पश्चिम बंगाल में लगभग तीन साल के राजनीतिक गतिरोध और प्रशासनिक रुकावट के बाद एक बार फिर से मनरेगा योजना शुरू होगी. 18 जून को कलकत्ता हाई कोर्ट ने पश्चिम बंगाल में मनरेगा योजना को 1 अगस्त से दोबारा शुरू करने का आदेश दिया है.
केंद्र और राज्य सरकार के बीच लंबे समय से चले आ रहे विवाद के बीच यह फैसला प्रदेश के श्रमिकों के लिए काफी राहत पहुंचाने वाला है. इस योजना को लेकर राज्य सरकार पर भ्रष्टाचार, राजनीतिक पक्षपात और लाखों ग्रामीण श्रमिकों के अधिकारों से वंचित करने के आरोप लगे थे.
इन आरोपों के बाद ही नरेंद्र मोदी सरकार ने इस योजना के लिए राज्य को दी जाने वाली सारी फंडिंग रोक दी थी जिससे यह योजना बंद हो गई और लाखों ग्रामीण परिवारों की आजीविका प्रभावित हुई.
केंद्र ने फंड के दुरुपयोग का हवाला देकर अपने फैसले का बचाव किया. वहीं, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की अगुवाई वाली राज्य सरकार और लेफ्ट समेत कई विरोधी दलों ने केंद्र पर राज्यों के साथ राजनीतिक भेदभाव का आरोप लगाया.
अब इस मामले में कलकत्ता हाई कोर्ट का फैसला एक महत्वपूर्ण मोड़ हो सकता है. 18 जून को इस मामले पर सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश टी.एस. शिवगननम ने सख्त लेकिन संतुलित टिप्पणी की. उन्होंने कहा, “मैं शुरू से कह रहा हूं. 10 सेबों में से कुछ खराब हो सकते हैं, लेकिन बाकी अभी भी ताजा हैं.”
उन्होंने अतीत की समस्याओं को स्वीकार किया, लेकिन साथ ही कहा कि इसे एक कल्याणकारी योजना के रुकावट का बहाना नहीं माना जा सकता. उन्होंने कहा, “जो हुआ, वह बीत गया. लेकिन यह योजना लगभग तीन साल से बंद है. अब इसे फिर से शुरू करना होगा. केंद्र इसे अनिश्चित काल तक बंद नहीं रख सकता.”
उन्होंने यह भी निर्देश दिया कि जुलाई या अगस्त से योजना को फिर से शुरू करने की संभावना पर गंभीरता से विचार किया जाए. हाई कोर्ट ने फैसले में यह भी साफ किया कि केंद्र को भ्रष्टाचार रोकने के लिए निगरानी करने या शर्तें लगाने का अधिकार है, लेकिन वह इस तरह के अधिकारों का इस्तेमाल लाखों लोगों से जुड़े कल्याणकारी योजना को अनिश्चित काल तक रोकने के लिए नहीं कर सकता.
यह फैसला केंद्र सरकार की फंड रोकने की नीति को चुनौती देता है. खासकर तब जब गुजरात जैसे राज्यों में भ्रष्टाचार के आरोप लगने के बावजूद वहां ऐसी सख्त कार्रवाई नहीं हुई.
कलकत्ता हाई कोर्ट के फैसले के बाद तीखी प्रतिक्रिया देते हुए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने केंद्र सरकार की नीति की कड़ी आलोचना की. राज्य सचिवालय नबन्ना से मीडिया को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, “हम याचिका की समीक्षा करेंगे, लेकिन पहले केंद्र को फंड जारी करना होगा. चार साल से एक भी रुपया नहीं मिला. यह जनता का पैसा है.”
उन्होंने केंद्र पर बंगाल के ग्रामीण गरीबों को जानबूझकर नुकसान पहुंचाने का आरोप लगाया और बताया कि केंद्र के समर्थन के अभाव में राज्य सरकार को अपनी जेब से श्रमिकों के बकाया वेतन का भुगतान करना पड़ा.
2022 से राज्य सरकार ने अपनी ओर से मनरेगा के तहत 16,637.03 करोड़ रुपये वेतन के रूप में और 3,732 करोड़ रुपये बकाया वेतन के रूप में चुकाए. ममता ने इन खर्चों की भरपाई की मांग की है.
साथ ही सीएम ममता बनर्जी ने कहा, “जिस दिन से योजना रोकी गई, उस दिन से केंद्र को बकाया राशि की गणना कर भुगतान करना चाहिए. हमारा पैसा अन्य राज्यों में क्यों भेजा गया? यह अपराध है.”
मुख्यमंत्री बनर्जी ने राज्य की ‘कर्मश्री’ योजना का भी जिक्र किया, जिसे मनरेगा के विकल्प के रूप में शुरू किया गया था ताकि राज्य के फंड से रोजगार दिया जा सके.
कोर्ट में केंद्र सरकार ने कहा कि उसका इरादा श्रमिकों को किसी तरह से नुकसान पहुंचाने का नहीं है, लेकिन सभी श्रमिकों के सत्यापन की जरूरत है. साथ ही केंद्र ने यह भी सवाल किया कि काम वास्तव में हुआ है या नहीं, इसकी पुष्टि कौन करेगा? केंद्र ने यह भी मांग की कि राज्य द्वारा कथित रूप से दुरुपयोग किए गए फंड को वापस किया जाए और भविष्य में इस योजना को सही से चलाने और निगरानी के लिए एक केंद्रीय नोडल अधिकारी नियुक्त किया जाए.
कई कानूनी विश्लेषकों को अदालत में केंद्र सरकार का तर्क कमजोर लगा. इन कानूनी विश्लेषकों का कहना है कि अगर केंद्र निगरानी और ईमानदारी सुनिश्चित करने को लेकर गंभीर था, तो उसे ये उपाय सुझाने में लगभग तीन साल क्यों लगे? इस लंबी रुकावट के दौरान ग्रामीण गरीबों की आर्थिक मुश्किलों की जिम्मेदारी कौन लेगा?
राज्य सरकार ने तर्क दिया है कि किसी नोडल अधिकारी की जरूरत नहीं है, क्योंकि मनरेगा योजना पूरी तरह से केंद्रीकृत डिजिटल पोर्टल के जरिए चलाई जाती है. अगर कोई गड़बड़ियां होती है तो यहां तुरंत दिखाई देती हैं और उन्हें ठीक किया जा सकता है.
यह रुख कल्याणकारी योजनाओं में टेक्नोलॉजी की बढ़ती भूमिका को दिखाता है, लेकिन इससे राज्य सरकार पूरी तरह से दोषमुक्त नहीं हो जाता है. बंगाल में मनरेगा पर भ्रष्टाचार के आरोप बार-बार लगते रहे हैं. आलोचकों का कहना है कि राज्य सरकार ने इन गड़बड़ियों को रोकने के लिए समय पर और पर्याप्त कदम नहीं उठाए, जिसके कारण यह विवाद केंद्र और राज्य के बीच पूर्ण गतिरोध में बदल गया.
दोनों पक्षों की कमियों के बावजूद हाई कोर्ट का आदेश कई लोगों के लिए सकारात्मक कदम माना जा रहा है. यह पश्चिम बंगाल के गांवों में लाखों हाशिए पर जी रहे श्रमिकों और उनके परिवारों के लिए राहत का फैसला है.
इस मनरेगा फंडिंग पर विवाद का मूल कारण सिर्फ वित्तीय वितरण या प्रशासनिक निगरानी का मामला नहीं है. यह केंद्र और विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों के बीच बढ़ते तनाव का एक छोटा-सा नमूना है. यह दर्शाता है कि आज के भारत में कल्याण, जवाबदेही और राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता कैसे आपस में जुड़े हैं.
जब सरकारें संवैधानिक गारंटी को लागू करने में नाकाम रहती हैं, तो न्यायपालिका की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण हो जाती है. जैसे-जैसे अगस्त नजदीक आ रहा है बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि दोनों सरकारें हाई कोर्ट के आदेश को कैसे लागू करती हैं और साथ ही इस सामाजिक सुरक्षा योजना की गरिमा को कैसे बहाल करती हैं.
अकर्मय दत्ता मजूमदार