चुनाव आयोग (EC) की तरफ से बिहार में चलाए गए विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) अभियान के दौरान मतदाता सूची में शामिल होने की अपनी पात्रता साबित करने के लिए नागरिकों के पास 11 दस्तावेजों में से कोई न कोई होना अनिवार्य था, जिसमें जन्म प्रमाणपत्र भी शामिल है. मतदाता सूची में नाम बनाए रखने के लिए लोगों को सत्यापन संबंधी बेहद कड़े मानदंडों का पालन करना था. लेकिन मतदाताओं के नाम हटाने के मामले में शायद कोई मानदंड नहीं अपनाया गया.
चुनाव आयोग के अभियान को जमीनी स्तर पर अंजाम देने वाले सिपाही यानी बूथ स्तरीय अधिकारी (BLO) किसी मतदाता को मृत घोषित करने से पहले मृत्यु प्रमाणपत्र मांगने को बाध्य नहीं थे. मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने 17 अगस्त को खुद इस बात को माना कि जिन लोगों मृत, एक से ज्यादा बूथों में सूचीबद्ध या प्रवासी के तौर पर चिह्नित किया गया, उनके ‘सत्यापन’ का आधार BLO और सियासी दलों की तरफ से नियुक्त किए जाने वाले बूथ स्तरीय एजेंट (BLA) थे.
यह स्वीकारोक्ति चुनाव आयोग के असमान मानदंडों को उजागर करने के लिए काफी है. सूची में शामिल करने के लिए तो सख्त मानक बनाए गए लेकिन नाम काटने के लिए सिर्फ इधर-उधर से पूछताछ को आधार बनाया गया, कोई दस्तावेजी सत्यापन नहीं किया गया.
SIR के दौरान बीस लाख से ज्यादा नामों को ‘मृतक’ मानकर हटा दिया गया. लेकिन ये स्पष्ट नहीं है कि क्या इनमें किसी भी नाम के मामले में मृत्यु की औपचारिक पुष्टि की गई या नहीं. इस विषमता ने हाल ही में उस समय हर किसी का ध्यान आकृष्ट किया जब नई दिल्ली में कांग्रेस नेता राहुल गांधी बिहार के सात ऐसे निवासियों के साथ बैठे नजर आए जो मसौदा सूची के मुताबिक अब जीवित नहीं हैं. राहुल गांधी ने टिप्पणी की कि यह पहली बार है जब उन्होंने ‘मृतकों के साथ’ चाय पी.
ये विचित्र तस्वीर सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं रही है, बिहार की मतदाता सूची के मसौदे में कुछ जीवित लोगों को जहां मृत करार दे दिया गया है. वहीं वास्तव में मर चुके कई लोगों का नाम अभी भी इसमें जुड़ा हुआ है. हो सकता है कि इन नागरिकों का भूत आगामी विधानसभा चुनावों और उसके बाद भी मतदान केंद्रों पर धैर्यपूर्वक कतार में खड़े होकर वोट देने में सक्षम हो.
चुनाव आयोग ने पिछले महीने जब बिहार के 7.23 करोड़ मतदाताओं की मसौदा सूची जारी की और उनके गणना प्रपत्रों को पूरी शान के साथ डिजिटली अपलोड किया गया, तब शायद किसी के पास भी इस साधारण से सवाल का कोई जवाब नहीं था कि हटाए गए नामों का सत्यापन कैसे किया गया?
करीब 7,00,000 नाम डुप्लिकेट बताकर हटा दिए गए, ये तो एक ऐसा दावा है जिसकी जांच रिकॉर्ड के जरिये की जा सकती है. लेकिन 22 लाख मतदाताओं को ‘मृत’ और 35 लाख को ‘प्रवासी’ घोषित करने में आखिर क्या सत्यापन प्रक्रिया अपनाई गई? व्यावहारिक तरीकों की बात करें तो इसके लिए BLO ने सामान्यत: सुनी-सुनाई बातों पर भरोसा किया, और दस्तावेजों के बजाय मतदाताओं के पड़ोसियों या संबंधित गांव की ही राय को काफी मान लिया.
असंतुलन साफ नजर आता है. नाम जुड़वाने के इच्छुक नागरिकों से जन्म प्रमाणपत्र, राशन कार्ड, स्कूल रिकॉर्ड जैसे साक्ष्यों की एक लंबी-चौड़ी फेहरिस्त मांगी गई. लेकिन नाम हटाने के लिए पड़ोसी की राय लेना भर काफी था. मौत हो जाने का अनुमान लगा सकते हैं, दूसरी जगह जाकर बस जाने का भी अनुमान लगा सकते हैं. लेकिन समयसीमा के दबाव में क्या अधिकारियों ने सिर्फ अपने विवेकाधिकार को ही सत्यापित साक्ष्य मान लिया?
सुप्रीम कोर्ट का हालिया आदेश, जिसमें चुनाव आयोग को मसौदा सूची से हटाए गए सभी 65 लाख मतदाताओं के नाम प्रकाशित करने का निर्देश दिया गया, केवल पारदर्शिता सुनिश्चितता करने का उपाय भर नहीं है. बल्कि ये कामकाज के तरीके को लेकर चुनाव आयोग को कड़ी फटकार है. इसके बाद अधिकारियों ने सूची अपलोड भी कर दी है.
अदालत ने कहा है कि चुनाव आयोग की तरफ से ठुकराए जा चुके आधार को सत्यापन दस्तावेजों में शामिल किया जा सकता है. इससे आधार मसौदा सूची में शामिल 12वां दस्तावेज बन जाएगा और 11 अन्य के अभाव में इसका इस्तेमाल किया जा सकता है. जिन नागरिकों को गलत तरीके से 'मृत' या 'प्रवासी' घोषित किया गया है, वे फॉर्म 6 भर सकते हैं और अधिकारियों से रसीद मांग सकते हैं, जो खुद जांच के घेरे में होंगे.
बहरहाल, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि चुनाव आयोग बिहार में विफल रहा है. ये नाकामी केवल तकनीकी नहीं, बल्कि परिस्थितिजन्य भी थी. SIR को घोषणा जून में की गई, जिसकी समयसीमा 25 जुलाई तक रखी गई. और, दावे और आपत्तियां देने के लिए 1 सितंबर की तिथि निर्धारित की गई है.
मानसूनी बारिश के कारण पहले से ही बेहाल गांवों में अधिकारियों को कुछ ही हफ्तों के भीतर लाखों रिकॉर्ड सत्यापित करने की जिम्मेदारी सौंप दी गई. यह कार्य बेहद कठिन था, और इतनी सीमित समयसीमा के लिहाज से तो लगभग असंभव ही कहा जा सकता है. ऐसे में त्रुटियां होना स्वाभाविक ही है. चुनाव आयोग को इन परिस्थितियों के बारे में पता होना चाहिए था. फिर भी, अगर संशोधन जरूरी था- शायद मतदाता सूचियों में हमेशा बनी रहने वाली त्रुटियों के लिहाज से ऐसा जरूरी था भी- तो कुछ महीनों पहले चुनाव के कारण राजनीतिक सरगर्मी बढ़ने से पूर्व ही ऐसा किया जा सकता था.
इसके बजाय, बिहार में बेहद कड़े मानदंडों के साथ एकदम हड़बड़ी में इस प्रक्रिया को अपनाया गया. नागरिकों को यह साबित करने के लिए कड़े मानकों पर खरा उतरने पर बाध्य किया गया कि वे जीवित हैं. लेकिन उन्हें मृत घोषित करने में आधिकारिक सत्यापन जैसी कोई जरूरत नहीं समझी गई. नतीजा, एक ऐसी सूची के तौर पर सामने है जो न तो नियम-कायदों की कसौटी पर खरी उतरती है और न ही इसे ऐसे तैयार करने का कोई औचित्य ही समझ आता है.
बिहार को लंबे समय से भारतीय राजनीति की प्रयोगशाला माना जाता रहा है. अब एक बार फिर परीक्षा की घड़ी आ गई है. यदि चुनाव आयोग यहां नाकाम साबित होता है तो ये कल्पना की जा सकती है कि देश के उन हिस्सों का क्या हाल होगा जो सियासी तौर पर इतने ज्यादा सक्रिय नहीं हैं? दिल्ली में राहुल गांधी के ‘मृतकों’ के साथ चाय पीने को एक सियासी नाटक कह सकते हैं, लेकिन इसने एक विसंगति को ही उजागर किया है. ‘जीवित मृतकों’ के साथ चाय पीना, एक तरह से मतदाता सूचियों की संवेदनशीलता को सामने लाता है कि कैसे कागज का एक पन्ना लोकतंत्र और मताधिकार से वंचित होने के बीच एक रेखा की तरह है.
मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार का कहना है कि दावों और आपत्तियों के लिए अभी समय है. कोई भी मतदाता या पार्टी 1 सितंबर तक नाम हटाए जाने को चुनौती दे सकती है. फिर भी, एक साधारण-सा सवाल उठना लाजिमी है- क्या ये काम बेहतर तरीके से, कम हड़बड़ी में और ज्यादा सावधानी के साथ नहीं किया जा सकता था? जब तक अंतिम मतदाता सूची प्रकाशित नहीं हो जाती, बिहार में लोकतंत्र खतरे में ही रहेगा. इसकी वजह मृत घोषित लोग नहीं बल्कि लोगों के वोट के अधिकार के लिए काम करने वाली जीवित संस्थाएं हैं.