
15 अक्टूबर की शाम जब टिकट की सूची लेकर बिहार कांग्रेस के नेता दिल्ली से पटना उतरे तो वहां उनके कार्यकर्ताओं की भीड़ मौजूद थी. मगर वह भीड़ उनके स्वागत के लिए मौजूद नहीं थी, उसने अपने नेताओं पर टिकट बेचने का आरोप लगाया, शोर-शराबा किया और आपस में ही उलझ गए. जमकर मारपीट हुई.
एक दिन पहले ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के आवास के सामने चार बार विधायक रह चुके गोपाल मंडल धरने पर बैठे थे, वे उठाए नहीं उठ रहे थे, आखिर पुलिस की मदद लेनी पड़ी. वे टिकट लेने की जिद पर अड़े थे. ठीक उसी वक्त उनके ही गृह जिले के JDU सांसद अजय मंडल ने चिट्ठी लिखकर मुख्यमंत्री से इस्तीफा देने की अनुमति मांगी. उनकी शिकायत थी कि टिकट बंटवारे में उनकी राय नहीं ली जा रही.
भले गोपाल मंडल को धरने से उठा दिया गया मगर यह चलन इतना पॉपुलर हुआ कि खबर लिखे जाते वक्त एक RJD की नेता स्नेहा रानी तेजस्वी यादव के घर के सामने धरने पर बैठी बताई गई हैं. हंगामे राबड़ी देवी के आवास के सामने भी हो रहे हैं और BJP के दफ्तर पर भी. जिन उम्मीदवारों को पहले लालू टिकट दे चुके थे, उन्हें वापस लिया गया है.

इधर 15 अक्टूबर को राष्ट्रीय लोक मोर्चा के नेता उपेंद्र कुशवाहा पत्रकारों से कहते हैं, "दिस टाइम ऑल इज नॉट वेल इन NDA.” हालांकि फिर उन्हें अमित शाह से मिलने के लिए दिल्ली ले जाया जाता है और वे कई आश्वासन लेकर मुस्कुराते हुए लौटते हैं.
JDU के कार्यकारी अध्यक्ष संजय कुमार झा के बारे में खबर उड़ती है कि टिकट बंटवारे में लचीला रुख अपनाने और गठबंधन में JDU के हित की अनदेखी करने की शिकायत पर मुख्यमंत्री उन्हें डांट पिला चुके हैं. इसके बाद मीडिया में उनकी सफाई आती है, "सब ठीक है, सब मुख्यमंत्री के निर्देश से हो रहा है, सीटें लॉक हो चुकी है.” मगर इस बीच खबर यह भी आती है कि JDU ने चार ऐसी सीटों पर उम्मीदवार उतार दिए हैं, जो चिराग पासवान की पार्टी LJP (R) के खाते में गई मानी जा रही थी. इसमें अलौली जैसी सीट भी है, जो उनकी खानदानी सीट मानी जाती रही है.
उधर जीतनराम मांझी मीडिया में कहते हैं, "उनका (नीतीश) गुस्सा जायज है, उनकी सीटें किसी और (चिराग पासवान की पार्टी) को कैसे दी जा सकती हैं. हम भी बोधगया और मखदुमपुर से अपने उम्मीदवार उतारेंगे.” ऐसा सिर्फ मांझी ही नहीं कर रहे, दोनों गठबंधनों में कई सीटों पर फ्रेंडली फाइट की खबरें हैं.
नेता अपने कार्यकर्ताओं के नाम पर गठबंधन में दबाव बना रहे हैं और टिकटार्थी अपना क्षेत्र छोड़कर हफ्तों से पटना में डटे हैं. खबर लिखे जाने तक पहले चरण के नॉमिनेशन का दिन खत्म होने में सिर्फ एक दिन बचा है, मगर कुछ भी तय नहीं है. न गठबंधन, न उम्मीदवार. कुछ हफ्ते पहले तक साझा कार्यक्रम और रैली करने वाले दलों के बीच शिकायतें, रूठना, मनाना सब चल रहा है. BJP के केंद्रीय मंत्री नित्यानंद राय की तो सारी ऊर्जा रूठों को मानने में खर्च हो रही है. नई नवेली जन सुराज पार्टी ने कहा था कि दिसंबर 2024 तक 5 उम्मीदवारों की सूची तय करेंगे और चुनाव कौन लड़ेगा यह जनता तट करेगी. वहां भी अभी तक सूची फाइनल नहीं हुई है.
कुल मिलाकर चुनाव से ठीक पहले बिहार में सभी पार्टियों-गठबंधनों में अराजकता मची दिख रही है. राज्य के सबसे वरिष्ठ नेताओं में से एक शिवानंद तिवारी इंडिया टुडे से बातचीत में कहते हैं, "दोनों तरफ जिन पार्टियों के पास अभी एक भी विधायक नहीं है, वे भी खुलकर बार्गेनिंग कर रहे हैं. पुराने दौर में भी कुछ छल प्रपंच होता था, मगर ऐसा नहीं होता था."
मगर सवाल है कि ऐसी स्थिति क्यों आई? सबकुछ बेलगाम-सा क्यों है और इनके बीच जनता के असली मुद्दे कहां हैं? इस मसले पर टाटा सामाजिक संस्थान के पूर्व प्राध्यापक पुष्पेंद्र कहते हैं, "पहले गठबंधन में बड़ी पार्टियों और बड़े नेताओं का दबदबा होता था, जैसे BJP में मोदी और अमित शाह का और RJD में लालू का. वे जो तय कर देते थे, उनकी पार्टी में भी सर्वमान्य होता था और गठबंधन में भी, वह जो एक तरह की व्यक्तिवादी सत्ता थी, अब खत्म हो गई है. अब तो लालू जी की बात उनके बेटे भी नहीं मान रहे. इसी वजह से यह अफरा-तफरी नजर रही है."
वे आगे कहते हैं, "जहां तक टिकटार्थियों का मसला है, कांग्रेस के जमाने में ऐसा दिखता था कि लोग महीनों से पटना में डेरा डालकर पड़े रहते थे, अब हर पार्टी में ऐसा हो गया है. अब पार्टी भी बिदक रही है और कैंडिडेट भी बिदक रहे हैं, जनता तमाशा देखने की विवश है. सभी पार्टियां लोकलुभावनवाद का शिकार हैं, अनुशासन सिर्फ वामपंथी पार्टियों में दिख रहा है."
वहीं राजनेता एवं विचारक प्रेम कुमार मणि कहते हैं, "इसकी मूल वजह यह है कि बिहार में वामदलों को छोड़कर सभी पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र खत्म हो गया है. हर पार्टी में अब सुप्रीमो हैं. ये अंत-अंत तक एक भ्रम बनाकर रखते हैं, जिसमें कार्यकर्ता परेशान होता है और प्रदर्शन करता है. आज राजनीतिक दलों में सबसे कमजोर कार्यकर्ता है, उसकी कोई नहीं सुनता. वह सवाल उठाए तो इसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है. यही वह स्थिति है, जिसके कारण लोकतंत्र खतरे में हैं."
मणि इसके लिए दल-बदल कानून को जिम्मेदार मानते हैं. वे दलील देते हैं, "पहले हम लोगों को लगता था यह जरूरी कदम है, मगर तब भी मधु लिमए जी ने आशंका जाहिर की थी कि इससे पार्टियों में तानाशाही बढ़ेगी. अब समझ में आता है कि इस कानून की वजह से भी पार्टी में सुप्रीमो का कद बढ़ा है, दल का नेता तानाशाह बन जाता है. मैं खुद उसका शिकार हुआ हूं, सवाल उठाने पर मेरी विधान परिषद की सदस्यता खत्म हो गई. यह सौ साल के इतिहास में पहला उदाहरण था."
प्रेम कुमार मणि एक अहम बदलाव का जिक्र करते हुए कहते हैं, "अब सुप्रीमो प्रसाद की तरह टिकट बांटते नजर आते हैं. जबकि पार्टियों में एक पार्लियामेंट्री बोर्ड होता है, उसका कोई उपयोग ही नहीं रह गया है. यह बैठक करके हर काम के लिए सुप्रीमो को अधिकृत कर देते हैं. पहले कांग्रेस में टिकट तय करने दिल्ली से पर्यवेक्षक आते थे, वही सब तय करते थे, मगर इंदिरा गांधी के जमाने में सूची दिल्ली जाने लगी, अभी-भी जा रही है. ऐसा अब हर दल में हो रहा है. पहले तो जिले की कमिटियां उम्मीदवारों की सूची तैयार करती थीं, अब आवेदन लिए जाते हैं." इस बात को आगे बढ़ाते हुए पुष्पेंद्र कहते हैं, "आज गोटी सेट कर रिजल्ट दिलाने वालों को सभी पार्टियों ने महत्वपूर्ण जगह दी और उसे चाणक्य कहकर उसकी तारीफ की. वही सब तय कर रहे हैं. ऐसे में आंतरिक लोकतंत्र की स्थिति तो खराब होनी ही थी."
इस चुनाव को लेकर जिस तरह की राजनीतिक अगंभीरता पार्टियों ने पैदा की है, उसकी खबर मीडिया के जरिए पूरे देश को हो रही है. जाने माने मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार कहते हैं, "मौजूदा चुनाव को लेकर राष्ट्रीय मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए बिहार की जो खबरें पूरे देश में जा रही हैं, उसमें भी राजनीति के प्रहसन, गॉसिप और बयानबाजी की ही भरमार है. राज्य के नेता तो जानबूझकर ऐसे बयान दे रहे हैं और ऐसी हरकतें कर रहे हैं ताकि उनकी रील काटी जा सके, मतदाता भी अपनी समस्या सामने रखने के बदले राजनीतिक चालबाजियों, तयशुदा चेहरों को लेकर चल रही गॉसिप का ही जिक्र कर रहे हैं."
वे इस चुनाव में राज्य के असल मुद्दे हाशिये पर जाने पर चिंता जताते हुए कहते हैं, "बिहार भले ही एक राज्य है, लेकिन अलग-अलग क्षेत्र के मुद्दे, सवाल, समस्या और चुनौतियां अलग हैं. उनकी प्राथमिकता भी अलग-अलग हैं, जिस स्तर का इकहरापन हम तक पहुंच रहा है, उसमें राज्य की विविधता सामने नहीं आ पा रही. इस चुनाव को राष्ट्रीय चुनाव का रूप दे दिया गया है, जबकि इसमें बिहार के सवालों को प्रमुखता से सामने लाया जाना चाहिए था."