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क्या ये बिहार में 'प्रधान जी' बनने का सबसे अच्छा दौर है?

ओटीटी के दौर में गांव फुलेरा के 'पंचायत' की कहानी ने जब देश का ध्यान खींचा, बिहार में ऐसे पंचायत ऑफिस बनने जा रहे हैं जहां प्रधान जी या, दूसरे शब्दों में कहें तो मुखिया जी अपनी तमाम शक्तियों के साथ बेहतर काम कर पाएंगे

नीतीश कुमार (Photo: PTI)
नीतीश कुमार (Photo: PTI)
अपडेटेड 15 जुलाई , 2025

मुखिया की SUV अब जल्दी ही एक भव्य बरामदे की नीचे रुकेगी; चंद पलों में वह वहां स्थित पोस्ट ऑफिस में चिट्ठी डाल सकते हैं, बगल की बैंक शाखा में जा सकते हैं, ग्रामीण अदालत में स्थानीय विवादों की सुनवाई कर सकते हैं, और फिर सहकारी दूध की दुकान में जाकर लस्सी का लुत्फ उठा सकते हैं या दूध की थैली घर ले जा सकते हैं.

दरअसल, यह सब व्यवस्था अब बिहार के पंचायत सरकार भवन (पीएसबी) में ही उपलब्ध होगा तथा उन्हें कहीं और जाने की दरकार नहीं होगी. ओटीटी के दौर में गांव फुलेरा के पंचायत की कहानी ने जब देश का ध्यान खींचा, बिहार एक ऐसा कार्यालय उपलब्ध कराने जा रहा है जहां प्रधान जी या, अधिक उपयुक्त शब्दों में कहें तो मुखिया जी अपनी असल शक्ति के अनुकूल कार्यस्थल का संचालन करेंगे.  

नया आगाज
इस स्वतंत्रता दिवस पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इन सुविधाओं से लैस कम से कम 1,000 पंचायत सरकार भवनों का उद्घाटन करेंगे. ये भवन न केवल मुखिया के अधिकार और अनुभव को बढ़ाएंगे बल्कि खासकर ग्रामीण बिहार में अपने कार्यों के लिए पंचायतों पर निर्भर लोगों के अनुभव को भी बढ़ाएंगे. 

नीतीश के विजन को पूरा करने का जिम्मा राज्य के भवन निर्माण विभाग (बीसीडी) के पास है जिसकी अगुआई इसके सचिव कुमार रवि कर रहे हैं. रवि आइआइटी-कानपुर के पूर्व छात्र और 2005 बैच के आइएएस अधिकारी हैं. कुल मिलाकार, 7,160 करोड़ रुपये की लागत से ऐसी 2,602 इमारतें बिहार के मैदानी और बाढ़ के खतरे वाले तराई इलाकों में बन रही हैं. ये दो मंजिला इमारतें बाढ़-रहित क्षेत्रों में 7,202 वर्ग फीट में बन रही हैं; वहीं उन इलाकों में कुल 9,528 वर्ग फीट जगह घेरेंगी जहां ये मानसून राहत केंद्रों के तौर पर काम कर सकती हैं.

इन चमचमाती इमारतों की भीतर ग्राम पंचायत सचिवालय विभिन्न गतिविधियों से गुलजार रहेगा. ग्राउंड फ्लोर पर गांव वाले जन्म प्रमाणपत्र और राशन कार्ड जारी करने वाले काउंटरों पर कतार में खड़े हो सकते हैं; पोस्ट ऑफिस के साथ-साथ वहां एक बैंक शाखा होगी जबकि सहकारी दूध केंद्र उस इलाके के फलते-फूलते डेयरी सेक्टर का साक्षी होगा. एक शांत कोने में समिति से युक्त अदालत—ग्राम कचहरी—होगा जहां मुखिया तराशे गए सागवान की छत के नीचे विवादों की सुनवाई करेगा.

उसके ऊपर, एक विशाल हॉल में समिति की बैठकें आयोजित की जाएंगी; समाधान की तलाश में आए नागरिकों को एक स्वागत कक्ष में सलाह दी जाएगी. पीछे की ओर आवश्यक कर्मचारियों के लिए सामान्य कक्ष होंगे और कल्याणकारी योजनाओं से जुड़े आवेदनों को तुरंत आगे बढ़ाने के लिए कंप्यूटराइज्ड डेस्क होंगे. और, जब नदियों में उफान आएगा तो ये भवन आसानी से आपात आश्रय में तब्दील हो जाएंगे. वहां खाद्य सामग्री भरी होगी और उन्हें परिवारों को महफूज रखने के लिए डिजाइन किया जाएगा जब तक कि पानी कम नहीं हो जाए.

अभियान का अगुआ

इस तरह की जटिल योजना के लिए केवल अच्छे इरादे का होना काफी नहीं; इसमें तकनीकी सावधानी और प्रशासनिक कुशलता की भी जरूरत होती है. ऐसे में कुमार रवि को मुख्यमंत्री की महत्वाकांक्षा को पूरा करने का जिम्मा सौंपा गया है. रवि ने अपनी इंजीनियरिंग की समझदारी और प्रशासनिक कौशल दोनों का इस्तेमाल करते हुए सुनिश्चित किया है कि कोई भी चीज निगरानी से छूट न जाए. मसलन, सीमेंट की हर बैच का संपीड़न शक्ति के लिए परीक्षण किया गया; लोहे की छड़ों की एकरूपता की जांच की गई. सिविल इंजीनियरिंग के विशषज्ञों के साथ सलाह करके तैयार किए मानकीकृत डिजाइन स्थानीय मृदा प्रोफाइल और बाढ़ प्रतिरोध के अनुसार अनुकूलित किए गए हैं.

आइआइटी-प्रशिक्षित इंजीनियर और अनुभवी आइएएस अधिकारी के तौर पर दोहरी पहचान और कुशलता के साथ रवि तकनीकी और प्रबंधकीय क्षेत्रों में समान सहजता के साथ काम करने में सक्षम हैं. उन्होंने व्यक्तिगत तौर पर एक मोबाइल ऐप की सुविधा के साथ एक विशेष डिजिल पोर्टल के निर्माण की देखरेख की है. उसके जरिये जिला इंजीनियर तस्वीरें, सामग्री परीक्षण प्रमाणपत्र और दैनिक प्रगति अपलोड करते हैं. साप्ताहिक समीक्षा बैठकों में वह जूनियर इंजीनियरों और अनुभवी अधीक्षकों दोनों से लक्ष्यों और वृद्धि को लेकर सवाल करते हैं, और विलंब या निर्धारित मानकों में किसी भी तरह की गड़बड़ी को तुरंत सुधारते हैं.

ताकतवर मुखिया

इमारतों और सुविधाओं से इतर, इन भवनों की सियासी गूंज भी गहरी है. ऐसे राज्य में जहां करीब 90 फीसद आबादी का जीवन ग्रामीण बस्तियों में रचा-बसा है, मुखिया का प्रभाव स्प्ष्ट और गहरा है. गांवों के ये प्रमुख दर्जनों परिवारों का समर्थन हासिल करते हैं, स्थानीय भावनाओं की अगुआई करते हैं, और सबसे अहम बात कि सरकार से मिलने वाले लाभों की निगरानी करते हैं.

नीतीश कुमार ने काफी पहले समझ लिया है कि मुखियाओं का समर्थन जीतना पूरे निर्वाचन क्षेत्रों को किसी के पाले में झुका सकता है. उनकी सरकार ने जून में मनरेगा के तहत ग्राम पंचायत परियोजनाओं के लिए स्वीकृत सीमा को दोगुना करते हुए 10 लाख रुपये कर दिया, जिससे गांव के मुखियाओं को अधिक वित्तीय स्वायत्ता मिली. उसके तुरंत बाद, मुखियाओं, सरपंचों और अन्य पंचायती राज पदाधिकारियों के भत्तों में 50 फीसद की बढ़ोत्तरी की गई और उसके साथ तय मासिक मानदेय के लिए सालाना 548 करोड़ रुपये का आवंटन भी प्रदान किया गया.

24 जून को, किसी भी निर्वाचित स्थानीय प्रतिनिधि के निधन पर उसके परिवार के लिए 5 लाख रुपये की विशेष सहायता राशि को मंजूरी दी गई.
इन कदमों से एक मजबूत वित्तीय और प्रशासनिक इकोसिस्टम का निर्माण होता है—एक तो निष्ठा और समर्थन हासिल होता है, उत्पादकता बढ़ती है और बेशक चुनावी नतीजों को तय करते हैं. बिहार के जातीय गठबंधनों और ग्रामीण निष्ठाओं के जटिल ताने-बाने में, मुखिया अकसर ग्रामीण वोटबैंक को अपने पाले में करने का मुख्य आधार होते हैं.

चुनावी मोर्चे के तौर पर बाढ़ इलाके

शासन और चुनावी गुणा-गणित का यह मिला-जुला रूप बिहार के बाढ़-प्रभावित जिलों में अधिक स्पष्ट है. यहां 9,528 वर्ग फीट में फैले पंचायत सरकार भवन मजबूत खंभों पर टिके हैं और जल-प्रतिरोधी छत से युक्त हैं. मानसून की बारिश बढ़ने के साथ ये भवन सबसे अहम राहत केंद्र बन जाते हैं और लोगों की जिंदगी की हिफाजत करते हैं तथा उन्हें आवश्यक चीजें प्रदान करते हैं. हर साल बाढ़ की मार झेलने वाले तबकों में सरकार की सहानुभूति का संदेश गहराई के साथ गूंजता है.

जमीनी सशक्तीकरण के हिमायती पंचायत सरकार भवनों को स्थानीय लोकतंत्र के लिए मील का पत्थर मान रहे हैं. बैंकिंग और पोस्ट ऑफिस से लेकर दूग्ध सहकारी केंद्र और ग्रामीण कचहरी तक—इन सुविधाओं को एक छत के नीचे लाकर, ये भवन प्रशासन को सरल बनाने, पारदर्शिता बढ़ाने और पंचायत कर्मचारियों की कामकाज के माहौल को सम्मानजनक बनाने का वादा करते हैं. जमीनी जिम्मेदारी के साथ डिजिटल निगरानी का संगम पंचायत राज की अवधारणा को पूरी तरह से बदल सकता है.

आधुनिक पंचायती राज

स्वतंत्रता दिवस पर इन पंचायत सरकार भवनों के दरवाजे खुलने के साथ ही, बिहार के गांवों में नए अध्याय का आगाज हो जाएगा. मुखिया अब अस्थायी बरामदा बैठकों तक सीमित नहीं रहेंगे और फटे-पुराने बही खातों की बजाय टैबलेट का इस्तेमाल करते हुए आधुनिक चैंबरों से संचालन करेंगे. शानदार कार्यालयों, बढ़े हुए भत्तों और ज्यादा मंजूरी अधिकारों के साथ, मुखिया असल स्थानीय शक्ति का प्रतीक बन गए हैं.

आगामी महीनों में, स्वच्छता अभियानों और शैक्षणिक शिविरों से लेकर आपदा राहत और डिजिटल सेवाओं के कार्यान्वयन तक, वे शायद सबकुछ की निगरानी करेंगे. अधिक अहम बात यह कि वे असरदार तरीके के अपने चुनावी प्रभाव को संगठित करेंगे और पूरे इलाके की उम्मीदों—और वोटों की भी—की अगुआई करेंगे.

बिहार के बदलते चुनावी परिदृश्य में, मुखिया लाभार्थी और अगुआ दोनों के रूप में उभरे हैं. चाहे कोई इन भवनों की पहल को विकेंद्रीकृत शासन की कामयाबी माने या फिर एक चतुर चुनावी रणनीति, इसके प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता. कभी मामूली भूमिका वाले मुखिया के लिए, अब एक सचिवालय, बढ़ते संसाधन और अधिक स्वतंत्र प्रशासनिक विवेक की सुविधा एक नए युग की शुरुआत कर रही है. वाकई, बिहार में मुखिया बनने का इससे बेहतर वक्त शायद ही कभी रहा हो.

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