अक्टूबर की 3 तारीख को BJP ने झारखंड से राज्यसभा सांसद आदित्य साहू को नया कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त किया. वे सूड़ी जाति, यानी OBC वर्ग से आते हैं. आदिवासी मतदाताओं की ओर से लगातार दो विधानसभा चुनावों में दरकिनार किए जाने (पार्टी ST आरक्षित 28 सीटों पर 2019 के विधानसभा चुनाव में 26 और 2024 में 27 सीटों पर हारी थी) के बाद BJP को अब OBC मतदाता ही सहारा नजर आ रहे हैं. वजह भी वाजिब है, राज्य में OBC आबादी अनुमानित तौर पर 40-50 फीसदी के करीब माने जाती है. जबकि आदिवासी 26 फीसदी के लगभग.
झारखंड से 2022 से राज्यसभा सांसद रहे साहू के पास दशकों का संगठनात्मक अनुभव है. रांची ज़िले के ओरमांझी गांव के निवासी साहू ने 1988 में BJP से अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत की थी और कुछ ही वर्षों में पार्टी के मंडल अध्यक्ष बने. वे 2002 से 2003 तक पार्टी के रांची ग्रामीण इकाई के महासचिव भी रहे. साथ ही वे रांची के पूर्व सांसद रामटहल चौधरी के क़रीबी सहयोगी रहे और उनके कई संसदीय कार्यकालों के दौरान उनके सांसद प्रतिनिधि के रूप में काम किया. उन्होंने 2012–13 में BJP की राज्य कार्यकारिणी में प्रवेश किया, 2014 में प्रदेश उपाध्यक्ष बने और 2019 में पार्टी के प्रदेश महासचिव नियुक्त किए गए. यह भूमिका उन्हें 2023 में फिर सौंपी गई.
राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि BJP ने अपने एक लो प्रोफाइल नेता को यह अहम जिम्मेदारी दी है. हालांकि इससे BJP की राजनीति पर कोई फर्क नहीं पड़ने जा रहा है. BJP झारखंड के मुख्य चुनाव प्रबंधक और लेखक मृत्युंजय शर्मा कहते हैं, “संगठन के लिहाज से देखें तो लो प्रोफाइल वाली बात सही नहीं है. बूथ से कार्यकारी अध्यक्ष तक का सफर है उनका. आम कार्यकर्ता ऊपर तक पहुंच सकता है, यह बात फिर साबित हुई है. वफादार लोगों को पार्टी पुरस्कार देती रही है, सांगठनिक एकता के लिहाज से आम कार्यकर्ताओं में यह मैसेज पहुंचाना सबसे अहम है.’’
BJP झारखंड में OBC समुदाय को रिझाने की कोशिश में जुटी है, लेकिन हाल के वर्षों में इस मोर्चे पर उसे कुछ बिखराव देखने को मिला है. क्या आदित्य साहू इन हालात को बदल पाएंगे? राष्ट्रीय OBC मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष राजेश गुप्ता कहते हैं, “लगातार BJP के साथ रहने पर भी इस समाज को कुछ हासिल होने के बजाय नुकसान ही हुआ है. अर्जुन मुंडा सरकार के समय 25 जातियों को OBC से बाहर कर दिया गया. बाबूलाल मरांडी के समय आरक्षण 27 से घटाकर 14 फीसदी कर दिया गया. कांग्रेस-JMM सरकार तो हमें 27 फीसदी आरक्षण देने के लिए तैयार है, मामला केंद्र के पास है, लेकिन राज्य BJP इसे गंभीरता से नहीं ले रही है. आदित्य साहू अगर आरक्षण दिलाने में कुछ कर पाएंगे, तभी वे खुद को और पार्टी को लाभ पहुंचा पाएंगे.’’
OBC समाज के बड़े नेताओं में से एक, मूलवासी सदान मोर्चा के केंद्रीय अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद राज्य OBC आयोग के सदस्य भी रह चुके हैं. वे कहते हैं, “सदस्य रहने के दौरान साल 2022 में मैंने राज्य सरकार को एक रिपोर्ट सौंपी थी, जिसमें सिफारिश थी कि राज्य में OBC 55 फीसदी हैं. इसी हिसाब के इस समाज का आरक्षण तय होना चाहिए. BJP इस समुदाय की राजनीति तो करती है, लेकिन OBC के मुद्दों की नहीं. हमारा समाज आदित्य साहू से यही उम्मीद करेगा कि सदान लोगों की नाराजगी को वो दूर करें. साथ ही वे परिसीमन का मुद्दा भी उठाएं, ताकि OBC समाज को अधिक प्रतिनिधित्व मिलने का रास्ता साफ हो सके.’’
और कौन थे दावेदार
पार्टी में एक बड़े तबके को उम्मीद थी कि पूर्व मुख्यमंत्री रघुबर दास को प्रदेश अध्यक्ष बनाया जाएगा. कार्यकर्ताओं का मानना था कि अगर रघुबर दास को नेतृत्व मिलता तो पूरे प्रदेश में BJP दुबारा आक्रामक राजनीति कर पाती. फिलहाल स्थिति ये है कि नियुक्ति के बाद स्वागत की सामान्य रस्मों को छोड़ दें, तो पूरे प्रदेश में BJP के कार्यकर्ताओं में कोई उत्साह नहीं दिख रहा है. कार्यकर्ताओं का ये भी मानना है कि हेमंत से मुकाबला करने के लिए झारखंड BJP को एक फायरब्रांड नेता की जरूरत है.
आखिर रघुबर के ऊपर आदित्य को तवज्जो क्यों मिली, जबकि दोनों ही OBC वर्ग से आते हैं? यही नहीं, OBC वर्ग में पकड़ को पैमाना मानें तो यहां भी रघुबर ही बीस नजर आते हैं. जवाब है, आदित्य साहू मूलवासी यानी मूलतः झारखंडी हैं. वहीं रघुबर दास मूलतः छत्तीसगढ़ के रहने वाले हैं. अन्य राज्यों की तरह झारखंड में भी बाहरी और स्थानीय का मुद्दा हमेशा से हावी रहा है. प्रदेश अध्यक्ष पद की दौड़ में इन दोनों के अलावा राज्यसभा सांसद प्रदीप वर्मा, हजारीबाग के सांसद मनीष जायसवाल भी शामिल थे. प्रदीप वर्मा भी यूपी मूल के हैं.
दूसरी बात, पहले राज्यसभा सांसद दीपक प्रकाश को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाया गया. इसके बाद रविंद्र राय को कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाया गया. रघुबर के साथ ये दोनों भी BJP की वनांचल पॉलिटिक्स यानी राज्य गठन की लड़ाई के वक्त के नेता हैं. जबकि आदित्य को साल 2013 में पहली बार राज्य कार्यकारिणी में मौका मिला था. पार्टी ने यहां से नई पीढ़ी को आगे लाने का मैसेज दिया है. तीसरी बात, पार्टी में एक गुट हमेशा से ऐसा रहा है, जो ये मानता रहा कि राज्य BJP में बाहरी मूल के नेता हमेशा से हावी रहे हैं. मूलनिवासियों को हमेशा पिछलग्गू बनकर ही काम करना पड़ा है. अब प्रदेश अध्यक्ष, कार्यकारी अध्यक्ष, नेता प्रतिपक्ष सभी आदिवासी-मूलनिवासी हैं. बाहरी-भीतरी के नैरेटिव पर बैकफुट पर रहनेवाली BJP अब पहले के मुकाबले अधिक मजबूत नजर आ सकती है.
आदिवासी तो आशा लकड़ा भी हैं, उन्हें क्यों नहीं मौका मिला? एक समय काफी चर्चा में रही रांची की पूर्व मेयर आशा लकड़ा को इसके लिए योग्य माना जाता था, लेकिन पार्टी की अंदरूनी राजनीति की वजह से उन्हें वह मौका नहीं दिया गया. जबकि उनके पति की माओवादियों ने हत्या कर दी, इन परिस्थितियों से निकल कर वे दो बार रांची की मेयर रहीं. यही नहीं, वे संघ व उसके अनुषंगिक संगठनों की भी करीबी हैं. वे आदिवासी महिला हैं. हेमंत के मुकाबले अगर उन्हें खड़ा किया जाता तो JMM के लिए भी BJP को घेरना इतना आसान नहीं रहता. पहली बार BJP में महिला अध्यक्ष बनती. जबकि बीते विधानसभा में सबने देखा कि NDA ने हेमंत सोरेन को जमकर घेरा, लेकिन वे कभी भी उनकी पत्नी कल्पना सोरेन को निशाने पर नहीं ले सके.
इन सब फैक्टर के बावजूद उनके नाम पर विचार नहीं किया गया. इसकी एक वजह यह मानी जाती है कि आशा लकड़ा उरांव जनजाति से आती हैं. यह आदिवासी समुदाय BJP से करीब-करीब मुंह मोड़ चुका है. बीते विधानसभा चुनाव में उरांव बहुल लोहरदगा, मांडर, सिसई, गुमला, विशुनपुर, सिमडेगा, कोलेबिरा, खिजरी विधानसभा सीटों पर BJP को हार मिली है. जबकि इसी जनजाति से आने वाले समीर उरांव को पार्टी ने राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति मोर्चा का केंद्रीय अध्यक्ष तक बनाया. लेकिन वे अपने समुदाय के बीच पार्टी की पैठ नहीं बना सके. दूसरी बात कि नेता प्रतिपक्ष और प्रदेश अध्यक्ष दोनों में आदिवासी वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं रखा जा सकता था, ऐसे में किसी OBC को ही मौका मिलना था. आशा लकड़ा फिलहाल राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग में बतौर सदस्य सक्रिय हैं.
फिर यह बात भी आदित्य साहू के पक्ष में गई कि अक्सर समान राजनीतिक कद वाले नेताओं का एक साथ चलना मुश्किल होता है. केंद्रीय नेतृत्व यह नहीं चाहता था कि एक तरफ बाबूलाल और दूसरी तरफ रघुबर के होने की स्थिति में पार्टी को किसी असहज स्थिति का सामना करना पड़े. फिलहाल सब ठीक नजर आ रहा है. इन सब के बीच असल सवाल है प्रदेश अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष बाबूलाल मरांडी और आदित्य साहू, एक आदिवासी दूसरा मूलवासी, क्या दोनों मिलकर हेमंत सोरेन का मुकाबला कर पाएंगे? जवाब फिलहाल नेपथ्य में है.