scorecardresearch

क्या प्रशांत किशोर बदल सकते हैं बिहार की राजनीतिक तस्वीर?

प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि क्या मतदाताओं को जाति से परे और शासन और विकास पर आधारित भविष्य की ओर देखने के लिए राजी किया जा सकता है

प्रशांत किशोर
प्रशांत किशोर
अपडेटेड 9 अक्टूबर , 2024

बिहार का राजनीतिक परिदृश्य लंबे समय से एक अभेद्य किले जैसा रहा है, जिस पर क्षेत्रीय दलों और जटिल जातिगत गठबंधनों का दबदबा है. नए खिलाड़ियों के लिए इसे भेदना कभी आसान नहीं रहा. तीन दशक से ज्यादा वक्त बीत गया लेकिन आज भी यहां कांग्रेस-बीजेपी की बाइनरी स्थापित नहीं हो सकी है. दोनों ही राष्ट्रीय पार्टियां बिहार पर आरजेडी-जेडीयू जैसी पकड़ नहीं बना सकी हैं.

ऐसे में अगर कोई एक व्यक्ति है जो मानता है कि मतदाताओं की नब्ज पर उसकी उंगली है और वह इन स्थापित समीकरणों को ध्वस्त करने के लिए तैयार है, तो वह प्रशांत किशोर हैं. भारत के कुछ सबसे सफल चुनाव अभियानों के पीछे रणनीतिक दिमाग रहने वाले प्रशांत किशोर ने 2 अक्टूबर को बिहार में आधिकारिक तौर पर अपनी राजनीतिक पार्टी, जन सुराज की शुरुआत की.

गांधी जयंती का दिन चुनना कोई संयोग नहीं था, यह प्रशांत किशोर के पर्दे के पीछे के राजनीतिक रणनीतिकार से लेकर राजनीतिक दावेदार तक के प्रतीकात्मक परिवर्तन को बखूबी बयान करता है. पार्टी लॉन्च पर भीड़ को संबोधित करते हुए उन्होंने घोषणा की, "मैं यहां केवल चुनाव जीतने के लिए नहीं हूं. हम यहां वास्तविक परिवर्तन लाने के लिए हैं और उस परिवर्तन की शुरुआत लोगों से होगी."

47 वर्षीय प्रशांत किशोर के लिए यह अब तक की सबसे बड़ी चुनौती हो सकती है. नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार से लेकर केजरीवाल, ममता बनर्जी और अमरिंदर सिंह जैसे नेताओं के लिए चुनावी रणनीति तैयार करने वाले प्रशांत किशोर को अब बिहार में एक सलाहकार के रूप में नहीं बल्कि एक नेता के रूप में काम करना है. उनकी रणनीति बिहार की कठोर राजनीतिक यथास्थिति को पहचानने में निहित है.

पिछले 34 सालों से, जब से लालू प्रसाद यादव ने मार्च 1990 में पहली बार मुख्यमंत्री के रूप में पदभार संभाला है, राज्य की राजनीतिक कहानी पर दो दलों - राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) और जनता दल (यूनाइटेड) (जेडीयू) - और अनिवार्य रूप से दो नेताओं का वर्चस्व रहा है. जहां लालू और नीतीश ने राजनीतिक परिदृश्य पर राज किया तो राबड़ी देवी और जीतन राम मांझी जैसे लोग केवल उनके प्रतिनिधि के रूप में काम करते दिखे. इस बीच, राष्ट्रीय स्तर पर अन्य जगहों पर मजबूत पकड़ रखने वाली बीजेपी और कांग्रेस ने यहां दूसरे-तीसरे दर्जे की भूमिका निभाई है. उनका महत्व गठबंधन साझेदारी तक ही सीमित है.

प्रशांत इसी दो विकल्प वाले राजनीतिक इतिहास में एक रास्ता देखते हैं. बिहार की द्विध्रुवीय राजनीति में, जहां नीतीश बीजेपी के साथ और राजद कांग्रेस के साथ गठबंधन करती है, प्रशांत किशोर को मतदाताओं के ऊबने का अहसास होता है. बहुत लंबे समय से मतदाता बीजेपी के डर से लालू की पार्टी को चुनने या लालू के डर से नीतीश के बीजेपी गठबंधन का समर्थन करने के बीच एक चक्र में फंसे हुए हैं. प्रशांत इसी गतिशीलता को तोड़ना चाहते हैं, बिहार को एक विकल्प देना चाहते हैं - जो राज्य के दो दमघोंटू राजनीतिक विकल्पों से मुक्त हो.

लेकिन अगर उनकी पार्टी गांधी जयंती पर शुरू की गई तो यह प्रतीकात्मकता से भरी होगी, इसलिए उनकी आगे की यात्रा आसान नहीं होगी. बिहार की राजनीतिक निष्ठाएं बहुत गहराई से जुड़ी हुई हैं. नीतीश को संख्यात्मक रूप से महत्वपूर्ण अति पिछड़ी जातियों का समर्थन मिलता है तो तेजस्वी यादव और उनकी राजद को मुस्लिम समुदाय और प्रमुख यादव जाति की वफादारी हासिल है.

दिवंगत रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान बिहार के नए दलित चेहरे हैं. ऐसे राज्य में जहां जातिगत निष्ठाएं बहुत गहरी हैं, प्रशांत किशोर को सिर्फ़ आगे बढ़ने की जगह अपना समर्थन आधार बनाने के लिए बिल्कुल नया रास्ता अपनाना होगा.

इस पुराने राजनीतिक रणनीतिकार ने बिहार में शराबबंदी को खत्म करने के अपने आह्वान से भी लोगों में खलबली मचा दी है. उन्होंने अपनी हमेशा की तरह ही बेबाक शैली में तर्क दिया कि प्रतिबंध हटाने से राजस्व की बाढ़ आ सकती है, जिसे फिर शिक्षा और सार्वजनिक सेवाओं में बहुत जरूरी निवेश में लगाया जा सकता है.

राजनीतिक हस्तियों, खास तौर पर सत्ताधारी पार्टी के लोगों की ओर से तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है, जो इसे बिहार में शराबबंदी और इससे होने वाली सामाजिक बुराइयों को रोकने के प्रयासों का अपमान मानते हैं. हालांकि, सबसे तीखी प्रतिक्रिया महिलाओं के एक वर्ग में देखी जा रही है, जो शराबबंदी के सबसे मजबूत समर्थकों में से एक थीं. कई लोगों को डर है कि प्रतिबंध हटाने से शराब की वजह से होने वाली घरेलू हिंसा और सामाजिक पतन के दरवाजे खुल जाएंगे.  उनके लिए शराबबंदी का अंत केवल एक नीतिगत बदलाव नहीं है - यह बिहार की सबसे गहरी सामाजिक समस्याओं में से एक से निपटने में सालों की प्रगति को खत्म करने का खतरा है.

फिर भी, इन चुनौतियों के बीच एक अवसर छिपा है. भारत के सबसे गरीब राज्यों में से एक बिहार बेरोजगारी, खराब बुनियादी ढांचे और नाममात्र के फंड से चलने वाली शिक्षा प्रणाली से जूझ रहा है. प्रशांत ने अपने गृह राज्य पर ध्यान केंद्रित करने का फैसला जानबूझकर किया है. जन सुराज के संस्थापक लंबे समय से बिहार में ठहराव के मुखर आलोचक रहे हैं, जिसका श्रेय वे दशकों से चली आ रही जाति-आधारित राजनीति और शासन की निष्क्रियता को देते हैं. उनकी पार्टी की शुरुआत राज्य भर में 5,000 गांवों में पदयात्रा के बाद हुई है. यह प्रयास न केवल आधार बनाने के लिए बल्कि बिहार के आम लोगों को परेशान करने वाले मुद्दों की गहन समझ हासिल करने के लिए किया गया है. किशोर का कहना सीधा है कि बिहार को एक राजनीतिक विकल्प की जरूरत है, और जन सुराज वह विकल्प हो सकता है.

और यह कोई आम पार्टी लॉन्च नहीं है. दूसरे नए राजनीतिक चेहरे जो अक्सर करिश्मे या चुनावी वादों पर निर्भर रहते हैं, उनसे अलग प्रशांत ने जन सुराज को शासन-केंद्रित आंदोलन के रूप में स्थापित किया है. उनका मंच बिहार की सबसे अहम ज़रूरतों- शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य सेवा- को प्राथमिकता देता है, जिन्हें सत्ताधारी अभिजात वर्ग द्वारा लंबे समय से नज़रअंदाज़ किया जाता रहा है.

हालांकि, अपने प्रभावशाली ट्रैक रिकॉर्ड के बावजूद प्रशांत किशोर को महत्वपूर्ण बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है. बिहार के मतदाता अपनी जातिगत संबद्धताओं के प्रति बेहद वफादार हैं, और जन सुराज, एक नई पार्टी जिसका कोई जमीनी संगठनात्मक ढांचा नहीं है, को क्षेत्रीय दिग्गजों से मुकाबला करने के लिए रणनीति से कहीं ज़्यादा की ज़रूरत होगी. प्रशांत की अंतिम सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि क्या वे मतदाताओं को जाति से परे देखने और शासन और विकास पर आधारित भविष्य की ओर देखने के लिए राजी कर पाते हैं.

Advertisement
Advertisement