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बिहार में वोटर लिस्ट वेरिफिकेशन क्यों बन गया चुनावी मुद्दा?

बिहार में जैसे-जैसे विधानसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं, इस बात पर कड़ी नजर रखी जा रही है कि क्या चुनाव आयोग की यह कवायद लोकतांत्रिक अखंडता को मजबूत करेगी या इससे जनता का विश्वास खत्म होगा

सांकेतिक तस्वीर
सांकेतिक तस्वीर
अपडेटेड 1 जुलाई , 2025

विधानसभा चुनाव से पहले बिहार एक निर्णायक मोड़ पर खड़ा है. ऐसा इसलिए क्योंकि इसकी चुनावी मशीनरी 2003 के बाद पहली बार मतदाता सूची के वेरिफिकेशन की प्रक्रिया में जुटी है.

चुनाव आयोग ने इस वेरिफिकेशन के जरिए वोटिंग लिस्ट में सटीकता बढ़ाने का वादा किया है. लेकिन, वोटर लिस्ट वेरिफिकेशन के समय, दायरे और कमजोर समुदायों को मताधिकार से वंचित करने की क्षमता पर तीखी बहस छेड़ दी है.

जैसे-जैसे अक्टूबर-नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनाव का समय नजदीक आ रहा है, राज्य के मतदाता इस बात पर नजर रख रहे हैं कि क्या यह चुनाव लोकतांत्रिक अखंडता को मजबूत करेगा या लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जनता के विश्वास को खत्म करेगा.

बिहार में होने वाला वोटर लिस्ट वेरिफिकेशन क्या है?

चुनावी प्रक्रिया को पाक-साफ बनाए रखने के लिए चुनाव आयोग (EC) ने बिहार की मतदाता सूचियों का विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) शुरू कर दी है. 2003 के बाद पहली बार राज्य में इस तरह से मतदाता सूचियों का सत्यापन किया जा रहा है.

25 जून से 30 सितंबर तक राज्य में यह पुनरीक्षण अभियान चलाया जाएगा. इसके लिए प्रदेश के लगभग 3 करोड़ निवासियों को अपनी जन्म तिथि और जन्म स्थान का दस्तावेज प्रमाण जमा करना होगा. चुनाव आयोग का कहना है कि पहली जुलाई 1987 से पहले जन्मे वोटरों को जन्म तिथि व जन्म स्थल का दस्तावेज देना होगा.  

चुनाव आयोग डुप्लिकेट मतदाताओं का नाम वोटर लिस्ट से हटाने के लिए यह अभियान चला रही है. इसके अलावा वोटर लिस्ट में अगर किसी मतदाता के नाम, डेट ऑफ बर्थ, पता, पिता का नाम आदि गलत है तो उसे भी सही किया जाएगा.
लोगों के पलायन और शहरीकरण के कारण होने वाले जनसांख्यिकीय बदलावों को भी मतदाता सूची में शामिल करने का लक्ष्य रखा गया है. इसके जरिए यह सुनिश्चित करने की कोशिश हो रही है कि प्रत्येक वास्तविक मतदाता का वोटर लिस्ट में नाम हो और कोई भी अपात्र व्यक्ति सूची में शामिल नहीं रहे.

संविधान के अनुच्छेद 324 और जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 के तहत चुनाव आयोग को मतदाता सूची की अखंडता सुनिश्चित करने का अधिकार है और साथ ही यह उसकी जिम्मेदारी भी है.

चुनाव आयोग ने इससे पहले 1952-56, 1957, 1961, 1965, 1966, 1983-84, 1987-89, 1992, 1993, 1995, 2002, 2003 और 2004 में देश के विभिन्न क्षेत्रों में गहन संशोधन करने के लिए इन शक्तियों का प्रयोग किया है.

वेरिफिकेशन में कमसे-कम एक पहचान पत्र जरूरी

बिहार के 243 विधानसभा क्षेत्रों में 7.8 करोड़ मतदाता हैं. इनमें से लगभग 60 फीसद यानी 4.96 करोड़ मतदाता ऐसे हैं, जिन्होंने 1 जनवरी, 2003 के मतदाता सूची संशोधन के दौरान अपने नामों की पुष्टि की थी. इन मतदाताओं को केवल उस सूची का एक अंश प्रस्तुत करना होगा.

बाकी बचे करीब 2.94 करोड़ मतदाताओं को सरकार द्वारा जारी पहचान पत्र, पेंशन भुगतान आदेश, जन्म प्रमाण पत्र, पासपोर्ट, शैक्षिक प्रमाण पत्र, जाति या भूमि रिकॉर्ड जैसे स्वीकृत दस्तावेजों की विस्तृत सूची में से कम से कम एक डॉक्यूमेंट जमा करना होगा.

वेरिफिकेशन के समय को लेकर उठ रहे सवाल

चुनाव आयोग द्वारा बिहार में कराए जा रहे SIR के समय को लेकर सवाल उठ रहे हैं. कुछ लोगों का कहना है कि SIR का समय इससे अधिक राजनीतिक रूप से प्रभावित करने वाला नहीं हो सकता.

विधानसभा चुनाव से कुछ महीने पहले निर्धारित इस वेरिफिकेशन अभियान ने चुनावों पर इसके संभावित प्रभाव को लेकर तीखी बहस छेड़ दी है. इसके समर्थकों का तर्क है कि संशोधन में देरी हो रही है और राज्य की विकसित होती जनसांख्यिकी को प्रतिबिंबित करने के लिए यह आवश्यक है.

इसके समर्थन में वे तेजी से बढ़ते शहरी विकास और रोजगार के लिए बड़े पैमाने पर हो रहे पलायन की ओर इशारा करते हैं. अनुमान बताते हैं कि बिहार की 7 फीसद से अधिक आबादी वर्तमान में राज्य के बाहर काम करती है. ऐसे में इन समर्थकों का कहना है कि पुरानी मतदाता सूचियों से कुछ निर्वाचन क्षेत्रों में कम और कहीं अधिक प्रतिनिधित्व दोनों का जोखिम है.

वहीं, आलोचकों को चुनाव आयोग के इस प्रयास में एक छिपा हुआ मकसद नजर आता है. कांग्रेस और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जैसे क्षेत्रीय दिग्गजों सहित विपक्षी दलों ने इस प्रक्रिया की निंदा करते हुए इसे राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) के समान बताया है.

वे चेतावनी देते हैं कि चुनाव से कुछ महीने पहले जन्म और माता-पिता के बारे में व्यापक प्रमाण मांगना राज्य की सबसे कमजोर आबादी को मताधिकार से वंचित कर सकता है. बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने आरोप लगाया, "यह गरीबों और हाशिए पर पड़े लोगों को मताधिकार से वंचित करने का एक छिपा हुआ तरीका है."

डॉक्यूमेंट्स नहीं देने पर वोटर लिस्ट से कटेगा नाम

चुनाव आयोग के SIR दिशानिर्देशों के तहत मतदाताओं को दस्तावेजों के तौर पर सरकारी पहचान पत्र जमा करने होंगे. उदाहरण के लिए इन जरूरी डॉक्यूमेंट्स में केंद्र या राज्य सरकार के कर्मचारियों या सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (PSU) द्वारा जारी किए गए पहचान पत्र या पेंशन भुगतान आदेश हो सकते हैं. साथ ही स्थानीय निकायों, बैंकों, डाकघरों, जीवन बीमा निगम द्वारा 1 जुलाई, 1987 से पहले जारी किए गए पहचान प्रमाण पत्र भी हो सकते हैं.

नागरिक पंजीकरण अर्थात् सक्षम अधिकारियों से जन्म प्रमाण पत्र और वैध पासपोर्ट, मान्यता प्राप्त बोर्डों और विश्वविद्यालयों से मैट्रिकुलेशन या अन्य शैक्षणिक प्रमाण पत्र भी स्वीकार किए जाएंगे.

राज्य अधिकारियों द्वारा प्रदान किए गए स्थायी निवास प्रमाण पत्र आपके स्थाई पता के रूप में काम करते हैं, जबकि सरकारी एजेंसियों से वन अधिकार प्रमाण पत्र और भूमि या आवास आवंटन दस्तावेज वन और भूमि रिकॉर्ड को कवर करते हैं.

सक्षम प्राधिकारी द्वारा जारी सामाजिक श्रेणी प्रमाण पत्र (SC/ST/OBC) के अलावा NRC में शामिल नाम (जहां लागू हो) और राज्य या स्थानीय प्रशासन द्वारा बनाए गए परिवार रजिस्टर स्वीकृत प्रमाणों की सूची को पूरा करते हैं.

इसके अतिरिक्त 1 जुलाई 1987 से पहले जन्मे लोगों को अपनी जन्म तिथि या जन्म स्थान साबित करना होगा. 1 जुलाई 1987 और 2 दिसंबर 2004 के बीच जन्मे लोगों को एक माता-पिता के लिए समान प्रमाण प्रस्तुत करना होगा और 2 दिसंबर 2004 के बाद जन्मे लोगों को दोनों माता-पिता के लिए दस्तावेज प्रस्तुत करने होंगे. समय सीमा तक संबंधित डॉक्यूमेंट्स नहीं जमा करने पर मतदाता सूची से नाम हटाया जा सकता है.

किन्हें सबसे ज्यादा मताधिकार से वंचित होने का जोखिम

विवाद के मूल में यह डर है कि बिहार के मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा खास तौर पर ग्रामीण, आर्थिक रूप से वंचित और अल्पसंख्यक समुदायों के बीच आवश्यक कागजी कार्रवाई तक पहुंच की कमी हो सकती है.

दूरदराज के जिलों में, औपचारिक रिकॉर्ड रखने का काम ऐतिहासिक रूप से लापरवाही भरा रहा है, जिसके कारण कई परिवारों के पास जन्म प्रमाण पत्र या अन्य आधिकारिक दस्तावेज नहीं हैं.

प्रवासी मजदूर, जो राज्य के कार्यबल का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. घर से दूर काम करते समय अपने माता-पिता के रिकॉर्ड पेश करने में असमर्थ हो सकते हैं.

विरोधियों का तर्क है कि भले ही अच्छे इरादे हों, लेकिन दस्तावेजों की मांग से जुड़ी SIR की सख्ती से मतदाताओं के मताधिकार से वंचित होने का खतरा है।

राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के नेता तेजस्वी यादव ने इस कमजोरी को और भी उजागर किया है, उन्होंने कहा कि चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित 11 दस्तावेजों में से केवल तीन ही उचित रूप से सामान्य हैं: जन्म प्रमाण पत्र, मैट्रिकुलेशन प्रमाण पत्र और जाति प्रमाण पत्र.

उन्होंने राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-3 (2005-06) के आंकड़ों का हवाला दिया, जिसमें पाया गया कि केवल 2.8 फीसद बच्चों के पास जन्म प्रमाण पत्र था, जिसका अर्थ है कि 1965 और 1985 के बीच पैदा हुए बच्चों को शायद ही कभी प्रमाण पत्र जारी किए गए हों.

NFHS-2 के अनुसार, आज के 40-60 वर्ष के लोगों में से केवल 10-13 फीसद ने माध्यमिक स्कूली शिक्षा पूरी की है. साफ है कि काफी कम लोग मैट्रिकुलेशन प्रमाणपत्र पेश कर सकते हैं. इसी तरह, भारत मानव विकास सर्वेक्षण (2011-12) से पता चला है कि केवल 20 फीसद हाशिए पर पड़ी जातियों और 25 फीसद ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) के पास जाति प्रमाणपत्र है, जबकि उच्च जातियों में यह अनुपात और भी कम है.

संक्षेप में कहें तो बिहार के अधिकांश लोगों के पास अपने या अपने माता-पिता के जन्म विवरण को प्रमाणित करने के लिए आवश्यक कागजात नहीं हैं, जिससे व्यापक रूप से मताधिकार से वंचित होने की आशंका बढ़ गई है. ऐसे राज्य में जहां साक्षरता और प्रशासनिक जागरूकता असमान है, वहां कई लोगों के लिए इस तरह के प्रमाण पत्र जमा करने का बोझ असहनीय साबित हो सकता है.

NRC से तुलना की क्या है असल वजह?

आलोचकों ने SIR और असम में NRC की कवायद के बीच सीधी समानताएं बताई हैं. ममता बनर्जी ने बिहार के SIR को “NRC का दूसरा नाम” बताते हुए इसकी कड़ी निंदा की और चुनाव आयोग पर नागरिकता-सत्यापन एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए चुनावी सटीकता की आड़ में इसका इस्तेमाल करने का आरोप लगाया.

चुनाव आयोग ने ऐसी तुलनाओं को सख्ती से खारिज किया है और जोर देकर कहा है कि SIR मतदाता सूचियों को नियंत्रित करने वाले संवैधानिक और वैधानिक प्रावधानों पर आधारित है. नागरिकता का मतदाता सूची के वेरिफिकेशन से कोई लेना-देना नहीं है.

हालांकि. इन सबके बावजूद चुनाव आयोग की ओर से दस्तावेज की पुनरीक्षण के समय और पैमाना को लेकर लोगों में संदेह है. साथ ही मतदाता सूची में अवैध आप्रवासी और डुप्लिकेट नामांकन को लेकर चुनाव आयोग द्वारा अस्पष्ट शब्दों में दिए गए तर्कों ने व्यापक संदेह को बढ़ावा दिया है.

बिहार में वोटर लिस्ट वेरिफिकेशन कैसे होगा?

प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र के निर्वाचन पंजीकरण अधिकारी (ईआरओ) को प्रत्येक वैध मतदाता को नामांकित करने तथा अयोग्य व्यक्तियों को सूची से बाहर करने की दोहरी जिम्मेदारी सौंपी गई है.  

जबकि विपक्षी दलों ने समयसीमा बढ़ाने और दस्तावेजों की बाधाओं को कम करने के लिए अदालतों का दरवाजा खटखटाने का वादा किया है.

कई नागरिक संगठनों ने पहचान से जुड़े कागजातों के जमा करने के बजाय सबूतों के तौर पर बायोमेट्रिक या वैकल्पिक पहचान की मांग कर रहा है. इस बीच, आयोग ने जोर देकर कहा कि SIR की प्रक्रियाएं पारदर्शी हैं और किसी भी मतदाता को अपील के अधिकार सहित उचित प्रक्रिया के बिना नहीं हटाया जाएगा.

इसमें कोई दो राय नहीं कि SIR का नतीजा सिर्फ चुनावी आंकड़ों को ही प्रभावित नहीं करेगा, बल्कि यह भारत के लोकतंत्र में जनता के विश्वास को आकार दे सकता है.

अगर निष्पक्ष और समावेशी तरीके से इस अभियान को किया जाए, तो यह प्रक्रिया भविष्य के चुनावों की वैधता को बढ़ा सकता है और मतदाता सूची में लोगों का विश्वास बहाल कर सकता है.

इसके ठीक उलट, बड़े पैमाने पर मताधिकार से वंचित होने की कोई भी धारणा सामाजिक विभाजन को गहरा कर सकती है, चुनाव आयोग में विश्वास को कम कर सकती है और 2025 के बिहार चुनावों को विवादास्पद बना सकती है.

बिहार 22 वर्षों में अपने सबसे महत्वपूर्ण चुनावी संशोधन के लिए तैयार है. राज्य के मतदाता जिनमें ग्रामीण मजदूर, शहरी पेशेवर, पहली बार राजनीति में प्रवेश करने वाली महिलाएं और धार्मिक अल्पसंख्यक शामिल हैं. सभी मिलकर इस प्रक्रिया की निष्पक्षता का आकलन करेंगे.

बिहार में होने वाला SIR देश भर में भविष्य के संशोधनों के लिए एक मॉडल के रूप में काम कर सकता है. इसके अलावा यह प्रशासनिक अतिक्रमण की कहानी भी बन सकता है.

यही वजह है कि बिहार का SIR एक साथ एक बहुत बड़ा प्रशासनिक उपक्रम और राजनीतिक मुद्दा है. लाखों मतदाताओं से व्यापक प्रमाण मांगकर, चुनाव आयोग मतदाता सूचियों को आधुनिक और स्वच्छ बनाना चाहता है.

चुनाव नजदीक आने के साथ इस अभियान की सटीकता और सहानुभूति के बीच संतुलन बनाने की चुनाव आयोग की क्षमता न केवल व्यक्तिगत मतदाताओं के भाग्य का निर्धारण करेगी, बल्कि बिहार के लोकतंत्र के मजबूती को भी निर्धारण करेगी.
 

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