पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान 10 जुलाई को जब विधानसभा में बोलने खड़े हुए तो उनके निशाने पर विपक्षी दल नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी थे. मान ने कटाक्ष के सुर में कहा, “उन्हें (मोदी) ऐसे देशों से पुरस्कार मिलते रहते हैं जिनके हमने नाम भी नहीं सुने. इससे भारत के आम लोगों को क्या फायदा होने वाला है? क्या इससे महंगाई या बेरोजगारी कम हुई?”
मोदी ने हाल ही में ब्राजील, घाना, त्रिनिदाद एवं टोबैगो, अर्जेंटीना और नामीबिया का दौरा किया, जहां उन्हें वहां के नागरिक सम्मान प्रदान किए गए. मान की टिप्पणी ने तुरंत सबका ध्यान खींचा, सिर्फ इसलिए नहीं कि एक मौजूदा मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री पर सीधा हमला बोला था बल्कि इसके लिए चुने गए समय और इसके राजनीतिक निहितार्थ की वजह से.
विधानसभा में मान का भाषण दरअसल मौजूदा व्यवस्था पर पलटवार से कहीं बढ़कर था, जिसे पक्ष-विपक्ष को एक सुनियोजित राजनीतिक संदेश देने के तौर पर देखा गया. उनका पहला लक्ष्य था, पंजाब के राजनीतिक परिदृश्य में अपनी जमीन फिर से मजबूत करना क्योंकि पिछले दो वर्षों के दौरान उनके मुख्य निर्वाचन क्षेत्र मालवा के ग्रामीण जाट सिख मतदाताओं का उनसे मोहभंग होता चला गया है. इन मतदाताओं ने कभी पूरे उत्साह के साथ आम आदमी पार्टी (आप) का समर्थन किया था.
राज्य में यह धारणा जोर पकड़ती जा रही है कि दिल्ली से आप के बड़े नेताओं यानी अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और सत्येंद्र जैन ने मान को अपने इशारे पर चलाना शुरू कर दिया है. वैसे भी, फरवरी में दिल्ली विधानसभा चुनाव में आप की करारी हार के बाद से ये नेता बार-बार पंजाब में नजर आते रहे हैं, जिसने मान की मुश्किलों को और बढ़ा दिया है.
पंजाब में विपक्षी दलों, खासकर शिरोमणि अकाली दल (शिअद) और कांग्रेस, ने कई बार आरोप लगाया कि मान सरकार को केजरीवाल की तरफ से नियुक्त लोग चला रहे हैं. कुछ नेताओं ने तो यह भी दावा किया कि पंजाब के मुख्यमंत्री कार्यालय की महत्वपूर्ण फाइलें आप के दिल्ली नेताओं के माध्यम से भेजी जाती हैं.
सीधे तौर पर मोदी पर हमला करके मान ने दरअसल आप के अंदर और बाहर दोनों जगह अपने आलोचकों को यह बताने की कोशिश की है कि वे आसानी से हार मानने वालों में नहीं हैं. और, यह भी कि केजरीवाल भले ही दिल्ली में चुनौतियों से जूझ रहे हों, पंजाब में मान का बोलबाला ही है. राजनीतिक जानकारों का कहना है कि यह देखना दिलचस्प होगा कि मुख्यमंत्री आगे क्या कहते या करते हैं.
मान का यह संदेश आप कार्यकर्ताओं के लिए भी था. दिल्ली शराब नीति से जुड़े मामले में केजरीवाल की गिरफ्तारी और फिर अंतरिम जमानत पर रिहाई, उसके बाद दिल्ली विधानसभा चुनाव में करारी हार, जिसमें केजरीवाल के साथ-साथ पार्टी के अन्य धुरंधर नेता भी हार गए के बाद से कुछ राजनीतिक पंडित यह मान रहे हैं कि भगवंत मान के पास आम आदमी पार्टी के भीतर एक सशक्त नेता बनकर उभरने का अच्छा मौका है. हालांकि, मान ने इस दिशा में कुछ खास नहीं किया था. लेकिन अब विधानसभा में क्षेत्रीय मुहावरों और व्यंग्य से भरपूर उनका भाषण यह संकेत देता है कि वह दिल्ली की छाया से बाहर आकर पंजाब की मुखर आवाज बनने की कोशिश कर रहे हैं.
माना यह भी जा रहा है कि भगवंत मान इन आरोपों के जरिए सांस्कृतिक और राजनीतिक स्तर पर अपना कद बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं. पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर आशुतोष कुमार कहते हैं, “उन्होंने यह बात पंजाब के लोगों को ध्यान में रखकर कही, न कि दिल्ली या दूसरे देशों की सरकारों के लिए. यह अपने ग्रामीण जनाधार को यह बताना चाहते थे कि वह ये भूले नहीं हैं कि किसका प्रतिनिधित्व करते हैं. मान उन पार्टी नेताओं को भी चुप कराना चाहते थे जिन्हें यह लगता है कि बतौर मुख्यमंत्री वे स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर पा रहे हैं. हालांकि, उनका संदेश कितना प्रभावी रहा, यह हमें अभी तक पता नहीं चल पाया है.”
मान की बयानबाजी खुद को पंजाब के हितों के संरक्षक साबित करने की उनकी रणनीति से मेल खाती है, खासकर जल-बंटवारे जैसे भावनात्मक मुद्दों के संबंध में. मई में उन्होंने सार्वजनिक तौर पर पंजाब के पानी की रक्षा की प्रतिबद्धता जताते हुए हरियाणा को नहर के पानी का प्रवाह रोक दिया. भले ही इससे एक नई कानूनी बहस छिड़ी लेकिन इस कदम ने उनके गढ़ मालवा के लोगों को जरूर प्रभावित किया, जहां पानी की कमी एक ज्वलंत मुद्दा है. इससे उन्हें कहीं न कहीं अपनी वह छवि मजबूत करने में मदद मिली जिसकी उन्हें काफी समय से तलाश थी: जमीन से जुड़ा एक ऐसा नेता जो केंद्र और पड़ोसी राज्यों, दोनों के खिलाफ मजबूती से खड़ा है.
मोदी के खिलाफ मान के इस हमले को इस लिहाज से भी बेहद अहम माना गया कि यह पार्टी लाइन से जुदा था. महीनों तीखी बयानबाजी के बाद आप सुप्रीमो केजरीवाल ने अब मोदी की आलोचना काफी कम कर दी. चाहे कानूनी पचड़ों से बचने की कवायद हो या फिर रणनीतिक शांति विराम, केजरीवाल पिछले कुछ समय से व्यक्तिगत हमलों से परहेज कर रहे हैं. इसलिए, मान का इसके विपरीत कदम उठाना दोगुना प्रतीकात्मक लगता है.
और, इस बात को यूं ही जाने भी नहीं दिया. मान की टिप्पणी के अगले ही दिन विदेश मंत्रालय ने सार्वजनिक रूप से फटकार लगाई. मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने इन टिप्पणियों को “गैर-जिम्मेदाराना और खेदजनक” बताया और कहा, “किसी राज्य-स्तरीय आधिकारिक पद पर बैठे नेता को यह शोभा नहीं देता और दूसरे देशों, खासकर दक्षिणी क्षेत्र के देशों के साथ भारत के रिश्ते भी कमजोर करता है.” उन्होंने आगे कहा कि वैश्विक स्तर पर प्रधानमंत्री को मिलने वाली मान्यता भारत के बढ़ते कद और “विभिन्न क्षेत्रों के साझेदारों के साथ कूटनीतिक संपर्क” को दर्शाती हैं. संदेश साफ था--विदेश नीति राज्यों के हस्तक्षेप का विषय नहीं है.
लेकिन मान पीछे हटने वालों में नहीं थे. उन्होंने एक दिन बाद कहा, “मैं सवाल पूछता रहूंगा. यह मेरा अधिकार है. मैं विदेश नीति पर सवाल नहीं उठा रहा; मैं बस यह पूछ रहा हूं कि विदेशी दौरे और पुरस्कार आम पंजाबियों की कैसे मदद कर रहे हैं.” उनका लहजा सख्त था, जिससे साफ पता चलता था कि अपनी बात से पीछे हटने के बजाय वह इसे और जोरदारी से उठाने में अपना सियासी लाभ देख रहे हैं.
पूरा घटनाक्रम एक खास वर्ग को साधने के प्रति मान की दिलचस्पी को उजागर करता है-और, यह है पंजाब का ग्रामीण वोट बैंक, जो बीजेपी और दिल्ली-केंद्रित राजनीति दोनों को लेकर सशंकित है. बीजेपी शहरी पंजाब में तो अपनी पैठ मजबूत करती जा रही है लेकिन ग्रामीण निर्वाचन क्षेत्रों, खासकर मालवा और दोआबा में उसे संघर्ष करना पड़ रहा है. मान की बयानबाजी का उद्देश्य बीजेपी-विरोधी इसी भावना को और मजबूत करना है.
इस संदर्भ में बात करें तो दिलजीत दोसांझ प्रकरण एक अहम मुद्दा रहा. जून में जब दोसांझ की हाई बजट फिल्म सरदारजी-3 अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रिलीज हुई तब भारत-पाकिस्तान सैन्य संघर्ष की स्थिति से गुजर रहे थे. इस फिल्म में पाकिस्तानी अभिनेत्री हानिया आमिर मुख्य भूमिका में हैं, और कश्मीर के पहलगाम में आतंकी हमले को लेकर द्विपक्षीय तनाव के बावजूद सीमा पार सहयोग को ‘सामान्य’ बनाने की कथित कोशिशों को लेकर फिल्म आलोचनाओं के घेरे में आ गई.
मान ने पंजाब विधानसभा को दोसांझ के बचाव का मंच बना लिया और आरोप लगाया कि बीजेपी की हिंदुत्ववादी “ट्रोल मशीनरी” ने राज्य के कलाकारों के खिलाफ दुष्प्रचार अभियान चला रखा है. जबकि, सच्चाई यह भी है कि बॉलीवुड और पंजाबी सिनेमा की कई प्रमुख हस्तियों ने खुद ही मुख्यधारा की पंजाबी फिल्म में एक पाकिस्तानी अभिनेत्री को लेने के औचित्य पर सवाल खड़े किए थे.
मान के बयान ने उनकी पार्टी के ही कुछ लोगों को चौंका दिया, खासकर तब जब राज्य के बीजेपी नेताओं और कुछ केंद्रीय मंत्रियों ने दोसांझ का खुला समर्थन किया. जाहिर है, मान इस विवाद का इस्तेमाल पंजाबी गौरव के रक्षक के तौर पर अपनी साख मजबूत करने के लिए करना चाहते होंगे. यह उनके लिए बीजेपी के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के साथ तुलना का भी एक मौका था, जिसने पंजाबी मुखरता को एक ऐसे रूप में सामने रखा जो हमेशा राष्ट्रीय राजनीति की धारा के साथ नहीं बहती.
लेकिन उनका इरादा अगर 2027 के विधानसभा चुनाव से पहले अपनी छवि चमकाना या फिर आप के भीतर एक मजबूत स्वतंत्र पहचान स्थापित करना था तो उन्हें अभी एक लंबा सफर तय करना पड़ सकता है. दिल्ली में सरकार जाने के बाद से आप आलाकमान पंजाब की शासन व्यवस्था में अधिक सक्रिय है, और मान का स्वतंत्र रूप से काम करना पार्टी की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं की सीमा पर निर्भर है.
यही नहीं, केजरीवाल की कानूनी दिक्कतें अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुई हैं. ऐसे में मान की एक भी चूक केंद्र सरकार को दबाव बढ़ाने के लिए प्रेरित कर सकती है—चाहे प्रशासनिक मशीनरी के जरिये या फिर जैसा आरोप लगाया जा रह है यानी जांच एजेंसियों के बूते पर.
फिर भी, मान का विधानसभा भाषण कुछ मायनों में खास ही रहा है. मसलन, इसने यह बहस फिर से तेज कर दी है कि खुद को राष्ट्रीय दलों के खांचे में लाने के लिए क्षेत्रीय नेताओं के पास कितना मौका होता है. यह पंजाब में मध्यमार्गी राजनीति की घटती गुंजाइश को भी दर्शाता है, जहां भावनात्मक अपील, स्थानीय पहचान और केंद्र-विरोधी रुख अब भी राजनीतिक सफलता की गारंटी है.
जैसे-जैसे 2024 के लोकसभा चुनाव पीछे छूटता जा रहा है और राज्यों की राजधानियों में नए समीकरण उभरने लगे हैं, मान साउथ ब्लॉक के साथ पंगा लेने का साहस दिखाकर कहीं न कहीं यह दिखाना चाहते हैं कि वे अपनी क्षेत्रीय प्रासंगिकता को बरकरार रखने के लिए कोई भी दांव लगाने को तैयार हैं.