
आखिरकार विधेयक पास कराकर बेतिया राज की संपत्ति का बिहार सरकार ने अधिग्रहण कर लिया. 26 नवंबर को बिहार विधानसभा ने 'बेतिया राज की संपत्तियों को निहित करने वाले विधेयक, 2024' को ध्वनिमत से पारित कर दिया. इस विधेयक को बिहार सरकार के राजस्व बोर्ड ने तैयार किया था और राजस्व एवं भूमि सुधार मंत्री दिलीप जायसवाल ने पेश किया था.
इस विधेयक के पास हो जाने के बाद बेतिया राज की बिहार और उत्तर प्रदेश में फैली 15 हजार एकड़ जमीन, भवन और दूसरी तमाम संपत्तियों पर बिहार सरकार के राजस्व बोर्ड का कब्जा हो जायेगा. अब जबकि यह विधेयक पास हो गया है, ऐसे में यह जानना दिलचस्प होगा कि अब तक यह संपत्ति किस रूप में थी, यह इस स्थिति में क्यों थी, इससे क्या दिक्कतें हो रही थीं, इसका संचालन कैसे हो रहा था और अब नये कानून की वजह से इसमें क्या बदलाव आयेंगे?
दरअसल यह हैरत भरी बात है कि आजादी के 77 साल बाद भी तकनीकी तौर पर बेतिया राज की जमींदारी कायम थी. उस जमींदारी का संचालन जरूर बिहार सरकार के अधिकारी कर रहे थे, मगर वे सिर्फ इसके कस्टोडियन थे, मालिक नहीं.
इस पूरे मामले में सबसे दिलचस्प बात यह है कि कानूनी तौर पर बिहार सरकार अब तक इस संपत्ति के वारिस का इंतजार कर रही थी और अगर इसका कानूनी वारिस मिल जाता तो सरकार उसे यह संपत्ति सौंप देती. यह इंतजार अंग्रेजों के जमाने यानी 1897 से ही चल रहा था. ब्रिटिश सरकार ने उस वक्त बेतिया राज के आखिरी राजा हरेंद्र किशोर सिंह और उनकी पहली रानी शिवरतन कुंवर के निस्संतान निधन और उनकी दूसरी रानी जानकी कुंवर को जमींदारी चलाने के लिए अयोग्य पाने की स्थिति में इस राज पर 'कोर्ट ऑफ वार्ड' लगा दिया था, वह कोर्ट ऑफ वार्ड 26 नवंबर 2024 तक यानी 127 साल जारी रहा.
क्या है कोर्ट ऑफ वार्ड्स कानून
दरअसल कोर्ट ऑफ वार्ड्स कानून ब्रिटिश सरकार का बनाया हुआ कानून है. ब्रिटेन के इस कानून को भारत में भी लागू कराया गया. इसके तहत जिस राजा या जमींदार को संतान नहीं होती थी, उसके वारिस की तलाश तक और अगर संतान नाबालिग हो तो उसके बालिग होने तक उसके राज्य या जमींदारी पर यह कानून लागू होता था.
जब तक उत्तराधिकारी मिल न जाये, या बालिग न हो जाये, यह कानून लागू रहता था. इस कानून के तहत वारिस मिलने तक राज्य या जमींदारी की देखरेख ब्रिटिश सरकार के मैनेजर करते थे. बिहार में राज दरभंगा पर भी 1860 से 1880 के बीच की अवधि के लिए कोर्ट ऑफ वार्ड्स लगा था. मगर जब राज के उत्तराधिकारी महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह बालिग हो गये तो यह कोर्ट ऑफ वार्ड्स हट गया और उन्हें जमींदारी सौंप दी गई.
बेतिया राज पर कैसे लगा कोर्ट ऑफ वार्ड्स?
बिहार के चंपारण इलाके में सत्रहवीं सदी में उग्रसेन सिंह नामक व्यक्ति ने बेतिया राज की स्थापना की. बेतिया राज और चंपारण के किसान नामक किताब में लेखक बादशाह चौबे लिखते हैं, "उग्रसेन सिंह मुगल दरबार में अधिकारी थे, राजा टोडरमल ने इनके काम से खुश होकर इन्हें 1627 में चंपारण के शासन का भार सौंपा था. इन्होंने बेतिया को अपने शासन का केंद्र बनाया और उनका राज बेतिया राज कहलाने लगा. थोड़े बहुत संकटों के बावजूद यह राज 1893 तक चलता रहा."
वे आगे लिखते हैं, "राजा जुगल किशोर सिंह के समय में ईस्ट इंडिया कंपनी ने बेतिया राज की राजशाही खत्म कर इसे जमींदारी में बदल दिया, मगर जमींदार के तौर पर ही इनका अनुवांशिक राजपाट चलता रहा. 1893 में महज 40 साल की उम्र में बेतिया राज के आखिरी महाराज हरेंद्र किशोर का निधन हो गया. उसके बाद अंग्रेजों ने उनकी बड़ी रानी शिवरतन कुंवर को बेतिया राज जमींदारी का जिम्मा सौंपा. मगर 1896 में शिवरतन कुंवर का भी निधन हो गया. ऐसे में अंग्रेजों ने हरेंद्र किशोर की दूसरी पत्नी जानकी कुंवर को उत्तराधिकारी मान उन्हें बेतिया राज की जमींदारी सौंप दी."

मगर जब से 24 साल की रानी जानकी कुंवर को जिम्मेदारी मिली, अंग्रेज उनकी प्रशासनिक क्षमता पर सवाल उठाने लगे. ऐसा लगता है कि रानी जानकी कुंवर स्वतंत्र विचारों की महिला थीं और उन्हें आत्मसम्मान के खिलाफ कोई कदम उठाना ठीक नहीं लगता, इसलिए शुरुआत से ही ब्रिटिश सरकार की निगाहों में वे खटकने लगीं.
बादशाह चौबे अपनी किताब में लिखते हैं कि जून 1896 से ही सरकार कोर्ट ऑफ वार्ड्स के लिए विचार करने लगी थी. मगर 28 जून, 1896 को चंपारण के तत्कालीन कलेक्टर डीजे मैकफर्सन ने उनके बारे में प्रतिवेदन भेजा -
"मेरी स्पष्ट धारणा है कि वे एक बुद्धिमान महिला हैं और अपने कारोबार के प्रबंधन में बिल्कुल सक्षम हैं और उनमें सक्रिय रुचि लेती हैं. वे अभी 24 साल की हैं और स्वयं लिख और पढ़ सकती हैं. उनका व्यक्तित्व आकर्षक है तथा वे मृदुभाषी महिला हैं. उनमें लेशमात्र भी फिजूल खर्च तथा अतिव्ययिता की आदत नहीं है. आभूषणों को छूने तक की भी उनकी अभिलाषा नहीं है एवं प्रबंधक को बाध्य करती हैं कि वे उसे अपने लॉकर में रखे. उनके चरित्र का यह लक्षण भविष्य के लिए अच्छा है."
किसी शासक के लिए इससे बेहतर टिप्पणी क्या हो सकती थी. बाद में भी कई अधिकारियों ने उनके बारे में सकारात्मक रिपोर्ट लिखी. सबकुछ ठीक चल रहा था, मगर 3 मार्च, 1897 को बंगाल के उपराज्यपाल एलेक्जेंडर मेकेंजी कई अधिकारियों और अकाल राहत के जुड़े संगठनों के साथ बेतिया आये. उन्होंने कहा कि बेतिया में अकाल राहत के लिए जो त्रिवेणी नहर खुदने वाली है, उसका खर्च रानी जानकी कुंवर को बहन करना चाहिए.
बेतिया राज की आर्थिक स्थिति काफी पहले से खराब चल रही थी, ऐसे में जानकी कुंवर ने इस पर विचार करने का समय लिया. यही बात मेकेंजी को चुभ गयी और उन्होंने इच्छा जाहिर की कि राज बेतिया को कोर्ट ऑफ वार्ड्स के तहत ले लिया जाये. उनकी इच्छा का पालन हुआ और पहली अप्रैल से वहां कोर्ट ऑफ वार्ड्स लग गया.

यह बिल्कुल कानूनी प्रावधानों के विरुद्ध था, न वारिस नाबालिग था, न उत्तराधिकार की समस्या थी, न एक साल से राज चला रही रानी को राज चलाने के अयोग्य ठहराया गया. सिर्फ व्यक्तिगत नाराजगी की वजह से वहां कोर्ट ऑफ वार्ड्स लगा दिया गया.
हैरत है कि इसके विरुद्ध जब रानी ने अपील की तो उन्हें बनारस के महाराज के जरिये सूचित किया गया कि वे अपने पांच विश्वासपात्र नौकरों को हटा दें, अंग्रेज मैनेजर को पूरा अधिकार देकर स्वतंत्र रूप से काम करने दें और अपने साथ दो ईसाई महिलाओं को रखें तो कमिश्नर का जांच प्रतिवेदन उनके पक्ष में जायेगा.
मगर रानी तैयार नहीं हुई. वे बार-बार अपील करती रहीं कि उनकी राज न चला सकने की क्षमता की उचित जांच करें. जुलाई, 1901 में जांच की खानापूरी हुई, उन्हें गणित के कुछ सवाल दिये, सवालों का रानी ने सही उत्तर दिया, मगर फिर भी उन्हें अयोग्य साबित कर उनकी अपील को खारिज कर दिया गया. 1911 में रानी को मानसिक रूप से असंतुलित घोषित कर दिया. मगर तब तक रानी अपना दावा पेश करती रहीं.
इसके बाद रानी जानकी कुंवर इलाहाबाद के बेतिया राज के राजभवन में रहने चली गईं जहां उन्होंने शेष जीवन गुजारा.
उस वक्त कितनी संपत्ति थी बेतिया राज के पास?
कोर्ट ऑफ वार्ड्स लगने पर बेतिया राज के मैनेजर लोविस ने 28 सितंबर, 1897 को भेजे पत्र में बताया था कि उस वक्त चंपारण, मुजफ्फरपुर, सारण, गोरखपुर, बनारस, मिर्जापुर, फैजाबाद, इलाहाबाद, बस्ती और पटना जिले में बेतिया राज की जमीन, उसके मकान और मंदिर थे. कुल 189 भवन थे. 992 सोने और 7111 चांदी की मुहरें थीं. मवेशीखाना में 55 घोड़े, 16 हाथी, एक ऊंट, 63 बैल तथा 587 गायें थीं.
राज की सालाना आय 3.92 लाख रुपये थी, जो आज की कीमत के हिसाब से 20 करोड़ के आसपास बनती है. मगर सबसे कीमती संपत्ति जवाहरात खाना के सेफ में बंद थी, जिसकी चाभी मैनेजर के पास थी, उसका विवरण कभी नहीं दिया गया. उनमें मुकुट, गहने, सोने-चांदी के बर्तन वगैरह थे. यह जेवरातखाना राजमहल के दूसरे तल्ले पर था और उसकी सुरक्षा में हमेशा दो गार्ड रहते थे.
इस खजाने पर हमेशा लोगों की नजर रही. इसका मूल्यांकन न किया जाना और इसकी सूची न बनना घातक साबित हुआ. जुलाई, 1990 में चोरों ने राजभवन की छत काटकर इस खजाने का बड़ा हिस्सा उड़ा लिया.

उस समय सक्रिय रहे मोतिहारी के पत्रकार चंद्रभूषण पांडेय कहते हैं, "हमलोग उसकी रिपोर्ट करने गये थे, मगर उस वक्त भी हमें नहीं बताया गया कि खजाने में क्या-क्या था और क्या-क्या चोरी हो गई. मगर उड़ती-उड़ती खबर मिली कि सोने-चांदी और जवाहरात के मुकुट थे, बोरे में चांदी के सिक्के थे, और बहुत सारी बहुमूल्य चीजें थीं. चोरी कब हुई यह भी पता नहीं चल पाया."
उन्होंने आगे बताया, "अधिकारी जब वहां चार्ज लेने पहुंचे और इसे देखने की इच्छा जाहिर की तो राज खुला. मगर लोगों ने बताया कि पिछले साल दशहरा में जब बगल में मेला लगता था और काफी शोर शराबा होता था, तभी शायद महल के पश्चिमी दिशा से चोरों ने यह चोरी की है."
उसके बाद भी कई दफा चोरी की घटनाएं हुईं. बेतिया राज के मैनेजरों पर भी मिली भगत के आरोप लगते रहे. 1990 की चोरी के बाद जवाहरातखाने की बची चीजों को बेतिया की ट्रेजरी में रखवा दिया गया था, दो महीने पहले उसे भितिहरवा के संग्रहालय में भिजवा दिया गया है.
राजस्व बोर्ड के अधिकारी बताते हैं कि उनमें राजा का सिंहासन, उनकी तलवार, पीकदानी, सोने-चांदी के थाली-ग्लास और दूसरे बर्तन और पीकदानी वगैरह हैं.
देश आजाद होने के बाद भी क्यों जारी रहा कोर्ट?
ब्रिटिश सरकार बेतिया राज की देखरेख के लिए आईसीएस अधिकारियों की नियुक्ति करती थी. 1937 में जब पहली दफा कांग्रेस की सरकार बनी तो पहली बार एक भारतीय को इस राज का मैनेजर बनाया गया, जो उस इलाके के चर्चित व्यक्ति बिपिन बिहारी वर्मा थे.
कहा जाता है कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद की अनुशंसा पर उनकी नियुक्ति की गयी. वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मोहन जो उसी इलाके के रहने वाले हैं, कहते हैं, "उनका दूसरा कार्यकाल विवादों से भरा रहा. उन पर खजाने से हेरफेर के आरोप लगे."
ब्रिटिश सरकार के दौरान बेतिया राज पर कोर्ट ऑफ वार्ड्स जारी रहना तो समझ आता है, मगर उसके बाद भी कोर्ट ऑफ वार्ड्स क्यों जारी रहा? इसकी वजह कोई साफ-साफ नहीं बताता है, मगर खुद को बेतिया राज का उत्तराधिकारी साबित करने के लिए कई लोगों ने दावे किये और अदालत में मुकदमे किये, संभवतः इसी वजह से आजाद भारत की सरकार भी इस कोर्ट ऑफ वार्ड्स को खत्म नहीं कर सकी.
सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले में वर्णित तथ्य के हिसाब से जब 27 नवंबर, 1954 को रानी जानकी कुंवर का निधन हो गया तो बिहार सरकार ने दावा किया कि चूंकि अब बेतिया राज का कोई वारिस जीवित नहीं बचा है, ऐसे में राज की सारी चल और अचल संपत्ति को बिहार सरकार में अधिगृहित कर दिया जाना चाहिए.
मगर शिवहर स्टेट के वारिसों ने दावा किया कि वे बेतिया राज से संबंधित हैं, अतः वही उत्तराधिकारी हैं. इस संबंध में 1961 में दो मुकदमे हुए. आगे भी कई मुकदमे हुए. 1966 में पटना की अदालत ने सभी मुकदमों को खारिज कर दिया. फिर वे हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक गये, जहां 1980 तक उनके मुकदमे चलते रहे. इस वजह से बेतिया राज का कोर्ट ऑफ वार्ड जारी रहा.
ऐसे में 1950 में जमींदारी उन्मूलन होने के बाद जहां बिहार के सभी जमींदारों ने अपने लैंड रिकार्ड्स सरकार के पास जमा करवा दिये, बेतिया राज की जमींदारी चलती रही. अंग्रेज सरकार की तरह बिहार सरकार भी राज के काम काज को देखने के लिए एडीएम स्तर के अधिकारी को मैनेजर नियुक्त करती रही. बेतिया राज की जमींदारी की कचहरी लगती रही और हर साल राज के जमीन की बंदोबस्ती 11 महीने के लिए राज के मैनेजर करते रहे.
आखिरी बड़ा दावा इलाहाबाद के भगवती शरण सिंह ने 1992 में पेश किया, जो खुद को रानी जानकी कुंवर का रिश्तेदार बताते थे. उनके वकील शौकत अली का कहना है कि उनके मुवक्किल को बनारस के लोअर कोर्ट, इलाहाबाद के हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने भी वारिस माना, मगर बिहार सरकार ने उन फैसलों को लागू नहीं कराया. हालांकि इस संबंध में पूरे दस्तावेज उपलब्ध नहीं हैं. भगवती शरण सिंह का भी कोविड के दौरान निधन हो गया.
आखिर में काम आए केके पाठक
127 साल से कोर्ट ऑफ वार्ड्स के झमेले में उलझे बेतिया राज के मामले को आखिर में बिहार सरकार के तेज तर्रार माने जाने वाले अधिकारी केके पाठक ने सुलझाया. शिक्षा विभाग से तबादले के बाद जब उन्हें राजस्व बोर्ड का जिम्मा दिया गया तो उन्होंने इस मामले को प्रमुखता से लिया.
उन्होंने इस मामले का अध्ययन किया, जमीन पर हुए अतिक्रमण का आकलन किया, वहां एक सहायक मैनेजर की नियुक्ति कराई, अधिग्रहण का विधेयक खुद तैयार कराया और फिर आखिरकार 127 साल से उलझा मामला सुलझ गया.
राजस्व बोर्ड के अधिकारी बताते हैं कि 2017 में जब केके पाठक इस बोर्ड में पहली बार अधिकारी बनकर आये थे, तभी उन्होंने इस प्रक्रिया को शुरू करा दिया था. वहां अतिक्रमण के खिलाफ बड़ा अभियान चलाया गया था. उसके बाद एक चार्टर अकाउंट फर्म से बेतिया राज की जमीन का आकलन कराया गया.
अभी कितनी जमीन बची है बेतिया राज की
चंपारण के एक चार्टर अकाउंटेंट फर्म द्वारा 2021 में पेश किये गये आकलन के मुताबिक राज के पास अभी 15358 एकड़ 60 डिसमिल जमीन बची है, जिसकी कीमत 7957.38 करोड़ उस वक्त आंकी गयी थी. विवरण इस प्रकार है -

हालांकि इस 15000 एकड़ में बड़ी मात्रा में जमीन अतिक्रमण का भी शिकार बताई जा रही है. सरकार कह रही है कि अभी अतिक्रमण का जायजा किया जा रहा है, फिर जमीन को अतिक्रमण मुक्त कराया जायेगा.
इंडिया टुडे से बातचीत में राजस्व बोर्ड के डिप्टी सेक्रेटरी संजीव कुमार कहते हैं, "सात से आठ हजार एकड़ जमीन तो अभी हमारे पास है ही, जिसमें एक हजार एकड़ में तो बेतिया राज का कैंपस ही है. इस तरह मानें तो लगभग आधी जमीन अतिक्रमणकारियों के कब्जे में है."
एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, 2017 में चंपारण में बेतिया राज की व्यावसायिक जमीन का आकलन कराया गया था, जिसमें 1507 एकड़ में से राज के पास सिर्फ 393 एकड़ बची थी. हालांकि यह जमीन ऐसी है जिस पर लोग बरसों से बसे हैं.

कहा जाता है कि कोर्ट ऑफ वार्ड्स और अतिक्रमण की वजह से चंपारण में परियोजनाओं के लिए जमीन आवंटित करने में हमेशा दिक्कत होती है. बेतिया में मेडिकल कॉलेज की स्थापना को लेकर भी यह दिक्कत आई और आखिरकार इसके लिए अभियान चलाने वाले लोग अदालत में गये.
राजस्व बोर्ड के डिप्टी सेक्रेटरी संजीव कुमार कहते हैं कि अब इस बदलाव के बाद चंपारण में परियोजनाओं के लिए जमीन का संकट खत्म हो जायेगा.
बुल्डोजर राज आ जायेगा : वीरेंद्र प्रसाद गुप्ता, माले विधायक
जहां इस विधेयक को विधानसभा में ध्वनि मत से पारित किया गया, वहीं भाकपा माले के सिकटा विधायक वीरेंद्र प्रसाद गुप्ता इसका विरोध कर रहे हैं. चंपारण के इलाके से आने वाले गुप्ता इसे खतरनाक और बुलडोजर राज लाने वाला बता रहे हैं.
वे कहते हैं, "जमींदारी खत्म होने पर जहां आम रैयतों को जमीन का अधिकार मिल गया, मगर बेतिया राज में कोर्ट ऑफ वार्ड्स खत्म होने पर भी वहां के रैयतों को जमीन पर उस तरह का अधिकार नहीं मिलने जा रहा. क्योंकि उस वक्त तक चंपारण में केडेस्ट्रल सर्वे पूरा नहीं हुआ था, ऐसे में वहां के किसानों पर 1885 के रैयतों के स्थायी बंदोबस्ती का नियम लागू नहीं हुआ. इसलिए अभी भी बेतिया राज की जमीन पर रैयतों को 11 महीने की ही बंदोबस्ती की जाती है."

वे कहते हैं, "अभी भी यह जमीन बिहार सरकार के भू राजस्व कानून से संचालित नहीं होती है. अभी का कानून तो उससे भी खतरनाक है. इसमें सभी पट्टे की मान्यता खत्म, तमाम जमीन का मालिक डीएम, विशेष पदाधिकारी और राजस्व बोर्ड होगा, इसका अंतिम निर्णायक राजस्व बोर्ड होगा, किसान किसी और अदालत में नहीं जा सकता. डीएम को विशेषाधिकार कि सदभावना से किसी की जमीन को ले सकता है या छोड़ सकता है."
वे आगे बताते हैं, "यह काफी खतरनाक है. वहां बड़ी संख्या में ऐसी जमीन है, जिस पर लोग सैकड़ों साल से बसे हैं, अब उन्हें उजाड़े जाने का अभियान चल रहा है. ऐसे 8500 लोगों पर अतिक्रमणवाद का नोटिस जारी किया गया है, हमारे लिए असली चिंता का विषय यही है कि सरकार इस कानून के नाम पर गरीबों को उजाड़कर कंपनियों और कारोबारियों को जमीन न दे दे."
बेतिया के बुद्धा कॉलोनी में रहने वाले संजय यादव कहते हैं, "2017 में भी हमारे इलाके को अतिक्रमण मुक्त कराने के लिए 80 घरों पर बुल्डोजर चलाकर हटाने की कोशिश की गई थी. हमारे संघर्ष के बाद वह रुका. अभी दो महीने पहले फिर से नोटिस जारी की गई है और माइकिंग कर कहा गया है कि आप लोग अपने घर हटा लीजिये. जबकि यहां गंडक के कटाव के बाद 1999 में ही लोग आकर बसे थे, तत्कालीन डीएम के आदेश पर."
यह सवाल पूछने पर राजस्व बोर्ड के डिप्टी सेक्रेटरी संजीव कुमार कहते हैं, "हमलोग ऐसा कुछ नहीं करने जा रहे. जो लोग अनाधिकृत रूप से रह रहे हैं या खेती कर रहे हैं, अगर वे बंदोबस्ती की राशि दे देते हैं तो उन्हें नहीं हटाया जायेगा. हम बस अतिक्रमण की वजह से हो रहे रेवेन्यू लॉस को खत्म करने की कोशिश कर रहे हैं."
बेतिया राज की संगीत की विरासत
बेतिया राज की पहचान सिर्फ संपत्ति से नहीं है. इसकी सबसे महत्वपूर्ण पहचान यहां का ध्रुपद घराना है. बादशाह चौबे लिखते हैं, "बेतिया राजा गज सिंह अपने साथ यहां के गायक चमारी मिश्र मल्लिक और बीनकार कंगाली मिश्र मल्लिक को ले गये थे. इन मल्लिकों के वंशज आज भी बेतिया में हैं. इनका परिवार ध्रुपद संगीत का जानकार था. इनसे महाराज आनंद किशोर सिंह ने भी ध्रुपद की शिक्षा ली."
बेतिया राज के दरबार में कृतार्थ दुखी, गोपाल, भर्तृहरि, फकीरचंद और गोरख जैसे संगीतकार रहा करते थे. यहां भारत के अलग-अलग इलाकों से खयाल, ठुमरी, छप्पा और ध्रुपद के गायक आया करते थे.