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नेपाल और बांग्लादेश में एक जैसा विद्रोह! भारत सहित साउथ एशिया के लिए क्या है सबक?

शेख हसीना और के.पी. शर्मा ओली की हुकूमतों के पतन से दक्षिण एशिया की एक साझा हकीकत उभरकर सामने आती है : बेचैन नौजवान जड़ें जमाए बैठे सत्ताधारी कुलीनों के खिलाफ उग्र रुख अख्तियार कर रहे हैं

Nepal protests
नेपाल में Zen-Z के विद्रोह के बाद कई सरकारी भवनों में आग लगा दी गई
अपडेटेड 12 सितंबर , 2025

युवाओं का तत्काल हरकत में आना, विरोध प्रदर्शनों का कुछेक दिनों के भीतर जंगल की आग की तरह फैलना, सरकार की कार्रवाई में प्रदर्शनकारियों का मारा जाना और आखिरकार चुनी हुई सरकार का धराशायी होना. नेपाल में केपी शर्मा ओली की सरकार के पतन के पीछे घटनाओं का जो सिलसिला है, वह हैरतअंगेज तौर पर महज साल भर पहले बांग्लादेश में शेख हसीना की हुकूमत के पतन से काफी मिलता-जुलता है.

दोनों देशों में खलबली मामूली-से दिखने वाले नीतिगत फैसलों से शुरू हुई और भ्रष्टाचार, विशेषाधिकार और निरंकुशता के खिलाफ कहीं ज्यादा गहरे आक्रोश की अभिव्यक्ति में बदल गई.  दोनों का अंत अपने-अपने प्रधानमंत्रियों को सत्ता से बेदखल करने, सेना के आगे आने, और समूची राजनैतिक व्यवस्था की चूलें हिल जाने के साथ हुआ.

ढाका में आरक्षण, काठमांडू में सोशल मीडिया पर रोक

बांग्लादेश में पहली बार छात्र जुलाई 2024 में 1971 की लड़ाई के योद्धाओं के वंशजों के लिए सिविल सेवाओं में 30 फीसद आरक्षण के खिलाफ ढाका की सड़कों पर उतरे. उनके लिए यह भाई-भतीजावाद और हसीना की अवामी लीग पार्टी के वफादारों को दिया गया बेजा फायदा था.

नेपाल में चिंगारी इस 4 सितंबर को भड़की जब संचार मंत्री पृथ्वी सुब्बो गुरुंग ने देश में रजिस्ट्रेशन नहीं करवाने के लिए 26 सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों पर पाबंदी लगाने की घोषणा की. जाहिरा तौर पर यह उन्हें नियम-कायदों के दायरे में लाने के लिए था, लेकिन व्यापक रूप से इसे अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले के तौर पर देखा गया. इस पाबंदी से कारोबारों, निर्भर परिवारों को बाहर से मिलने वाले धन, और युवा लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी में खलल पड़ा. कुछ ही घंटों के भीतर “नेपो किड्स” का मखौल उड़ाने वाले मीम सड़कों पर प्रदर्शनों में बदल गए.

दोनों ही मामलों में बहुत छोटी-सी तकलीफ ने व्यवस्थागत असंतोष को उघाड़कर रख दिया और यह बढ़कर राष्ट्रव्यापी आंदोलन में बदल गई.

युवाओं के हाथ में कमान

बांग्लादेश में स्टूडेंट्स अगेंस्ट डिस्क्रिमिनेशन नाम के धड़े ने प्रदर्शनों की अगुआई की. उन्होंने ज्यादातर पूरे ढाका के विश्वविद्यालयों के छात्रों को लामबंद किया और फिर इस्लामी कट्टरपंथी धड़े और विपक्षी दल भी इसमें आ जुड़े.

नेपाल में Zen Z ने कमान संभाली. इस आयु वर्ग की 20 फीसद आबादी और उनमें से 90 फीसद की इंटरनेट में गहरी पैठ के साथ Zen Z को ‘यूथ्स अगेंस्ट करप्शन’ के बैनर तले तकरीबन देखते ही देखते ही लामबंद कर लिया गया. उनमें तालमेल बिठाने का काम एक्टिविस्ट सुदान गुरुंग की अगुआई में हामी नेपाल नाम का एनजीओ कर रहा था. स्कूलों और कॉलेजों के छात्र विद्रोह का चेहरा बन गए.

ढाका और काठमांडू दोनों में सोशल मीडिया की केंद्रीय भूमिका थी : बांग्लादेश के छात्रों ने फेसबुक और व्हाट्सऐप का इस्तेमाल किया, तो नेपाली छात्रों को टिकटॉक, वीपीएन, और वाइबर का सहारा था.

नई रणभूमि सोशल मीडिया

बांग्लादेश और नेपाल दोनों में सोशल मीडिया न केवल संचार के साधन बल्कि प्रतिरोध के अग्रिम मोर्चे के प्रतीक के तौर पर उभरा. बांग्लादेश के आंदोलन के दौरान हजारों युवा प्रदर्शनकारियों ने अपनी प्रोफाइल तस्वीरों को लाल रंग में बदल लिया, जो हैरतअंगेज भावभंगिमा थी और मृत प्रदर्शनकारियों के प्रति एकजुटता और साथ ही हसीना की कथित अधिनायकवादी हुकूमत के खिलाफ नाफरमानी भी दर्शाती थी. छोटी-सी ऑनलाइन कार्रवाई के तौर पर शुरू हुआ यह कृत्य देखते ही देखते फेसबुक, व्हाट्सऐप और इंस्टाग्राम पर ठाठे मारते लाल समुद्र में बदल गया, जिसकी वजह से यह आंदोलन ढाका के तटों से बहुत दूर तक दिखाई देने लगा.

नेपाल में “नेपो किड्स” मुहावरा ऑनलाइन लोगों को जोड़ने का नारा बन गया. छात्रों ने सियासतदानों के बच्चों की आलीशान जीवनशैली का मखौल उड़ाया—टिकटॉक और वाइबर ग्रामीण गरीबी के बरअक्स रखी गई लक्जरी कारों, विदेशी छुट्टियों और महंगे गजट की तस्वीरों से भर गए. इस मुहावरे में विकास के लिए तय सरकारी पैसे की लूट से राजनैतिक कुलीनों की जेबें भरे जाने के खिलाफ आक्रोश भी समाहित था.

काठमांडू निवासी वरिष्ठ पत्रकार नम्रता शर्मा कहती हैं, “सोशल मीडिया पर पाबंदी इसलिए लगाई गई क्योंकि राजनेताओं को बेनकाब करने के लिए इन प्लेटफॉर्मों का बहुत ज्यादा इस्तेमाल किया जा रहा था.” विडंबना यह है कि सोशल मीडिया पर पाबंदी लगाकर असहमति को दबाने की कोशिश ने ही विरोध प्रदर्शनों को तेज कर दिया, जब युवाओं ने अपने विरोध में तालमेल के लिए वीपीएन और वैकल्पिक ऐप का ही सहारा लिया.

युवा बेरोजगारी : साझा संकट

दोनों विद्रोहों के पीछे एक ज्यादा ढांचागत तकलीफ छिपी है : युवाओं की आर्थिक हताशा. नेपाल में, जहां बाहर से भेजा गया धन अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा है, कुल बेरोजगारी 12 फीसद के आसपास है, लेकिन युवा बेरोजगारी 20 फीसद से ज्यादा है, जो एक पीढ़ी को मोहभंग और रोजगारों की कमी के बीच बेसहारा छोड़ देती है. उस देश में जहां आबादी का तकरीबन पांचवां हिस्सा Zen Z में आता है, संभावनाओं की कमी से न केवल भ्रष्टाचार के खिलाफ बल्कि उत्थान के वादों को पूरा करने में राज्यसत्ता के नाकारापन के खिलाफ भी गुस्सा पनपता है.

बांग्लादेश भी अपनी मजबूत आर्थिक वृद्धि की प्रतिष्ठा के बावजूद ऐसे ही विरोधाभास से दोचार है. कुल बेरोजगारी की दर बनिस्बतन कम 4-5 फीसद है, लेकिन युवा बेरोजगारी सर्वे के अपने-अपने अनुमानों के मुताबिक 17 फीसद और 40 फीसद के बीच है. 

शिक्षित स्नातकों की भरमार के भी नई नौकरियों की तलाश में होने के साथ सालों से हताशा का अंबार जमा होता रहा. 1971 की जंग के योद्धाओं के लिए कोटा प्रणाली को, जिसने 2024 के आंदोलन की चिंगारी सुलगाई, आम युवाओं के लिए मौकों के और सिकुड़ने के तौर पर देखा गया. इस तरह ढाका और काठमांडू दोनों में बेरोजगारी विद्रोहों की अघोषित पृष्ठभूमि बन गई- यानी ऐसी साझा पीढ़ीगत तकलीफ जिसने प्रदर्शनों को उनकी ऊर्जा और विराट पैमाना दिया.

छोटी-सी चिंगारी बनी दावानल

बांग्लादेश का आरक्षण आंदोलन, जो शुरुआत में नौकरियों को लेकर था, बढ़कर भ्रष्टाचार और हसीना की लंबी हुकूमत के खिलाफ तीखे गुस्से में बदल गया. आर्थिक तंगी और खानदानी सियासत ने हफ्तों की खलबली को खुराक दी, और आखिरकार सत्ता पर उनकी 15 साल की पकड़ को धूल-धूसरित कर दिया.

नेपाल में छोटे पैमाने ने रफ्तार कई गुना बढ़ा दी. पाबंदी के कुछेक घंटों के भीतर विरोध प्रदर्शनों ने सभी 77 जिलों को अपनी चपेट में ले लिया. पहले दिन की शाम होते-होते 20 प्रदर्शनकारी, जिनमें ज्यादातर छात्र थे, मारे गए, जिससे अशांति और फैल गई. कैबिनेट मंत्रियों ने एक के बाद एक इस्तीफे दिए, और दूसरे दिन तक खुद ओली ने गद्दी छोड़ दी. 10 सितंबर को मृतकों का आंकड़ा 30 था और बढ़ रहा था.

शर्मा ने कहा, “गलतफहमी में न रहें. सोशल मीडिया पर प्रतिबंध सरकार के लिए मौत की घंटी था. युवाओं की हताशा लंबे समय से जमा हो रही थी. वे देख सकते थे कि कैसे सार्वजनिक धन से राजनीतिज्ञों के परिवारों की आलीशान जीवनशैली का खर्च उठाया जा रहा था, जबकि वे तकलीफें झेल रहे थे.”

बर्बर दमन, खून से सराबोर नतीजे

बांग्लादेश में हसीना सरकार ने प्रदर्शनकारियों के खिलाफ बर्बर बल प्रयोग किया. सरकारी गिनती के मुताबिक जुलाई-अगस्त 2024 में 1,000-1,500 प्रदर्शनकारी मारे गए. इन मौतों ने असहमति को दबाने के बजाय आंदोलन को और उग्रता की राह पर धकेल दिया, भीड़ तब तक बढ़ती गई जब तक कि ढाका हुकूमत के हाथों से बाहर नहीं चला गया. ढाका की तरह नेपाल में भी मौतें एकजुटता का नारा बन गईं, जिसने विद्रोह को तोड़ने के बजाय और तीव्र कर दिया.

दोनों आंदोलनों ने राज्यसत्ता के मर्म पर निशाना साधा. बांग्लादेश में प्रदर्शनकारियों ने हसीना के सरकारी आवास गणभबन पर धावा बोल दिया, उसे लूटा और आग के हवाले कर दिया. मंत्रियों के घरों में आग लगा दी गई, संसद और पुलिस थाने आग की लपटों में झोंक दिए गए. अवामी लीग के बड़े नेता भाग खड़े हुए या छिप गए.

नेपाल में ओली के आवास पर हमला किया गया और बाद में उसे आग के हवाले कर दिया गया, उन्हें हेलिकॉप्टर से भागने को मजबूर होना पड़ा. पूर्व गृह मंत्री रमेश लेखक, और माओवादी नेता पुष्प कमल दहल सहित बड़े नेताओं के घरों पर पथराव और तोड़फोड़ की गई. उपप्रधानमंत्री बिष्णु पौडेल को गुस्साई भीड़ ने सड़कों पर पीटा.

निर्णायक मध्यस्थ सेना

दोनों ही विद्रोहों में सेना की भूमिका निर्णायक साबित हुई. बांग्लादेश में सेना प्रमुख जनरल वकार-उज-जमान ने 4 अगस्त 2024 को सार्वजनिक घोषणा की कि उनके सैनिक लोगों पर गोली नहीं चलाएंगे. अगले दिन उन्होंने निजी तौर पर हसीना को इस्तीफा देने की सलाह दी, जिससे उन्हें देश छोड़कर भारत में शरण लेनी पड़ी.

नेपाल में ओली ने सेना प्रमुख जनरल अशोक राज सिग्देल से सुरक्षा की अपील की. इसके बजाय सिग्देल  ने उनसे पद छोड़ने का आग्रह किया, यह कहते हुए कि सेना तभी स्थिरता ला सकती है जब वे हट जाएं. ओली ने 9 सितंबर को इस्तीफा दे दिया और खाली जगह को भरने के लिए सेना आगे आई.

क्रांतियों को उलटती क्रांतियां

दोनों विद्रोहों में ऐतिहासिक विडंबना छिपी है. कभी भाषा आंदोलन और बांग्लादेश का निर्माण करने वाले 1971 के मुक्ति आंदोलन की अगली कतार में रही अवामी लीग पर अब वंशवादी विशेषाधिकार और निरंकुशता का आरोप लगाया जा रहा था. एक क्रांति की अगुआई करने वाली पार्टी को दूसरी क्रांति ने उखाड़ फेंका.

नेपाल में ओली की नेपाल कम्यूनिस्ट पार्टी ने 2008 में राजशाही को खत्म करने में केंद्रीय भूमिका अदा की थी. तिस पर भी 2025 में उनके इस्तीफे ने उन लोगों के हौसले बढ़ा दिए हैं जो राजशाही की वापसी का आह्वान कर रहे हैं. यह दिखाता है कि एक और क्रांति ने अपना चक्र पूरा कर लिया.

दक्षिणपंथी झुकाव?

दोनों विद्रोहों के बाद घटी घटनाएं इशारा करती हैं कि घड़ी का कांटा तेजी से दक्षिणपंथ की तरफ झुक सकता है. बांग्लादेश में यह बदलाव दिख भी रहा है. हाल में हुए ढाका विश्वविद्यालय छात्र संघ के चुनावों में बांग्लादेश जमात-ए-इस्लामी समर्थित उम्मीदवारों ने भारी जीत हासिल की. कभी दरकिनार कर दिए गए इन इस्लामी दक्षिणपंथियों के अब हौसले बुलंद हैं.

नेपाल में घटनाक्रम का रूप भले भिन्न दिखता हो, लेकिन निचोड़ मिलता-जुलता ही है. यहां ओली सरकार से मोहभंग के चलते हिंदू पहचान की राजनीति की वापसी के आह्वानों को और यहां तक कि राजशाही की बहाली की बुदबुदाहटों को जगह मिली. मोड़ उस हिंदू-राष्ट्रवादी पुनरोत्थान की तरफ है जो नेपाल की राजनीति को धर्म और परंपरा के घाट बांधना चाहता है. ढाका निवासी राजनैतिक टिप्पणीकार अल्ताफ परवेज ने लिखा : “विद्रोह के हाथों जबरदस्त भ्रष्ट सरकार को सत्ता से उखाड़ फेंक दिए जाने के बाद स्वाभाविक झुकाव अक्सर दक्षिणपंथी राजनीति की तरफ होता है. बांग्लादेश और नेपाल दोनों में ही ऐसा होने की संभावना है.”

अस्वीकृति के अग्रदूत युवा

श्रीलंका में 2022 के विरोध प्रदर्शनों से लेकर बांग्लादेश के 2024 के छात्र विद्रोह और अब नेपाल के Zen Z विद्रोह तक दक्षिण एशिया में हो रही सारी उथल-पुथल को धागे में पिरोने वाली अगर कोई एक थीम है, तो वह है युवाओं के हाथों राजनैतिक कुलीनों का थोक के भाव खारिज कर दिया जाना. चाहे वे भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद या आर्थिक हताशा के खिलाफ उठ खड़े रहे हों, नौजवान दोटूक बता रहे हैं कि वंशवादी और मुद्दतों से जड़ें जमाए बैठे नेतृत्व ने उनकी वफादारी गंवा दी है.

ढाका और काठमांडू के आंदोलन ताजातरीन सबूत भर हैं. छात्रों की विशाल भीड़ें, जिनमें से कई अभी स्कूल या विश्वविद्यालय में हैं, ऐसे नारे लगाते जुलूसों में निकल पड़े जिनके निशाने पर सीधे वे राजनीतिक परिवार थे जिन्होंने दशकों से सत्ता को अपना एकाधिकार बना लिया था. उनकी मांगें वाम और दक्षिण के पुराने विचाराधारा के विभाजनों से तय नहीं हो रही थीं, बल्कि उन्हें बाहर रखने वाली व्यवस्थाओं के खिलाफ पीढ़ीगत गुस्से से तय हो रही थीं.  कोलकाता निवासी राजनैतिक पत्रकार अर्का भादुड़ी लिखते हैं : “इनमें से हरेक मामलों पर गौर करें तो आप देखेंगे कि ये नौजवान राजनैतिक कुलीनों के हाथों अपने अधिकारों को छीने जाने से कितने हताश हैं; और अब वे उन्हें अस्वीकार करने के लिए भारी तादाद में सड़कों पर निकलकर आ रहे हैं.”

हसीना और ओली की हुकूमतों के पतन से दक्षिण एशिया की साझा हकीकत उभरकर सामने आती है : बेचैन युवा जड़ें जमाए बैठे कुलीनों को खारिज कर रहे हैं. आर्थिक निराशा, डिजिटल लामबंदी और विशेषाधिकारों के प्रति आक्रोश से फले-फूले ये विद्रोह दिखाते हैं कि मामूली-सी नाराजगी की चिंगारियां कैसे देखते ही देखते क्रांतियों को सुलगा सकती हैं, राजनीति को नए सिरे से गढ़ सकती हैं और समाजों को अनिश्चित, अक्सर दक्षिणपंथी, बदलावों की तरफ धकेल सकती हैं.

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