
“हमलोग काफी खुश हैं. हमारा संघर्ष पूरा हुआ. आखिरकार वैशाली की धरोहर वापस वैशाली आ गई. भले इसमें वक्त लगा. हमने लड़ाईयां लड़ीं. मुकदमे हुए. मगर अब हमारे मन में कोई गिला शिकवा नहीं है. बुद्ध के इन अस्थि अवशेषों की वजह से ढेर सारे पर्यटक यहां आएंगे. वैशाली का विकास होगा. यह बड़ा पर्यटन केंद्र बनेगा. वैशाली को उसका हक मिलेगा. यही सबसे अच्छी बात है.” वैशाली के रामनरेश राय जब यह कहते हैं तो उनका मकसद उस कटुता को भुला देना लगता है, जो पिछले दो दशकों से वैशाली के लोगों और बिहार की सरकार के बीच में किसी न किसी रूप में मौजूद रही.
2016 में पहली दफा रामनरेश राय से वैशाली में इस संवाददाता मुलाकात हुई थी. वे एक स्थानीय कॉलेज में अध्यापक हैं मगर वैशाली के आमलोगों के लिए उनका परिचय उस व्यक्ति के रूप में है, जिसने वैशाली में उत्खनन के दौरान मिले बुद्ध के अस्थि अवशेषों को पटना से वापस वैशाली लाने की लड़ाई लड़ी. उन्होंने इसके खिलाफ पटना हाईकोर्ट में 2008 में मुकदमा किया और 2010 में अदालत ने आदेश जारी किया कि जितनी जल्दी हो सके और अधिकतम एक साल के भीतर इन अस्थि अवशेषों को वैशाली में रखे जाने की व्यवस्था सरकार करे. उस वक्त इस आदेश के पांच साल बीच चुके थे और सरकारी काम धीमी गति से चल रहा था.
आखिरकार ये अस्थियां वैशाली आ गईं. सरकार ने इन्हें रखने के लिए 550.48 करोड़ रुपए की लागत से बुद्ध सम्यक दर्शन संग्रहालय और स्मृति स्तूप का निर्माण कराया और 29 जुलाई को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के हाथों इसका उद्घाटन हुआ. हालांकि उद्घाटन के मौके पर नीतीश कुमार ने अपने संबोधन से वैशाली के लोगों के संघर्ष और मुकदमे की बात का जिक्र तक नहीं किया. अपने भाषण में उनका कहना था, “2010 में हम वैशाली आए और चार दिन तक यहां रहे. जब हम मड स्तूप को देखने गए तो पता चला कि उस स्तूप के नीचे मिले अस्थि अवशेषों को पटना म्यूजियम में रखा गया है. तब यह विचार आया कि यहां से मिले अस्थि अवशेषों को वैशाली में ही रखा जाए.”

हो सकता है नीतीश कुमार पिछली बातों को भूल गए हों मगर इंडिया टुडे को इस संबध में वैशाली के पूर्व सांसद स्वर्गीय रघुवंश प्रसाद सिंह का लिखे कुछ पत्र मिले हैं. ये पत्र उन्होंने खुद नीतीश कुमार को 2005 और 2006 में लिखे हैं. दो मार्च, 2006 को लिखे एक पत्र में वे 28 जनवरी, 2006 के अपने पुराने पत्र का उल्लेख करते हुए लिखते हैं, “भगवान बुद्ध की पवित्र अस्थियां, वैशाली में खुदाई के दौरान मिली हैं, उन्हें वैशाली में ही स्थापित करने के संबंध में कार्रवाई की जाये.” साथ ही वे यह भी लिखते हैं कि इस संबंध में पूर्ववर्ती सरकार ने फैसला ले लिया था, आगे की कार्रवाई भी हो रही थी. संग्रहालय के लिए जमीन भी चिह्नित कर ली गई थी. मगर इस प्रस्ताव की स्वीकृति के लिए जब इसे संस्कृति एवं युवा कार्य विभाग के पास भेजा गया तो पूर्ववर्ती सरकार के फैसले पर भिन्न राय व्यक्त करते हुए इसे आपके पास विचारार्थ भेजा गया है.
इन पत्रों से साफ है कि वैशाली में संग्रहालय बनाकर बुद्ध की अस्थियों को वहां रखने का फैसला पूर्ववर्ती सरकार(राबड़ी देवी सरकार) ले चुकी थी. नवंबर, 2005 में जब नीतीश कुमार की सरकार बनी तो नई सरकार ने इस योजना पर आपत्तियां जताईं. इसके बाद लगातार रघुवंश प्रसाद सिंह सरकार के साथ पत्र व्यवहार करते रहे. इंडिया टुडे के पास 28 जनवरी, 2 मार्च और 14 मार्च, 2006 के लिखे पत्रों की प्रतियां उपलब्ध हैं. ऐसे में नीतीश कुमार का यह कहना कि उन्हें 2010 में इस बारे में पता चला, सही नहीं लगता.
सच तो यह है कि जब इन पत्रों पर कोई सकारात्मक कार्रवाई नहीं हुई तो इन अस्थियों को वैशाली लाने के लिए रघुवंश प्रसाद सिंह ने वैशाली के लोगों के साथ 2007 में चंपारण के केसरिया स्तूप से पटना तक की पदयात्रा भी की थी. और जब इस पदयात्रा से भी बात नहीं बनी तो 2008 में रामनरेश राय ने पटना हाईकोर्ट की शरण ली, जिसका जिक्र पहले किया जा चुका है. रघुवंश प्रसाद सिंह का 2020 में निधन हो चुका है और रामनरेश राय अब इस मसले पर ज्यादा बात नहीं करना चाहते मगर रघुवंश प्रसाद सिंह के करीबी रहे राजद के संस्थापक सदस्य चितरंजन गगन जो खुद वैशाली के रहने वाले हैं, आरोप लगाते हैं, “वैशाली में स्तूप और सम्यक दर्शक संग्रहालय बनवाने में नीतीश कुमार की कोई भूमिका नहीं है. यह तो रघुवंश बाबू के संघर्ष और कोर्ट के आदेश की वजह से हुआ. नीतीश जी कभी नहीं चाहते थे कि ये अस्थियां वापस वैशाली जाएं. इसे रखने के लिए उन्होंने पटना में बुद्ध स्मृति पार्क बनवा लिया था.”
2016 में इस संवाददाता से बातचीत में यह आरोप रामनरेश राय ने भी लगाया था. हालांकि कई जानकार इन आरोपों को गलत बताते हैं. पटना संग्रहालय के पूर्व निदेशक उमेश चंद्र द्विवेदी कहते हैं, "यह गलत बात है कि अस्थि अवशेषों को रखने के लिए बुद्ध स्मृति पार्क बना है. दरअसल मुख्यमंत्री को लगता था कि बुद्ध की स्मृतियों को देखने के लिए हर पर्यटक राजगीर और गया नहीं जा सकता. ऐसे में उन्हें पटना में यह पार्क दिखाया जा सकता है. हालांकि कला संस्कृति विभाग के एक अधिकारी नाम प्रकाशित न करने की शर्त पर कहते हैं कि नीतीश कुमार ने उनसे कहा था, अगर अस्थियां वैशाली जाएं तो कोई हर्ज नहीं, मगर उसका कुछ अंश इस पार्क में भी रखा जा सकता है."
हालांकि जिस साल इस पार्क का उद्घाटन हुआ, उसी साल पटना हाईकोर्ट ने इस अस्थि अवशेषों को एक साल के भीतर वैशाली भेजे जाने का आदेश जारी कर दिया.
अस्थि अवशेषों की कहानी
वैशाली जिसे देश के पहले गणतंत्र होने का गौरव हासिल है, जो प्राचीन भारत के ऐश्वर्यशाली नगरों में से एक था और खुद गौतम बुद्ध को भी काफी प्रिय था. वह उन चंद जगहों में से एक है, जहां बुद्ध की अस्थियों के अवशेष रखे गए थे.

नीतीश कुमार को लिखे एक पत्र में रघुवंश प्रसाद सिंह ने लिखा है कि वैशाली के अतिरिक्त ये पवित्र अस्थियां आंध्र प्रदेश के अमरावती और उत्तर प्रदेश के पिपरावां में मिली हैं. यह रोचक है कि इस खबर को जब लिखा जा रहा है तो पिपरावां में मिली अस्थियों के अवशेष को 127 साल बाद विदेश से भारत लाया गया है.
वैशाली में ये अस्थि अवशेष 1958-59 में हुए उत्खनन के दौरान मिले. तब पटना के केपी जायसवाल संस्थान के तत्कालीन निदेश ए.एस. अल्टेकर के नेतृत्व में वहां खुदाई हुई थी. खुदाई के बाद उन अवशेषों को पटना संग्रहालय परिसर में स्थित केपी जायसवाल संस्थान के भवन में ले आया गया और 1966-67 तक वे वहीं रहीं, जब तक इसके बारे में रिपोर्ट तैयार की गई. इसके बाद उन्हें पटना संग्रहालय को सौंप दिया गया, जहां बाद में इसके लिए एक विशेष कक्ष बनाया गया. वहां एक विशेष शुल्क अदाकर लोग उसे देख सकते थे.
इन अस्थियों को वापस वैशाली लाने का अभियान कब शुरू हुआ यह तो मालूम नहीं मगर वैशाली की गरिमा को पुनर्स्थापित करने का अभियान 1945 से ही शुरू हो गया था. इसका श्रेय आईसीएस अधिकारी और हाजीपुर के पूर्व एसडीओ जगदीशचंद्र माथुर को दिया जाता है, जिन्होंने 31 मार्च, 1945 को वैशाली संघ नामक एक संस्था की स्थापना की थी और उसी दिन से वैशाली महोत्सव की शुरुआत की थी. 1978 में उनकी मृत्यु हो गई, मगर इस बीच के 33 वर्षों में वे लगातार यह महोत्सव करवाते रहे. यह जानकारी बिहार राष्ट्रभाषा परिषद से प्रकाशित ई. गनीलाल ठाकुर की किताब वैशाली की धरती का सच में लिखी हुई है.
चितरंजन गगन बताते हैं कि जगदीश चंद्र माथुर के बाद भी वैशाली महोत्सव की गौरवशाली परंपरा जारी रही. इस महोत्सव में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी आते थे. मगर जब नीतीश कुमार की सरकार बनी यह महोत्सव उपेक्षित होने लगा. यहां मंत्री भी आने से परहेज करने लगे. अब बुद्ध की अस्थियां वैशाली आ चुकी हैं. यहां संग्रहालय और स्तूप का भव्य भवन भी बन चुका है. मगर इस बीच वैशाली के लोगों और खासकर रघुवंश प्रसाद सिंह के संघर्ष की कहानी गायब है. वैशाली के लोग चाहते हैं कि इस परिसर में रघुवंश प्रसाद सिंह की एक प्रतिमा स्थापित हो, जो वैशाली के लिए ताउम्र लड़ते रहे.
अपनी मृत्यु से कुछ ही दिन पहले भी रघुवंश प्रसाद सिंह ने एक पत्र मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नाम लिखा था और उसमें उन्होंने तीन मांगें की थीं. 10 सितंबर, 2020 को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को लिखे पत्र में उन्होंने कहा था कि गणतंत्र दिवस के अवसर पर मुख्यमंत्री को वैशाली आकर झंडा फहराना चाहिए, गौतम बुद्ध का अंतिम भिक्षा पात्र जिसे कुषाण काल में वैशाली से कंधार के इलाके में ले जाया गया था, जो आज काबुल के संग्रहालय में है, उसे वापस वैशाली लाना चाहिए. और आखिरी मांग के तौर पर उन्होंने मनरेगा में कृषि कार्यों को शामिल किए जाने की बात की थी. बीमार पड़े रघुवंश प्रसाद सिंह को तब मुख्यमंत्री ने भरोसा दिलाया था कि उनकी मांगें पूरी होंगी. मगर पांच साल बाद भी इनमें से एक भी मांग पूरी नहीं हो सकी है.
रघुवंश प्रसाद सिंह के बड़े बेटे सत्यप्रकाश सिंह कहते हैं, “अगर सरकार को वहां मेरे पिता की मूर्ति लगाने में कोई दिक्कत है तो किसी शिलापट्ट पर भी उनके वैशाली प्रेम का जिक्र कर दिया जाए. इस आशय की चिट्ठी भी लिखकर मैंने मुख्यमंत्री को भिजवाने की कोशिश की है.”