scorecardresearch

महज़ डेढ़ दिन के आंदोलन में ढह गई सरकार! क्या नेपाल बांग्लादेश के रास्ते पर है?

नेपाल की जेन-ज़ी आबादी के आंदोलन के सामने झुकते हुए प्रधानमंत्री केपी ओली इस्तीफा दे चुके हैं लेकिन विरोध प्रदर्शन थमता नहीं दिख रहा है

सोशल मीडिया बैन के खिलाफ नेपाल में भड़का जेन-ज़ी का आंदोलन
अपडेटेड 9 सितंबर , 2025

जब यह खबर लिखी जा रही है, नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने इस्तीफा दे दिया है. इसके बावजूद काठमांडू की सड़कों पर अराजकता फैली है. इन आंदोलनकारियों से सहानुभूति रखने वाले नेपाल के पुराने आंदोलनकारी बृहद नेपाल आंदोलन संगठन के सदस्य डॉ. अनूप सुवेदी सब अपनी आंखों से देख रहे हैं.

अटकलबाजियों के बीच सुवेदी इंडिया टुडे से बातचीत में इस बात की पुष्टि करते हैं कि ओली का इस्तीफा हो गया, मगर उन्होंने साथ ही यह भी कहा कि इस बात का आंदोलनकारियों पर कोई असर नहीं है, उन्हें कोई रोकने वाला नहीं है. सुवेदी के मुताबिक काठमांडू के मेयर बालेंद्र सिंह का इन आंदोलनकारियों पर खूब असर है, मगर वे इन्हें कितना समझाते हैं और कब, यह देखना है.

फिलहाल आंदोलनकारियों को कोई समझाने की स्थिति में नहीं है और अभी भी ये एक नेता के घर से दूसरे नेता के घर जा रहे हैं. अब राजनीतिक दलों के मझोले नेता भी इनके आक्रमण की जद में हैं. हां,  नागरिक सरकार की चर्चाएं सुनी जा रही है. 

सुवेदी और नेपाल के दूसरे पत्रकारों और जानकारों से हमने यह जानने की भी कोशिश की है कि आखिर ऐसी क्या चूक हुई कि महज डेढ़ दिन के आंदोलन में नेपाल के पीएम केपी शर्मा ओली को इस्तीफा देना पड़ा और नेपाल के युवाओं ने देश के तकरीबन सभी बड़े नेताओं के घर पर हमला बोल दिया.

नेपाल का काला सोमवार

“कल की गोलीबारी में मरने वाले 19 लोग हमारे बच्चे थे. उनकी उम्र 12 साल से लेकर अधिकतम 28  साल की थी. सरकार को उनके साथ संवेदनशीलता से पेश आना चाहिए था. बिल्कुल अपने घर के बच्चों की तरह, जैसे उनके घर के बच्चे किसी बात पर रूठ जाते हैं, नाराज हो जातें हैं. उन्हें हम जैसे संभालते हैं, वैसे ही. मगर कल जो काठमांडू में घटा वह हमारे देश नेपाल के इतिहास का क्रूरतम अध्याय  साबित हुआ है. इससे पहले भी नेपाल में कई आंदोलन हुए है. हमने भी अपने दौर में आंदोलन में हिस्सेदारी की है, मगर कभी ऐसा दमन नहीं देखा. केपी शर्मा ओली में स्पष्ट रूप से अभिभावकत्व की चेतना का अभाव दिखा.” नेपाल के प्रतिष्ठित लेखक और संस्कृतिकर्मी रमेश रंजन जब यह कहते हैं, तो उनके शब्दों में नेपाल में सोमवार आठ सितंबर को घटी घटना की क्रूरता और इसे संभालने में वहां की सरकार की विफलता दोनों साफ नजर आती है. 

(नेपाल में Gen-Z विद्रोह की अगुवाई करने वाले सूदन गुरुंग कौन हैं?)

रेगूलेशन के नाम पर 26 सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर लगे प्रतिबंध के बाद काठमांडू में जेन-ज़ी छात्र-छात्राओं का विरोध प्रदर्शन, प्रतिबंध हटने के बाद मंगलवार यानी 9 सितंबर को भी जारी है. गृह मंत्री और कृषि मंत्री के इस्तीफे के बावजूद युवाओं का गुस्सा शांत नहीं हुआ और आखिर में पीएम ओली को भी इस्तीफा देना पड़ा. इससे पहले मंगलवार को यह प्रदर्शन देश के अलग-अलग इलाकों में फैल गया था और कर्फ्यू के बावजूद सभी बड़े नेताओं के घरों, मुख्यमंत्री कार्यालयों पर हमले हो रहे थे. आंदोलन का स्वरूप इतना अराजक हो गया कि नेपाल के लोगों को अपना देश उसी राह पर जाता नजर आने लगा, जिस राह पर कुछ रोज पहले बांग्लादेश था.

सरकार-प्रशासन कहां असफल हुआ

जानकार मानते हैं नेपाल सरकार से यह आकलन करने में बड़ी चूक हो गई कि सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगाने से स्थिति इतनी अराजक हो सकती है. रमेश रंजन कहते हैं, “सरकार को समझना चाहिए था कि महज तीन करोड़ की आबादी वाले देश नेपाल में सिर्फ फेसबुक से 1.5 करोड़ यूजर जुड़े हैं. इसके  अलावा दूसरे प्लेटफार्म पर भी इनकी बड़ी संख्या है. नेपाल के युवा पढ़ाई-लिखाई और रोजगार के सिलसिले में बड़ी सख्या में परदेश जाते हैं, उनके परिवार का जुड़ाव उनसे वाट्सएप से ही रहता है. यह ठीक है कि अदालत के आदेश की वजह से इन पर प्रतिबंध लगाया गया. मगर यह सब सिलसिलेवार तरीके  से किया जाना चाहिए था. एक झटके में प्रतिबंध लगाने से सरकार ने सोशल मीडिया कंपनी को कम अपने लोगों को अधिक परेशान किया. जेन-ज़ी पहले से ही कई मसलों को लेकर सरकार से नाराज थी, ऐसे में इस घटना ने आग में घी डालने का काम किया. यह सरकार की रणनीतिक चूक साबित हुई.”         

आंदोलनकारियों की भारी भीड़

वरिष्ठ पत्रकार चंद्रकिशोर भी इसे नेपाल सरकार की चूक मानते हैं. वे कहते हैं, “सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर लगे प्रतिबंध को नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक की तरह देखा जा रहा था. सरकार ने रेगूलेशन के नाम पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पाबंदी लगाने की कोशिश की थी. लोकतंत्र में लोगों का सवाल पूछने और शांतिपूर्ण प्रदर्शन का हक सुनिश्चित रहना चाहिए. कल सोमवार को काठमांडू में सरकार इसे सुनिश्चित करने में विफल रही.”

हालांकि अंदरखाने में यह खबर भी तैर रही थी कि नेपाल की पूर्व राष्ट्रपति विद्यादेवी भंडारी फिर से राजनीति में सक्रिय होना चाह रही हैं. वे अपनी पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल यूनिफाइड- मार्कसिस्ट लेनिनिस्ट  की दोबारा सदस्यता लेने जा रही है. जबकि इसी पार्टी के नेता नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली उनके इस फैसले से सहज नहीं हैं. वे इसे अपने एकाधिकार पर खतरे के तौर पर देख रहे हैं. विद्यादेवी की ज्वाइनिंग सोमवार को होनी थी और इसको लेकर सोशल मीडिया पर तगड़ी बहस होने  की संभावना थी. जानकार मानते हैं कि संभवतः इसी बहस से बचने के लिए आनन-फानन में सोशल मीडिया को प्रतिबंधित किया गया, जिसके बाद यह गुस्सा फूटा.

आक्रोश की जड़ में भ्रष्टाचार और सत्ता के लिए नेताओं की मिलीभगत भी है 

आंदोलनकारियों के हाथों में 'स्टॉप करप्शन, नॉट कनेक्शन' की तख्तियां बता रही थीं कि उनका गुस्सा मौजूदा सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ है. जेन-ज़ी आंदोलन के समर्थक और नेपाल के संगठन बृहद नेपाल आंदोलन  के सदस्य डॉ. अनूप सुवेदी कहते हैं, “आंदोलनकारी युवाओं का गुस्सा सिर्फ सोशल मीडिया प्लेटफार्म के प्रतिबंध को लेकर नहीं था. उनकी नाराजगी मौजूदा सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ भी थी. वे देख रहे थे कि मंत्रियों के बच्चे कैसा विलासितापूर्ण जीवन जी रहे हैं. लोकतंत्र लागू होने के बाद सरकारें म्यूजिकल चेयर की तरह हो गई हैं. बड़े नेता बारी-बारी से बदल-बदलकर पीएम बन रहे हैं (पुष्प कमल दहल और केपी शर्मा 3-3 बार पीएम बन चुके हैं.) वे अब सिस्टम में बदलाव चाहते हैं.” 

सुवेदी के मुताबिक, “अभी भी वक्त है कि नेपाल के सभी बड़े राजनीतिक दलों के नेता अपनी पार्टी के युवाओं के  लिए जगह खाली कर दें. फिर नए नेता मिलकर बहुदलीय सरकार बनाएं. मौजूदा आंदोलन का समाधान इसी में है.”

हालांकि इस बीच यह भी कहा जा रहा है कि नेपाल के राजतंत्र विरोधी और लोकतंत्र समर्थक आंदोलनकारी भी इस आंदोलन में शामिल हो गए हैं और वे इसे अराजक बना रहे हैं. कहा यह भी जा रहा है कि नेपाल का यह आंदोलन अब उस दिशा में जा रहा है, जिस दिशा में बांग्लादेश का आंदोलन गया था. जानकार बताते हैं कि चेहरा विहीन इस आंदोलन का पैटर्न वही है. इनके मुताबिक इस आंदोलन का तात्कालिक नतीजा भी यही हो सकता है कि देश के स्थापित राजनीतिक दलों और नेताओं को शासन से हटा दिया जाए. इस साल मार्च  में नेपाल में राजतंत्र समर्थक आंदोलन शुरू हुआ था, उसके पीछे भी यही वजह बताई जा रही थी.

क्या राजतंत्र समर्थक  हैं आंदोलनकारी

डॉ. सुवेदी इस आरोप को नकारते हैं. उनके मुताबिक, “आंदोलनकारी युवा लोकतंत्र विरोधी नहीं हैं. न ही वे धर्मनिरपेक्षता के विरोधी हैं. ये बस लोकतांत्रिक व्यवस्था में पारदर्शिता चाहते हैं. ये थोड़े नातजुर्बेकार हैं और पुलिस की गोलीबारी की वजह से आंदोलन अराजक हो रहा है. हां, इस बात का खतरा जरूर है कि आंदोलन बांग्लादेश की राह पर जा रहा है. इसे रोका जा सकता है, मगर रोकने की क्षमता अब सरकार और राजनीतिक दलों में ही दिखती है. उन्हें अब जगह खाली कर देना चाहिए.”  

इन घटनाओं के बाद से नेपाल के अखबार ओली से इस्तीफे की मांग करने लगे थे. देश पर सैन्य शासन का खतरा भी मंडरा रहा था. ओली के इस्तीफे के बाद क्या नेपाल में आंदोलन थमेगा यह बड़ा  सवाल है.

रमेश रंजन कहते हैं, “हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि नेपाल एक छोटा-सा देश है और यह वैश्विक व क्षेत्रीय शक्तियों का रणनीतिक मैदान है. वे क्या चाहते हैं, सब उसी पर निर्भर है. हालांकि अभी भी सरकार और राजनेताओं को सोचना होगा कि देश उस स्थिति में न चला जाए, जहां से वापसी मुमकिन न हो.”

गीतकार और संस्कृतिकर्मी धीरेंद्र प्रेमर्शी कहते हैं, “देश में पहले कभी ऐसी क्षति नहीं हुई, जैसी सोमवार को महज तीन-चार घंटों में हो गई. फिर भी मेरा मानना है कि सरकारी प्रॉपर्टी को बचाने से जरूरी मानवता और लोकतंत्र को बचाना है.” चंद्रकिशोर कहते हैं, “स्थिति और अराजक न हो, हम बांग्लादेश की स्थिति में न जाएं, इसके लिए तत्काल जो मुमकिन हो करना चाहिए. अब ओली के इस्तीफे के बाद यह देखना है कि अगली सरकार लोकतांत्रिक तरीके से बनती है, या संविधान को किनार करने वाले तरीकों से.” चंद्रकिशोर की बातों में नेपाल के लोकतंत्र समर्थकों का दर्द छिपा नजर आता है.

Advertisement
Advertisement