ने इस चुनाव में ऐसे कूपन खरीदे हैं, और इन कूपनों के जरिये भाकपा (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, मार्क्सवादी-लेनिनवादी) और सुदामा प्रसाद ने लगभग तीस लाख रुपये जुटाये हैं. इस तरह गरीबों की पार्टी कही जाने वाली भाकपा (माले) और उसके सामान्य पृष्ठभूमि के उम्मीदवार सुदामा प्रसाद ने इस चुनाव में लगभग 50 लाख रुपये खर्च किये और पूर्व केंद्रीय ऊर्जा मंत्री आरके सिंह के खिलाफ जीत दर्ज की.
माले वाले इस कूपन को जनता का इलेक्टोरल बांड कह रहे हैं. भाकपा (माले) के बिहार राज्य सचिव कुणाल कहते हैं, "वैसे तो हमारी पार्टी हमेशा से जनता के पैसों से ही चुनाव लड़ती रही है. हम न कॉरपोरेट का पैसा लेते हैं, न एनजीओ का, न सरकार का और न ही किसी ऐसे व्यक्ति का जिसके आय का साधन संदिग्ध हो. मगर इस बार इलेक्टोरल बांड के झमेले को देखते हुए हमने तय किया कि हम इसके काउंटर में एक जनता का इलेक्टोरल बांड लायेंगे."
वे आगे बताते हैं, "कॉरपोरेट का जो लूट का पैसा है, जो चुनाव को धनबल से प्रभावित करता है उसका मुकाबला हम आम लोगों की खून पसीने की कमाई से करेंगे. हमने यह किया और हमारा प्रयोग सफल रहा. इस बार हम तीन लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़े. इसके अलावा अगियांव विधानसभा में उप चुनाव हुआ. इन चार में से तीन सीटों पर हमारे कम पैसे वाले उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की. भोजपुर, काराकाट और अगियांव में. नालंदा में हमारी ताकत वैसी नहीं थी, फिर भी हमने मजबूत टक्कर दी."

भाकपा (माले) के नेताओं का मानना है कि 20 रुपये वाले कूपनों के जरिये उसने न सिर्फ धनबल का मुकाबला जनबल से किया बल्कि आम वोटरों को भी यह एहसास दिलाया कि चुनाव वे भी लड़ रहे हैं. यह चुनाव जनता का है. कुणाल बताते हैं, "जिन्होंने 20 रुपये का कूपन लिया उन्हें भी लगता था कि इस चुनाव में उनकी ताकत लगी है. अगर भोजपुर में सवा लाख परिवारों की संवेदना हमारे साथ थी तो चंदा देकर पहले दिन से वे हमारे समर्थक और वोटर हो गये थे. लोग पैसे देकर वोट खरीदते हैं, हमने चंदा लेकर वोटरों का समर्थन हासिल कर लिया."
भाकपा (माले) से मिली जानकारी के मुताबिक पार्टी ने ऐसे दस लाख कूपन छपवाये थे. इनके जरिये बिहार की तीन और झारखंड की एक लोकसभा सीट के लिए चंदा मांगा गया. ये कूपन दो तरह के थे. एक तो सामान्य कूपन था, जिसमें पार्टी का नाम और सिंबल भर था. यह कूपन राज्य का कोई भी आदमी खरीद सकता था.
दूसरा कूपन खास सीट और उम्मीदवार वाला था. इसमें लोकसभा क्षेत्र और उम्मीदवार का नाम, उम्मीदवार का फोटो होता था. इसे उसी लोकसभा क्षेत्र के मतदाताओं ने खरीदा था. बिहार और झारखंड की चार लोकसभा सीटों के लिए दो-दो लाख कूपन भेजे गये. बाकी दो लाख कूपन आम पार्टी समर्थकों के लिए थे. पार्टी का लक्ष्य हर लोकसभा सीट के लिए एक-एक करोड़ जुटाना था. हालांकि वह इतना पैसा नहीं जुटा पाई, मगर भोजपुर के लिए लगभग 50 लाख जुटे. नालंदा और काराकाट के लिए 35 से 40 लाख की रकम जुटाई जा सकी.
पार्टी ने कूपन बेचने की जिम्मेदारी अपने गांव स्तर के कार्यकर्ताओं को दी थी, जिन्हें वे शाखा कहते हैं. पार्टी की सिर्फ भोजपुर में 726 शाखाएं हैं. 15 ब्लॉक लेवल समितियां हैं और इसके अलावा 16 हजार कार्यकर्ता. इन सभी लोगों को कूपन बेचकर चंदा जुटाना था. इसके अलावा कार्यकर्ताओं को भी न्यूनतम सौ रुपये का सहयोग करना था.
कुणाल बताते हैं, "आजकल चुनाव काफी खर्चीले हो गये हैं. कॉरपोरेट मिजाज वाली पार्टियों ने चुनाव को ऐसा बदल दिया है कि अब कम पैसों में कोई चुनाव लड़ा ही नहीं जा सकता. प्रचार वाहनों का खर्च है, बूथ लेवल पर कार्यकर्ताओं के खाने-पीने का खर्च है. चुनाव कार्यालय भी अब एक लाख रुपये से कम के किराये में नहीं मिलते. सभाओं में टेंट, शामियाना, कुर्सी का खर्चा है. प्रचार सामग्रियों का खर्चा है."
वे आगे बताते हैं, "चुनाव आयोग ने एक लोकसभा सीट के लिए खर्च की सीमा 95 लाख तय की है. मगर हम अभी भी अधिकतम 50 लाख ही खर्च कर पा रहे हैं. यह भी हमारे जैसी पार्टी के लिए बहुत है. इतना भी हमने इन कूपनों के बल पर ही किया. हमें 60-70 फीसदी आमदनी इन कूपनों के सहारे ही हुई."
कूपनों के अलावा पार्टी ने क्राउड फंडिंग के जरिये पैसे जुटाने की कोशिश की. इसके लिए पार्टी ने उम्मीदवार और पार्टी कार्यालय का यूपीआई नंबर और बारकोड सोशल मीडिया पर सार्वजनिक किया. कुणाल कहते हैं, "इसके जरिये भी हमें सिर्फ भोजपुर के लिए सात लाख रुपये मिले. हमने कूपन के साथ-साथ रसीद की वैकल्पिक व्यवस्था भी रखी थी. जो लोग अधिक राशि देना चाहते थे उनके लिए. मगर उसकी भी अधिकतम सीमा दो हजार रुपये तक ही थी. दिलचस्प है कि इस बार चुनाव में हमें अपने समर्थकों के अलावा राजद और इंडिया गठबंधन की दूसरी पार्टियों के समर्थकों ने भी चंदा दिया."

लोग आपकी पार्टी को चंदा क्यों देते हैं? अगर आप इसे चुनावी फंडिंग का एक साफ-सुथरा विकल्प बता रहे हैं तो आखिर लोग किसी पार्टी को चंदा क्यों दें? इस सवाल के जवाब में कुणाल कहते हैं, "दरअसल हमारी पार्टी के उम्मीदवार पूरे पांच साल अपने मतदाताओं के साथ रहते हैं. उनका अपने वोटरों से एक दिन का रिश्ता नहीं है. वे उनके हर सुख-दुख में साथ रहते हैं. संकट में सहयोग करते हैं. उनकी लड़ाइयां लड़ते हैं. जिन लोगों ने यह देखा है, उन्हें हमें चंदा देने में जरा भी हिचक नहीं होती."
कृष्णा चौधरी भी कुणाल की बातों से इत्तेफाक रखते हैं. वे कहते हैं, "पार्टी ने हमारी जमीन के लिए लड़ाई लड़ी. इनसे ज्यादा अपना हमारा कौन होगा. इसलिए हम इन्हें चंदा देते हैं."
भाकपा माले के अलावा इस चुनाव में माकपा (मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी) ने भी कूपन के जरिये पैसे जुटाये. माकपा बिहार में खगड़िया सीट पर चुनाव लड़ रही थी. पार्टी के सचिव मंडल के सदस्य अरुण कुमार मिश्र कहते हैं, "कूपन के जरिये पैसे जुटाना हमारी परंपरा रही है. इस चुनाव में भी हमने कूपन बेचे और दूसरे उपायों से भी हमने 70-80 लाख रुपये जुटाए और चुनाव में खर्च किया." भाकपा ने भी इस चुनाव में 20 और 50 रुपये के कूपन बेचे और उससे ठीक-ठाक पैसे जुटाये. पार्टी बेगुसराय सीट पर चुनाव लड़ रही थी.
चुनाव लड़ने के इस चलन पर टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, पटना के पूर्व निदेशक पुष्पेंद्र कहते हैं, "चुनाव खर्च के लिए आमलोगों और गरीबों पर निर्भरता लेफ्ट पार्टियों की वैचारिक मजबूरी है. वे कॉरपोरेट और पूंजीपतियों से चंदा लेने के सख्त खिलाफ हैं इसलिए अपने समर्थकों से ही पैसा लेते हैं. हां, इस बार उन्होंने इसे एक औपचारिक स्वरूप दिया. कॉरपोरेट इलेक्टोरल बांड के बदले 20 रुपये के कूपन को जनता के बांड के रूप में पेश किया और यह प्रयोग सफल रहा. यह प्रयोग राजनीति में धनबल के प्रभाव को कम करने में एक मॉडल के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है."