
पटना के अदालतगंज में रहने वालीं सीमा किन्नर (बदला हुआ नाम) बिहार की जाति गणना को लेकर काफी परेशान हैं. वे कहती हैं, "जाति गणना वाले हम लोगों के पास भी आए थे और सबकी जाति किन्नर लिखकर चले गए. जबकि सबकी अलग-अलग जाति है. कोई बाभन-ठाकुर है तो कोई पासवान-दुसाध भी. आप सब लोग को एक जाति में कैसे रख सकते हैं. किन्नर तो हम लोगों का लिंग है, जाति थोड़े ही है."
बिहार में हाल में हुई जाति आधारित गणना को लेकर वैसे तो कई जातियां अलग-अलग तरह के सवाल पूछ रही हैं, मगर सबसे अलग स्थिति राज्य के किन्नरों की है. नियम के मुताबिक इन्हें थर्ड जेंडर माना जाना चाहिए और इन सबकी अलग-अलग जाति होनी चाहिए. मगर जाति के कॉलम में 22वें नंबर पर किन्नर/कोपी/हिजड़ा/ट्रांसजेंडर(थर्ड जेंडर) लिखा है. मतलब इन्हें भी राज्य की 209 जातियों में से एक माना गया है.
सबसे हैरत की बात यह है कि इनकी संख्या सिर्फ 825 बताई गई है. किन्नरों को अलग-अलग तरह के अधिकार दिलाने के लिए संघर्षरत सामाजिक कार्यकर्ता रेशमा प्रसाद कहती हैं, "यह आंकड़ा हमारे लिए भी हैरत की बात थी क्योंकि पिछली 2011 की जनगणना में हम किन्नरों की संख्या 40,987 थी. ऐसे में यह संख्या 12 साल में घटकर 825 कैसे रह गई. हालांकि बाद में राज्य सरकार के सूचना जनसंपर्क विभाग के सोशल मीडिया पेज पर इस गणना के लिंग आधारित आंकड़े दिए गए. जिसमें पुरुष और महिलाओं के अलावा अन्य की श्रेणी थी. इसमें अन्य की संख्या 82,836 थी. अन्य का मतलब हम लोग थर्ड जेंडर ही समझते हैं. इस लिहाज से हमारी आधिकारिक संख्या अब 82,836 है. मगर इसके बावजूद हमारे लिए यह हैरत की बात है कि हमें जाति गणना में एक जाति के रूप में क्यों रखा गया है."

रेशमा प्रसाद जो खुद थर्ड जेंडर समुदाय से आती हैं, ने शुरुआत से ही बिहार सरकार के इस फैसले का विरोध किया है. उन्होंने पटना हाईकोर्ट में इस मसले को लेकर एक याचिका भी दाखिल की थी. बाद में वे इसे सुप्रीम कोर्ट में भी लेकर गईं. इन सभी याचिकाओं को एक साथ क्लब कर दिया गया. रेशमा कहती हैं, "पटना हाईकोर्ट ने हमें कहा था कि इस शिकायत को लेकर आप बिहार सरकार के सामान्य प्रशासन विभाग को एक प्रतिवेदन दे दें. मैंने वहां प्रतिवेदन दे भी दिया. मगर इसके बावजूद जाति की सूची में 22वें नंबर पर अभी भी थर्ड जेंडर नजर आ रहा है. मतलब यह है कि बिहार सरकार ने हमारे प्रतिवेदन पर ध्यान नहीं दिया."
रेशमा कहती हैं, "यह ट्रांसजेंडर प्रोटेक्शन एक्ट, 2019 का उल्लंघन तो है ही, राज्य के किन्नरों के साथ अन्याय भी है क्योंकि किन्नर होना तो एक जेंडर है. हम सभी किन्नर थर्ड जेंडर में आते हैं. जैसे पुरुष और महिलाएं हैं, वैसे ही हम किन्नर भी हैं. मगर जाति गणना में सभी पुरुषों और महिलाओं की अलग-अलग जाति है, तो हम किन्नरों को एक जाति क्यों मान लिया गया है. हमारे बीच भी कोई जनरल है, कोई ओबीसी, कोई अति पिछड़ा है, कोई एससी-एसटी है. सबकी अलग-अलग जाति है. हमें अपनी जाति के हिसाब से सरकारी योजना का लाभ मिलना चाहिए था. मगर ऐसे तो हमें कोई लाभ नहीं मिलेगा."
रेशमा के मुताबिक दरअसल बिहार सरकार ने सभी किन्नरों को ओबीसी का दर्जा दे रखा है. वह उनकी अलग-अलग जाति की पहचान नहीं करना चाहती. किन्नरों को भी सामाजिक सुरक्षा योजना का लाभ मिलना चाहिए, मगर वह मिलता नहीं.

रेशमा कहती हैं, "2014 से ही हमें सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के लाभ दिए जाने की बात चल रही थी मगर अब तक हमें सिर्फ पुलिस विभाग में आरक्षण दिए जाने की घोषणा हुई है. कहा गया है कि हम पांच सौ पुलिस कर्मियों में एक किन्नर होगा. अभी हाल में जो दो भर्तियां निकली हैं, उनमें पुलिस में 56 और दारोगा में 5 पद किन्नरों के लिए आरक्षित किए गए हैं. मगर अभी भर्ती पूरी नहीं हुई है."
रेशमा के मुताबिक असली सवाल यह है कि बिहार सरकार किन्नरों और थर्ड जेंडर को अलग जेंडर तो मान रही है लेकिन उसे जाति की श्रेणी में नहीं रख रही. यह तकनीकी दिक्कत जब तक रहेगी तब तक इस तबके को दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा.
बिहार में जाति आधारित गणना का काम यहां का सामान्य प्रशासन विभाग करा रहा है. विभाग के प्रमुख सचिव डॉ. बी. राजेंद्र से जब इंडिया टुडे ने इस मामले पर सवाल किया तो उन्होंने कोई भी टिप्पणी करने से इनकार कर दिया.