scorecardresearch

गया में पिंडदान की परंपरा तोड़कर नई लीक पर चलने वाली कामिनी कौन हैं?

पितृपक्ष में लाखों लोग पितरों के तर्पण के लिए पिंडदान करते हैं लेकिन इसकी विधि पंडा-पुरोहित ही कराते हैं. नालंदा की कामिनी इस परंपरा को तोड़कर इन दिनों चर्चा में हैं

अपनी मां (बाएं) के साथ कामिनी (दाहिने), अपने भाई का पिंड दान कराते हुए
अपनी मां (बाएं) के साथ कामिनी (दाहिने), अपने भाई का पिंड दान कराते हुए
अपडेटेड 11 अक्टूबर , 2023

“हां, मैंने अपने भाई का पिंडदान खुद करा लिया है. करना क्या था, बाजार में दस रुपए में गया श्राद्ध पद्धति की किताब मिलती है. वही खरीद लिया. मां को बिठाया और किताब में जो विधि बताई गई थी, वैसे ही करा लिया.” नालंदा जिले के राजगीर प्रखंड के बिच्छा कोल गांव की कामिनी बहुत सहज भाव से यह सब कह रही थीं. उन्हें इस बात का बिल्कुल अहसास नहीं था कि उन्होंने ऐसा करके गया में हर साल पितृपक्ष के दौरान होने वाले तर्पण के इतिहास में एक नई बात जोड़ दी है. उनके लिए यह बस अपनी समस्या से निकलने का रास्ता भर था.

कामिनी आगे बताती हैं, “एक हफ्ते पहले भी मैं अपनी मां के साथ गया गई थी. भाई के पिंडदान के लिए. सूरजकुंड में हमने एक पंडा से संपर्क किया था. हमारे पास पैसे अधिक नहीं थे, किसी तरह हमने उस पंडा को चार सौ रुपए दिए. मगर उसने ठीक से पिंडदान नहीं कराया. हम लोगों से कुछ नहीं कराया. थोड़े बहुत मंत्र खुद पढ़े और कह दिया कि हो गया. हम लोग संतुष्ट नहीं हुए. घर लौटे तो लगने लगा कि हम गया गए तो मगर भाई की आत्मा को तृप्त नहीं करा पाए. ऐसे में हमलोग फिर गया आए. छह अक्टूबर को. इस बार मैंने तय किया कि मैं खुद किताब पढ़कर मां से पिंडदान कराऊंगी. दसवीं तक मैंने संस्कृत पढ़ा है, इसलिए मेरे लिए यह काम कठिन नहीं था. हमने यही किया.”

कामिनी 24 साल की हैं. वे अपनी मां और दो साल की अपनी बेटी के साथ नवादा शहर में रहती हैं और बीएड की पढ़ाई कर रही हैं. वे अपने पति से अलग रहती है. कामनी बताती हैं, “मेरे पति और ससुराल के लोग अच्छे नहीं हैं. पिछले साल सितंबर में मेरा भाई पिंकू उनके यहां गया था. उन लोगों ने करंट लगाकर मेरे भाई की हत्या कर दी. तब से हमारा रिश्ता खराब है. मेरे भाई की असामयिक मृत्यु हो गई थी, इसलिए हम लोग गया में उसका पिंडदान कराना चाहते थे.”

हिंदू धर्म में अपने पितरों (पूर्वजों) का ऋण माना जाता है. इस ऋण से मुक्ति पाने और अपने पितरों की आत्मा को मुक्ति दिलाने के लिए हर साल लाखों लोग गया में फल्गू नदी के तट पर पिंडदान करने आते हैं. इस साल भी गया में इन दिनों पितृपक्ष मेला चल रहा है. 28 सितंबर से शुरू हुआ यह मेला 14 अक्टूबर तक चलेगा. अमूमन पिंडदान के लिए लोग ब्राह्मणों और पंडों की मदद लेते हैं. गया के एक जाने माने पंडा प्रमोद कुमार मेहरबार कहते हैं, “यहां पिंडदान कोई भी कर सकता है. मगर एक आचार्य (ब्राह्मण) का साक्षी होना जरूरी है. इसलिए लोग पंडों और ब्राह्मणों की मदद लेते हैं. इसके बिना पिंडदान पूर्ण नहीं माना जाता.”

साक्षी के प्रसंग से जुड़ी एक कथा सीता की भी है. कहते हैं, वनवास के दौरान राम-लक्ष्मण और सीता राजा दशरथ का पिंडदान करने गया आए थे. सीता को फल्गू नदी के तट पर बिठाकर राम और लक्ष्मण पिंडदान की सामग्री लाने बाजार चले गए थे. इस बीच राजा दशरथ की आत्मा की प्यास बढ़ने लगी. उन्होंने सीता से कहा कि तुम ही मेरा तर्पण कर दो. तब सीता ने फल्गू नदी, एक गाय, केतकी फूल और एक वटवृक्ष को साक्षी मानकर राजा दशरथ को खुद जल का तर्पण कर दिया था. जब राम और लक्ष्मण लौट कर आए तो सीता ने उन्हें यह बात बताई. तब राम ने सीता से इस बात का साक्ष्य मांगा था. सीता ने इन चारों से साक्ष्य देने कहा तो पहले तीन मुकर गए, चौथे वटवृक्ष ने ही सिर्फ साक्ष्य दिया. इसके बाद सीता ने फल्गू नदी को अंतःसलीला होने का श्राप दे दिया कि जाओ, तुम सिर्फ नाम की ही नदी रहोगी, तुममें कभी पानी नहीं रहेगा.

प्रमोद कुमार मेहरबार कहते हैं, “अगर कामिनी ने साक्ष्य के तौर पर किसी ब्राह्मण को बिठाया है तो यह पिंडदान ठीक हुआ है, नहीं तो इसका फल नहीं मिलेगा. वैसे भी गया में यह परंपरा रही है कि जिसके पास कुछ भी पैसे न हो, उनका पिंडदान हम लोग अपने खर्च पर कराते हैं. मगर विधि का तो ध्यान रखना पड़ेगा.”

कामिनी कहती है, “मैं जब यह सब कर रही थी तो अचानक कई मीडिया वाले आ गए और मेरी फोटो लेने लगे. फिर एक पंडा ने आकर फिर से पिंडदान मुफ्त में कराया. कुछ लोग हमें पैसे देने लगे, जैसे हम भिखारी हैं. मैं गरीब हूं, भिखारी नहीं.”

कामिनी ने पटना के जीडी महिला कॉलेज से गणित विषय में स्नातक किया है. वे बीएड कर रही हैं और उनका इरादा शिक्षक बनने का है. वे बीएड सीटेट और बीपीएससी द्वारा आयोजित होने वाली शिक्षक भर्ती परीक्षा में शामिल होना चाहती हैं. वे अपनी मां और बेटी दोनों को सम्मानपूर्ण जीवन देना चाहती हैं.

हिंदी-मैथिली की मशहूर लेखिका उषाकिरण खान कामिनी की इस कदम को सही बताती हैं. “मैं इसका समर्थन करती हूं.” हिंदू धर्म की परंपरा को स्त्रियों की निगाह से देखने और इस विषय पर लेखन करने वाली दिल्ली विश्वविद्यालय की शिक्षिका सविता झा कहती हैं, “हर परंपरा में पुनर्पाठ की गुंजाइश होती है. कामिनी एक आस्तिक और सचेतन युवती है और एक तरह से वह पिंडदान की परंपरा को री-इवेंट कर रही हैं. उसको इसका पूरा हक है.”

सविता झा कहती हैं, “मेरे हिसाब से तर्पण और पिंडदान में न सामग्री का महत्व है, न पंडा-पुरोहित का. वहां महत्व सिर्फ श्रद्धा और जल का है. हम पितरों का स्मरण करते हैं और उनकी आत्मा की तृप्ति का प्रयास करते हैं.”

महावीर मंदिर न्याय के सचिव किशोर कुणाल भी कामिनी का समर्थन करते हैं. वे कहते हैं, “हम लोग रामावत संप्रदाय के मानने वाले हैं. पटना का महावीर मंदिर भी इसी संप्रदाय के विचारों से चलता है. हम मानते हैं कि कोई भी धार्मिक कार्य अगर आप खुद कर सकें तो यह सबसे अच्छा है. अगर आप नहीं कर सकते, तभी पुरोहित की मदद लें. ईश्वर और आपके बीच कोई दूसरा न आए, तभी अच्छा है. मैं खुद अपने सारे धार्मिक विधान अपने से करता हूं. मुझे सब करना आता है. इसलिए मुझे कामिनी का यह प्रयास अच्छा लगा.”

Advertisement
Advertisement