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फरवरी में 29 तारीख जुड़ने की कहानी यानी आधुनिक कैलेंडर के विकास का पूरा इतिहास!

एक जमाने में फरवरी की आखिरी तारीख 24 या 25 हुआ करती थी और फिर बीच में इस महीने को 30 दिन का भी बनाया गया

आधुनिक कैलेंडर बनाने वाले पोप ग्रेगरी और पुराना ग्रेगोरियन कैलेंडर
आधुनिक कैलेंडर बनाने वाले पोप ग्रेगरी और पुराना ग्रेगोरियन कैलेंडर
अपडेटेड 29 फ़रवरी , 2024

बचपन में हम सभी ने जब पहली बार कैलेंडर के बारे में पढ़ा-जाना था तो 'फरवरी' ही वह महीना जिसने हमें सबसे ज्यादा आकर्षित किया. वजह यही थी कि इस महीने बाकियों की तरह 30 और 31 दिन का चोंचला नहीं था. और तो और, हर चौथे साल इस महीने आती थी 29 तारीख, जो उसके बाद फिर 4 साल बाद ही दिखनी थी और आज फिर वही मौका है.

यानी 2024 है लीप ईयर.  ऐसे साल कई आम सवाल सहज ही मन में आते हैं. मसलन, फरवरी ही क्यों? लीप डे को जनवरी की शुरुआत में 0 करके भी तो लिखा जा सकता था, या साल के अंत में ही एक 32 दिसंबर का डेट बना दी जाती. फिर यह अनगढ़ तरीके से फरवरी के 28 को 29 करने का क्या मतलब?

ये सवाल अपने में खगोल विज्ञान का लंबा इतिहास समेटे हैं. इसे जानते हुए पता चलता है कि कैसे गणित आपकी दिनचर्या में घर करता है और किसी सभ्यता के विकास में अहम भूमिका भी निभाता है.

कैलेंडर में दिनों को सेट करने की तकनीक को इंटरकैलेशन कहते हैं और हर सभ्यता (जब उसे वर्ष का भान हुआ) अपने-अपने हिसाब से इंटरकैलेशन करते आई है. वजह थी कि चांद और सूरज की दिशा में बदलाव और मौसम के पैटर्न को समझना और लोगों को उसके लिए तैयार करना. प्राचीन मिस्र का कैलेंडर वर्ष 30 दिनों वाले 12 महीनों से बना था, जिसमें हर साल के अंत में पांच इपगोमेना (दिन) जोड़े जाते थे. इस्लाम के लूनर कैलेंडर यानी चंद्रमा की गति पर आधारित कैलेंडर में 30 साल का चक्र होता है जिसमें से 11 सालों के महीने में एक अतिरिक्त दिन जोड़ा जाता है.

लेकिन अब का मॉडर्न लीप डे और ईयर जिसे हम सभी फॉलो करते हैं, इसका इतिहास जानने के लिए हमें प्राचीन रोम में जाना पड़ेगा. रोम के पहले राजा रोमुलस ने 738 ईसा पूर्व के आसपास रोमन रिपब्लिकन कैलेंडर की स्थापना की, जिसमें यह आदेश दिया गया कि साल मार्टियस (जिसे अब मार्च कहा जाता है) से शुरू होगा. इसमें महीने केवल 10 होंगे और चूंकि सर्दियों में लोग तब काम नहीं करते थे, इसलिए इसमें सर्दियों का हिसाब नहीं रखा गया. लेकिन इसमें भी भरपूर अनियमितताएं थीं.

तब रोमन साम्राज्य ने अन्य कैलेंडरों के साथ अपने कैलेंडर के बीच फर्क देखा और 7वीं शताब्दी ईसा पूर्व में, दूसरे रोमन राजा, नुमा पोम्पिलियस ने फैसला किया कि अब सर्दियों के महीनों की औपचारिक गिनती शुरू करने का समय आ गया है. इस प्रकार इयान्युरियस (जनवरी) और फेब्रुअरियस (फरवरी) को कैलेंडर वर्ष के अंत में जोड़ा गया. ध्यान रहे, अंत में - इसका मतलब यह था कि अभी भी साल मार्च से ही शुरू हो रहा था और फरवरी साल का अंत था, न कि आज की तरह दूसरा महीना.

इन दो महीनों को जोड़ने के बाद भी, रोमन कैलेंडर समय-समय पर ऋतुओं का सटीक हिसाब नहीं दे पाता था, इसलिए लगभग हर दो साल में, रोमन कौंसिल अपने समय को सूर्य के साथ मिलाने के लिए 27 या 28 दिन का एक 13 वां महीना - मर्सेडोनियस जोड़ देती थी. यह 13वां महीना जोड़े जाने का नियम ऐसा था कि इसे 23 फरवरी के बाद ही डाला जाता था और इसकी वजह से फरवरी में पांच दिन कम हो जाते थे. ऐसा इसलिए किया जाता था ताकि 23 फरवरी को एक वार्षिक त्योहार टर्मिनलिया के उत्सव का तुरंत पालन किया जा सके, जो सीमाओं के प्राचीन रोमन देवता टर्मिनस के सम्मान में मनाया जाता है.

फिर आए 'एट टू ब्रूटस' वाले जूलियस सीज़र. इन्होंने एक नए सौर कैलेंडर का आदेश दिया, जिसे ग्रीक एस्ट्रोलॉजर सोसिजेन्स की मदद से बनाया गया था. इसे कहा गया जूलियन कैलेंडर. मजेदार बात यह है कि 45 ईसा पूर्व में जूलियन कैलेंडर लागू होने से पहले रोमन साम्राज्य में 445 दिनों का एक साल रखा गया और इसे कहा गया अल्टीमेट एनस कन्फ्यूजनिस यानी भ्रम का आखिरी वर्ष. इस नए कैलेंडर का गणित यह था कि हर साल ठीक 365 दिन और 6 घंटे होने चाहिए, और हर चार सालों में वह अतिरिक्त छह घंटे कुल मिलाकर एक अतिरिक्त दिन होंगे. मतलब लीप ईयर.

थोड़ा अजीब लगेगा मगर सीज़र के कैलेंडर में 23 फरवरी के बाद 24 फरवरी को 48 घंटे का कर दिया गया. चूंकि यह दोहरा दिन मार्च की शुरुआत से पहले छठे दिन पड़ता था, इसलिए इसे बाइसेक्स्टस के नाम से जाना जाने लगा और कुछ संस्कृतियां आज भी लीप ईयर को बाइसेक्सटाइल ईयर ही कहती हैं.

जूलियन कैलेंडर से ही 1 जनवरी से साल को शुरू करने की शुरुआत हुई थी. रोमन साम्राज्य फैलता गया और सदियों तक पूरे यूरोप में जूलियन कैलेंडर ही इस्तेमाल में लाया जाता रहा. लेकिन इसमें भी सबकुछ परफेक्ट नहीं था. हर चार साल में एक लीप डे डालने का इसका नियम अभी भी सोलर ईयर के हिसाब से सालाना 11 मिनट ज्यादा होता था.

इसी वजह से 16वीं शताब्दी तक जो असली सोलर साइकिल था उससे जूलियन कैलेंडर के बीच 10 दिनों का अंतर पैदा हो गया. ऐसा होने पर तत्कालीन पोप ग्रेगरी थर्टीन्थ ने 1570 के दशक में एक नया कैलेंडर पेश किया, जिसे ग्रेगोरियन कैलेंडर कहा गया. ये वही कैलेंडर है जिसे आप और हम आज तारीख देखने के लिए इस्तेमाल में लाते हैं. इसी ग्रेगोरियन कैलेंडर से हर चार साल पर लीप ईयर की व्यवस्था शुरू हुई. इसका नियम ऐसा रखा गया कि वही सेंचुरियल (जिस साल के अंत में 00 आता हो जैसे 1500, 1600 आदि) लीप ईयर होगा जो 400 से डिविजिबल या विभाज्य होगा यानी 400, 800, 1200, 1600, 2000 तो लीप ईयर होंगे, मगर 100, 200, 300 या 2100 लीप ईयर नहीं होगा.

टाइम मैगजीन में चैड डी गुज़मैन की रिपोर्ट के मुताबिक, हर किसी को ग्रेगोरियन कैलेंडर अपनाने की जल्दी नहीं थी. स्वीडन ने जूलियन और ग्रेगोरियन कैलेंडर के बीच भी आगे-पीछे स्विच किया, जिसकी वजह से 1712 में अतिरिक्त दो दिनों की आवश्यकता हो गई और उस साल स्वीडन में 30 फरवरी की तारीख भी लोगों ने अपने कैलेंडर पर देखी.

इसी बीच, पोप के साथ तनावपूर्ण संबंधों की वजह से यूके और उसके अमेरिकी उपनिवेशों को अधिक सटीक ग्रेगोरियन कैलेंडर को पूरी तरह से अपनाने में और वक्त लगा. लेकिन आख़िरकार उन्होंने भी इसे अपना लिया. 1752 में, ब्रिटेन में कैलेंडर (न्यू स्टाइल) एक्ट लागू किया गया, जिससे अंग्रेजों के लिए नया साल 25 मार्च की जगह 1 जनवरी से शुरू होने लगा. चूंकि कई देश ब्रिटेन के उपनिवेश थे (जिनमें भारत भी शामिल था) तो वहीं से यह कैलेंडर दुनियाभर में फ़ैल गया और अंतर्राष्ट्रीय मानक बन गया.

यह तो पुरानी बातें थीं. समय के माप को और स्पष्ट करने के लिए बात लीप सेकंड की होने लगी थी. इसके बारे में सबसे पहले 1972 में बात शुरू की गई थी और कहा जा रहा था कि यह सोलर साइकिल और कैलेंडर ईयर के बीच समन्वय बिठाने में और भी बेहतर है. हालांकि जल्दी ही वैज्ञानिकों को समझ आ गया कि टाइमकीपिंग एक सटीक विज्ञान नहीं है और इसके पीछे इतनी सिरदर्दी पालना सही नहीं. इसीलिए 2022 में, जब दुनिया के अग्रणी मेट्रोलॉजी निकाय ने 2035 तक लीप सेकंड को पूरी तरह से छोड़ने का फैसला कर लिया.

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