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बिहार चुनाव : हार-जीत से अलग ऐसा क्या है जो प्रशांत किशोर ने बदल दिया?

प्रशांत किशोर के लिए असली परीक्षा 2025 के नतीजे नहीं, बल्कि यह है कि उसके बाद वह क्या करना चुनते हैं. बिहार की राजनीति धैर्य को उतना ही पुरस्कृत करती है जितना प्रदर्शन को.

प्रशांत किशोर (फाइल फोटो)
प्रशांत किशोर (फाइल फोटो)
अपडेटेड 13 नवंबर , 2025

बिहार में विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार का सियासी शोर थमने और 11 नवंबर को दूसरे चरण का मतदान संपन्न होने के बाद अब 14 नवंबर को आने वाले नतीजों का इंतजार है. मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में सबसे बड़ा सवाल सिर्फ यही नहीं है कि राज्य में कौन राज करेगा, बल्कि ये भी है कि आने वाले समय में कौन कितनी मजबूती से टिका रहेगा.

इस चुनावी मुकाबले में कई चेहरे सुर्खियों में रहे लेकिन किसी और ने उतनी उत्सुकता नहीं जगाई, जितनी चर्चा प्रशांत किशोर को लेकर हुई. वे एक चुनावी रणनीतिकार से महत्वाकांक्षी नेता बनकर उभरे और पहली बार सियासी मैदान में किस्मत आजमाने उतरे.

नई-नवेली जनसुराज पार्टी के संस्थापक किशोर के लिए यह चुनाव तात्कालिक सफलता से ज्यादा बिहार में लंबे समय से खाली पड़ी एक जगह को भरने के लिए नैतिक और राजनीतिक दावा ठोकने से जुड़ा रहा है. वह जगह जो नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव की सियासत के बीच बचती है, वह जगह जो मुद्दा-आधारित राजनीति, नागरिक जवाबदेही और जाति व वंशवाद से मुक्त सियासी नेतृत्व के लिए उपजती है.

किशोर के 2025 में कुछ खास कर दिखाने की संभावना अनिश्चित है, या शायद बहुत कम है. फिर भी उनके मैदान आने के बाद बिहार के 243 में से 238 निर्वाचन क्षेत्रों (जहां उन्होंने उम्मीदवार उतारे) में राजनीतिक विमर्श में बदला नजर आया. जिन गांवों और कस्बों, धूल भरे बाजारों और स्कूल के मैदानों में वे पिछले तीन वर्षों से घूम रहे हैं, जन सुराज नाम एक जाना-पहचाना नाम बन चुका है, और यह अक्सर सम्मान का एहसास भी कराता है. अक्टूबर 2024 में औपचारिक रूप से स्थापित होने वाली पार्टी के लिए यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है.

सूझबूझ भरी राजनीति

पिछले तीन वर्षों में राज्य भर में घूमने के दौरान प्रशांत किशोर ने लोगों से सिर्फ वादे नहीं किए, बल्कि उनमें एक दृढ़ विश्वास भी जगाया. कभी दूसरों की जीत के सूत्रधार माने जाते रहे- नरेंद्र मोदी की 2014 की बढ़त से लेकर नीतीश कुमार की 2015 की वापसी तक-एक व्यक्ति का इस बार मैदान में उतरना राज्य की राजनीति में एक नया आयाम बना.

किशोर को एक बात सबसे खास बनाती है, और वह ये है कि लोग उनकी बातें किसी करिश्माई व्यक्तित्व के कारण नहीं, बल्कि इसलिए सुनते हैं क्योंकि वे समझदारी भरी होती हैं. ऐसे राज्य में जहां चुनावी बयानबाजी अक्सर पहचान या फिर विरोधियों को निशाना बनाने तक ही सीमित रहती है, किशोर की शब्दावली नई उम्मीदें जगाती है.

वे नौकरियों, स्कूल, स्वास्थ्य, प्रवास पर बात करते हैं, तमाम दबावों के कारण युवाओं के ‘पलायन’, और अपने राज्य निर्माण के लिए घर पर रहने की गरिमा की बात करते हैं. यादव बनाम कुर्मी, मंडल बनाम कमंडल, सरकार बनाम बदलाव—द्विपक्षीय राजनीति से प्रभावित राजनीतिक संस्कृति में इस तरह की बातें एकदम क्रांतिकारी लगती हैं और यह बदलाव स्वागत योग्य है.

पूरे राज्य में मतदाता भले अभी प्रशांत किशोर को एक मौका देने के इच्छुक न हों लेकिन उनका नाम लेते ही वे सहमति में सिर हिला देते हैं. सीवान से लेकर सहरसा तक चाय की दुकानों में “बात तो सही करता है” ही सुनाई देता है. सहमति अभी उन पर दांव लगाने में बदलती तो नहीं दिख रही लेकिन यह विश्वसनीयता की ओर पहला कदम जरूर है- और बिहार के उत्साही चुनावी बाजार में भरोसा कमाना ही सबसे कठिन काम है.

आंकड़े और नैरेटिव

2020 के चुनावी आंकड़ों पर गौर करे तो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) और महागठबंधन ने मिलकर बिहार के लगभग तीन-चौथाई वोट हासिल किए, और करीब 25 फीसद वोट बाकी—निर्दलीयों, छोटे दलों और संगठनों के खाते में आए. किशोर का मानना है कि यही बचा हुआ वोट ही उनके लिए कच्चे माल की तरह है. उनका तर्क सरल है: उस अस्थिर क्षेत्र का एक छोटा-सा हिस्सा भी एकजुट हो और आप जीत का गणित बदलना शुरू कर देंगे.

हालांकि, यह बात सैद्धांतिक स्तर की है और व्यावहारिक तौर पर इसे लागू करना आसान काम नहीं है. बिहार केवल निर्वाचन क्षेत्रों का नक्शा नहीं है बल्कि इतिहास, वंशवाद और अनकहे दायित्वों की गहरी जड़ों को समेटे हैं. जातिगत निष्ठाएं और स्थानीय संरक्षण अभी भी अधिकांश मतदान केंद्रों के चारों ओर अदृश्य बाड़ की तरह काम करते हैं. फिर भी प्रशांत किशोर ने अथक पदयात्रा, मतदाताओं के साथ सीधी बातचीत आदि तरीकों से जमीनी स्तर पर एक गहरी पहचान स्थापित की है. ऐसे राज्य में जहां नई पार्टियां आमतौर पर जल्द ही भुला दी जाती हैं, जन सुराज ने वह हासिल किया है जो बहुत कम लोग इतने कम समय में कर पाते हैं. यह राज्य में एक जाना-पहचाना नाम बन चुकी है.

यहीं से आधार रेखा बदलती है. मान्यता से पहले व्यवहारिकता जरूरी है. यह तथ्य कि लोग प्रशांत किशोर का पीला झंडा पहचान लेते हैं या सरकारी स्कूलों या बेरोजगारी को लेकर उनकी बातों से सहमति जताते हैं, यह संकेत देता है कि उनके नैरेटिव ने जनमानस में जगह बना ली है.

जड़ें जमाने में समय लगेगा?

प्रशांत किशोर को बिहार को निर्णायक तौर पर अपने पक्ष में मोड़ने में अभी लंबा समय लगेगा. राजनीतिक संस्कृतियों को गढ़ने में समय लगता ही है. तीन साल की जमीनी तैयारी, चाहे कितनी भी ईमानदार क्यों न हो, दशकों से बनी धारणाओं को बदल नहीं सकती. फिर भी, एक मामूली बढ़त—इधर-उधर छिटके वोटों का कुछ फीसद हिस्सा पाना भी बदलाव की नई कहानी गढ़ सकता है.

कांटे की इस टक्कर में एक दर्जन निर्वाचन क्षेत्रों में 5 से 8 फीसद का बदलाव भी यह तय करने में निर्णायक हो सकता है कि कौन जीतेगा और कौन विपक्षी बेंच में दिखेगा. यही वजह है कि दोनों ही गठबंधन—नीतीश कुमार की अगुवाई वाला एनडीए और RJD की अगुवाई में महागठबंधन- प्रशांत किशोर को लेकर खासे सजग नजर आते हैं. अंदरूनी सूत्रों के मुताबिक, BJP को शुरू में यही लग रहा था कि वह केवल सत्ता-विरोधी वोटों को विभाजित करेंगे और RJD को कमजोर करेंगे. लेकिन अक्टूबर अंत तक उसे यह चिंता सताने लगी कि शिक्षित, शहरी और उच्च जाति के मतदाताओं के बीच प्रशांत किशोर की बढ़ती लोकप्रियता BJP के जनाधार को भी चोट पहुंचा सकती है.

ऐसा प्रतीत होना कि प्रशांत किशोर एक गठबंधन को दूसरे से ज्यादा नुकसान पहुंचा सकते हैं, अपने आप में उनकी बढ़ती अहमियत का संकेत है. जब दोनों ही पक्षों को आपसे डर लग रहा है तब ये तो तय है कि आपनी सियासी ढांचे में अपनी थोड़ी जगह सुनिश्चित कर ली है.

अधिकार के बजाय प्रयासों पर केंद्रित अभियान

बिहार में प्रशांत किशोर की मेहनत पर शायद ही किसी को कोई संदेह हो. दो वर्षों के दौरान वे उन जिलों से गुजरे हैं जहां बहुत कम राजनेता बिना सुरक्षा तामझाम के जाते हैं—गोपालगंज, सारण, बांका, अररिया. उनकी रैलियों भले ही भारी भीड़ के बीच तेजस्वी यादव जैसी हुंकार या BJP के संसाधनों के मुकाबले कहीं न ठहरती हों, लेकिन मोटरसाइकिलों पर सवार युवाओं के समूह, झंडे लहराते और स्मार्टफोन पर उनके भाषणों की रिकॉर्डिंग करते नज़र आते रहे हैं.

रोजाना लाखों व्यूज के साथ उनकी पार्टी ने अच्छी खासी डिजिटल मौजूदगी दर्ज कराई, जो ऑनलाइन ऊर्जा बढ़ाने के साथ आपकी बढ़ती ताकत का आभास कराती है. फिर भी किशोर जानते हैं कि सोशल मीडिया की सहानुभूति को बूथ स्तर पर ताकत में बदलना कितनी जरूरी है. और यहीं पर जन सुराज पार्टी कमजोर नजर आती है. बिहार की राजनीति अभी भी जमीनी स्तर के नेटवर्क के ढांचे पर टिकी है: स्थानीय बिचौलिये, वार्ड कार्यकर्ता, गांव के बुज़ुर्ग जो जानते हैं कि पिछले साल किसे राशन कार्ड मिला. प्रशांत किशोर का आंदोलन, अपनी पूरी गंभीरता के बावजूद अभी सिर्फ अपनी पैठ मजबूत करता ही नजर आ रहा है.

अभी लंबा रास्ता तय करना होगा

नागरिकता (संशोधन) अधिनियम को लेकर 2020 में नीतीश कुमार के साथ उनका मतभेद एक निर्णायक मोड़ रहा. कभी उनके राजनीतिक गुरू रहे नीतीश ने इस अलगाव से पहले उन्हें जनता दल (यूनाइटेड) का उत्तराधिकारी तक घोषित कर दिया था. प्रशांत किशोर का उनसे अलग होने का फैसला और सिद्धांत व विश्वसनीयता पर जोर देना उन्हें एक ऐसी नैतिक बढ़त देता है जिसका दावा कम ही बिहारी राजनेता कर सकते हैं. अवसरवादी गठबंधनों और बार-बार दोहराए गए वादों से थके राज्य में इस तरह की ईमानदारी पर टिकना आने वाले समय में उनकी सबसे बड़ी ताकत बन सकता है.

किशोर के लिए असली परीक्षा 2025 के नतीजे नहीं हैं, बल्कि ये है कि उसके बाद वह क्या करना चुनते हैं. बिहार की राजनीति धैर्य को उतना ही पुरस्कृत करती है जितना प्रदर्शन को. अगर वे राज्य में जमे रहते हैं, अपने कार्यकर्ताओं को गढ़ते हैं और आम मतदाताओं से जुड़ाव बनाए रखते हैं तो अगले पांच साल निर्णायक साबित हो सकते हैं. 2030 तक, प्रशांत किशोर बिहार की सत्ता के सबसे बड़े दावेदारों में से एक बनकर उभर सकते हैं- न सिर्फ एक बदलाव लाने वाले के तौर पर बल्कि शासन के लिए तैयार एक विश्वसनीय विकल्प के तौर पर भी.

एक नई पटकथा लिखने की शुरुआत

प्रशांत किशोर का प्रयोग एक स्थायी राजनीतिक ताकत के तौर पर परिपक्व होगा या नहीं, यह देखना अभी बाकी है. हो सकता है, इस बार वह ज्यादा सीटें न जीत पाएं, शायद इतनी भी नहीं कि सरकार में औपचारिक भूमिका का दावा कर सकें. फिर भी, कड़े मुकाबलों में उनका प्रभाव निर्णायक हो सकता है, और उनकी उपस्थिति निर्विवाद है. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने बिहार को पहले ही याद दिला दिया है कि राजनीतिक भूमिका हमेशा विरासत में नहीं मिलती—इसे जमीनी स्तर पर कड़ी मेहनत से भी हासिल किया जा सकता है.

तीन साल किसी राज्य को बदलने के लिए बहुत कम समय है, लेकिन एक विचार को रोपने के लिए काफी है. 2025 का चुनाव किशोर को ताज तो नहीं पहनाएगा लेकिन ये उनके आगमन की पटकथा की शुरुआत तो कर ही सकता है. एक लंबे खेल की शुरुआत, जिसमें केवल सत्ता हासिल करना ही जरूरी नहीं बल्कि बिहार में राजनीति का अर्थ बदलना भी काफी मायने रखता है.

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