
भोपाल गैस त्रासदी के करीब 40 साल बाद मध्य प्रदेश सरकार ने एक अहम फैसला लिया है. इसके तहत भोपाल की यूनियन कार्बाइड फैक्टरी से निकले करीब 336 टन जहरीले कचरे का निपटान जल्द शुरू किया जाएगा. इस काम में उसे केंद्र का भी वित्तीय सहयोग मिला है. गैस रिसाव की ये त्रासद दुर्घटना दिसंबर, 1984 में हुई थी, जिसमें आधिकारिक तौर पर चार हजार से अधिक लोगों की जानें गई थीं, जबकि हजारों लोग गंभीर बीमारियों और अपंगता से पीड़ित हुए थे.
इस दुर्घटना के बाद इसके पीड़ितों के साथ काम करने वाले एक्टिविस्ट और संगठनों की लंबे समय से यह मांग रही है कि गैस रिसाव के बाद बचे जहरीले कचरे का सुरक्षित तरीके से निपटान हो. लेकिन अब जबकि राज्य सरकार ने इसके लिए कदम उठाया है, वे इस पहल से खुश नहीं हैं. उनका कहना है कि जिस 'इनसिनेरेशन' विधि से इन कचरों का निपटारा किया जाना है, वो कुल कचरे का महज एक फीसद ही है. और इस तरह वास्तविक खतरा अभी भी बरकरार ही रहेगा.

इनसिनेरेशन यानी भस्मीकरण के बारे में कहा जाए तो यह कचरा निपटान की एक विधि है जिसमें नियंत्रित वातावरण में उच्च तापमान पर कचरे को जलाया जाता है. यह प्रक्रिया कचरे की मात्रा को 95 फीसद तक और उसके द्रव्यमान (भार) को 80-85 फीसद तक कम कर देती है. इस तकनीक के इस्तेमाल से खतरनाक केमिकल और बायोलॉजिकल वेस्ट के संभावित जहरीलेपन और मेडिकल वेस्ट के बीमारियां फैलाने की क्षमता को कम किया जा सकता है.
इंडिया टुडे के वरिष्ठ संवाददाता राहुल नरोन्हा की एक रिपोर्ट के मुताबिक, केंद्र ने मध्य प्रदेश सरकार को करीब 336 टन के इस कचरे के निपटान के लिए कुल 126 करोड़ रुपये का बजट उपलब्ध कराया है. इसके लिए राज्य के धार जिले के पीथमपुर में पहले से एक फैसिलिटी सेंटर मौजूद है, और इसी जगह पर कचरे का निपटारा किया जाना है.
हालांकि एक्टिविस्टों का मानना है कि इस उपाय से समस्या का कोई हल नहीं निकलेगा. उनका तर्क है कि निस्तारण के लिए जिन कचरों को चिह्नित किया गया है, वो सिर्फ जमीन के ऊपर बोरियों और ड्रमों में पड़े कचरे ही हैं.
इस बारे में इंडिया टुडे से बात करते हुए भोपाल ग्रुप फॉर इन्फॉर्मेशन एंड एक्शन संगठन की सदस्य रचना ढींगरा ने कहा, "इस निपटान से भोपाल के लोगों को कोई मदद नहीं मिलने वाली है क्योंकि यह साइट पर पड़े पूरे जहरीले पदार्थ का एक छोटा सा हिस्सा भर है. हम कचरे की गहराई और फैलाव का पता लगाने के लिए एक व्यापक वैज्ञानिक सर्वेक्षण की मांग करते हैं ताकि जहरीलापन किस हद तक व्याप्त है, उसका पता चल सके." यह संगठन भोपाल गैस त्रासदी से पीड़ित लोगों के लिए काम करता है.
एक्टिविस्टों का दावा है कि प्लांट से निकलने वाले इस जहरीले कचरे की वजह से स्थानीय भूजल प्रदूषित हो रहा है. उनके मुताबिक, सोलर इवेपोरेशन पॉन्ड (सौर वाष्पीकरण तालाब), जिसकी लाइनिंग टूट गई है, इसके साथ-साथ बिना लाइनिंग वाले 29 गड्ढों से ये खतरनाक कचरा आसपास रिस रहा है. इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के मुताबिक, उन्होंने इस बात को उठाते हुए केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव को पत्र भी लिखा है, और इसमें उन्होंने अपने दावों के समर्थन में 1991 से लेकर 2018 के बीच सरकारी और गैर-सरकारी एजेंसियों द्वारा किए गए 17 अध्ययनों का भी हवाला दिया है.
हालांकि राज्य सरकार ने भी अपने स्तर पर इसके लिए तमाम अध्ययन कराए हैं. साल 2010 में सूबे की सरकार ने राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान को इसके लिए एक स्टडी कराने की जिम्मेदारी सौंपी थी. संस्थान ने अपने उस अध्ययन में इन जहरीले वेस्ट की मात्रा करीब 12 लाख टन होने का अनुमान लगाया था. लेकिन उस स्टडी को खारिज कर दिया गया. अलावा इसके, 2013 से 2015 के बीच निपटान की छह और कोशिशें हुईं, लेकिन ये सभी असफल रहीं. आइए अब जानते हैं कि भोपाल गैस त्रासदी के दिन क्या हुआ था.
क्या हुआ था भोपाल गैस त्रासदी के दिन

साल 1984 की 2 दिसंबर की रात भोपाल के लिए काल बन कर आई थी. शहर में ही स्थित यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से करीब 40 टन जहरीली गैस का रिसाव हुआ और महज कुछ ही घंटों के भीतर इसने हजारों जिंदगियां लील लीं. इस गैस का नाम था – मिथाइल आइसोसाइनेट या MIC. यह जहरीली और बेहद ज्वलनशील गैस होती है. पानी के साथ मिल जाए तो तबाही का रास्ता ढूंढ़ने लगती है. उस रात फैक्ट्री में भी यही हुआ.
प्लांट 'सी' के टैंक नंबर 610 में यह जहरीली गैस पानी के साथ मिली. इस रासायनिक प्रक्रिया से टैंक में जबर्दस्त दबाव पैदा हुआ. टैंक खुल गया. गैस रिसने लगी. देखते ही देखते पूरा भोपाल गैस चैंबर में तब्दील हो चुका था. शहर में अफरा-तफरी मच चुकी थी. आंखों में जलन और सांस की तकलीफ से लोग बदहवास होकर नीचे गिर रहे थे. पर सबसे ज्यादा मार झेली फैक्ट्री के नजदीक रह रहे लोगों ने. यह उन लोगों की बस्ती थी जो दूर-दराज से कमाने-खाने के लिए वहां इकट्ठा हुए थे लेकिन उन्हें सपने में भी अंदेशा नहीं रहा होगा कि वे बारूद के ढेर पर खड़े हैं.
उस समय भोपाल की करीब साढ़े आठ लाख की आबादी में 5 लाख से भी अधिक लोग इस गैस की जद में आए. यानी कुल आबादी के दो-तिहाई से भी अधिक. सरकारी आंकड़ों ने मौत की संख्या 4000 के करीब जाहिर किया. जबकि गैर-सरकारी स्रोतों के मुताबिक यह आंकड़ा इससे कहीं ज्यादा था. कहा जाता है कि विश्व की सबसे त्रासद औद्योगिक दुर्घटनाओं में से एक इस घटना में 15 हजार से भी अधिक जानें गईं.
2 दिसंबर की अगली सुबह बीती रात की तबाही का संकेत दे रही थी. सड़कें, चौक-चौराहे और गली-मुहल्ले लाशों से अटे पड़े थे. मनुष्यों के साथ-साथ जानवर भी इस जानलेवा गैस का शिकार हुए थे. गैस से पीड़ित लोग अचेत अवस्था में जब अस्पतालों की ओर भागे तो डॉक्टरों को भी नहीं पता था कि इस गैस के असर से कैसे मुकाबला किया जाए. ऊपर से अस्पतालों की कमी ने इस समस्या को और भी भयानक बना दिया था. अस्पतालों में लोगों के लिए जगह नहीं थी. बावजूद इसके पहले दो दिनों में करीब 50 हजार लोगों का इलाज किया गया.

घटना के तीन दिन बाद 6 दिसंबर को यूसीसी यानी यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन के अध्यक्ष वॉरेन एंडरसन भारत पहुंचा. लेकिन एंडरसन को बिल्कुल अंदेशा नहीं था कि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने उनके लिए कुछ अलग प्लान कर रखा था. भोपाल पहुंचते ही उसे गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन ज्यादा देर के लिए नहीं. महज 24 घंटे के भीतर एंडरसन वापस अमेरिका के लिए उड़ान भर रहा था. ऐसा क्यों और कैसे हुआ इस बात पर अभी भी धुंध कायम है, लेकिन यह साफ है कि भोपाल गैस त्रासदी ने मासूमों सहित कई जिंदगियों को बर्बाद कर दिया.
केंद्र ने कंपनी से मुआवजा दिलाने की मांग की थी
अपनी रिपोर्ट में राहुल नरोन्हा लिखते हैं, "यूनियन कार्बाइड प्लांट से MIC गैस के रिसाव ने इंसानी जीवन और पर्यावरण क्षति, इन दोनों ही मामलों में दुनिया की सबसे खराब औद्योगिक आपदाओं में से एक को जन्म दिया था. इस त्रासदी के बाद मुआवजे के लिए एक लंबी लड़ाई भी चली. लेकिन पिछले ही साल सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार की उस क्यूरेटिव याचिका को खारिज कर दिया था, जिसमें यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन (UCC) के उत्तराधिकारियों से अतिरिक्त मुआवजा देने की मांग की गई थी."
दरअसल, भोपाल में हुई गैस त्रासदी के बाद UCC ने साल 1989 में करीब 3900 करोड़ रुपये से अधिक का मुआवजा दिया था. इसके बाद पीड़ितों ने ज्यादा मुआवजे की मांग के साथ कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. आज तक की एक रिपोर्ट के मुताबिक, केंद्र ने पीड़ितों को कंपनी से 7,844 करोड़ रुपये के अतिरिक्त मुआवजा दिलाने की मांग की थी, और इसे (मुआवजे को) बढ़ाने के लिए दिसंबर 2010 में सुप्रीम कोर्ट में एक क्यूरेटिव याचिका दाखिल की थी.
सरकार चाहती थी कि यूनियन कार्बाइड (डॉव केमिकल्स अब इस कंपनी को खरीद चुकी है) गैस कांड पीड़ितों को ये पैसा दें, वहीं UCC ने कोर्ट में कहा था कि वो 1989 में हुए समझौते के अलावा भोपाल गैस पीड़ितों को एक भी पैसा नहीं देगा. इस मामले पर सुनवाई के बाद पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने 12 जनवरी, 2023 को दिए अपने फैसले में केंद्र की क्यूरेटिव याचिका को खारिज कर दिया था.
बच निकले गुनहगार
जैसा कि ऊपर बताया गया है कि इस हादसे में मुख्य आरोपी UCC के अध्यक्ष वॉरेन एंडरसन था. लेकिन उसे कभी सजा नहीं हुई. दरअसल, एंडरसन मुकदमे के लिए कोर्ट में कभी पेश ही नहीं हुआ. हादसे के बाद भोपाल पहुंचते ही एंडरसन को जरूर गिरफ्तार किया गया था, लेकिन इसके महज 24 घंटे के भीतर ही वह वापस अमेरिका के लिए उड़ान भर रहा था. इसके बाद 01 फरवरी 1992 को भोपाल की कोर्ट ने उसे फरार घोषित कर दिया. सितंबर, 2014 में उसकी मौत हो गई.