भारतीय राजनीति में कुछ भी संयोगवश नहीं होता. खासकर तब, जब दो चिर-प्रतिद्वंद्वी नेता खुले दिल से एक-दूसरे की तारीफ करें. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लंबे समय से प्रतिद्वंद्वी माना जाता रहा है.
इसलिए जब हाल ही में अमित शाह ने सीएम योगी की "बिना किसी जाति या धार्मिक पूर्वग्रह" के भारत की सबसे बड़ी पुलिस कांस्टेबल भर्ती को सफलतापूर्वक अंजाम देने के लिए दिल खोल कर तारीफ की, तो इसमें गहरे राजनीतिक मायने छिपे हुए थे.
15 जून को सीएम योगी की अगुआई में पुलिस भर्ती में चयनित 60 हजार 244 कांस्टेबल को नियुक्ति पत्र वितरित किए गए. इस मौके पर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह भी मौजूद थे. अमित शाह ने 'बिना किसी जाति या धार्मिक पूर्वग्रह' के सफलतापूर्वक इन नियुक्तियों को अंजाम देने के लिए सीएम योगी की तारीफ की.
ऊपरी तौर पर, यह अच्छे शासन का समर्थन था. लेकिन भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के अंदरूनी हलकों में इसे पार्टी के सबसे महत्वपूर्ण शक्ति समीकरणों में से एक में सावधानी से चुने गए समय पर एक रीसेट के रूप में देखा गया.
योगी का जवाब भी कुछ ऐसा ही था. उसी कार्यक्रम में बोलते हुए उन्होंने शाह को एक "कुशल रणनीतिकार" और "दूरदर्शी नेता" बताया और नियुक्ति समारोह में उनकी निजी मौजूदगी को "ऐतिहासिक" बताया.
कई लोगों के लिए, इन दोनों नेताओं का गर्मजोशी के साथ यह दुर्लभ मेल-मिलाप इस बात का स्पष्ट संकेत था कि ये दोनों दिग्गज, जो पहले अलग-अलग रास्तों पर चलते दिख रहे थे, अब सावधानी से रची गई सुलह की राह पर हैं और शायद एकता की ओर भी.
पार्टी के एक अंदरूनी सूत्र का कहना है कि पिछले दो सालों में दोनों ने कम से कम छह बार मंच साझा किया है. इनमें आर्थिक सम्मेलन से लेकर चुनाव प्रचार, सांस्कृतिक-धार्मिक आयोजन और बड़े राज्य समारोह शामिल हैं. लेकिन खासकर इस समय पर इन दोनों की आपसी सार्वजनिक प्रशंसा सभी का ध्यान खींच रही है.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और बीजेपी के अगुआ नियमित रूप से विचार-विमर्श करते हैं ताकि पार्टी के भविष्य पर सहमति बनाई जा सके, और अगले दशक से आगे की योजना बनाई जाए. एक साल से अधिक समय से राजनीतिक और नौकरशाही हलकों में अमित शाह और सीएम योगी के बीच तनाव की खुसपुस बढ़ रही थी.
यह सिर्फ अहंकार की बात नहीं थी, बल्कि संगठन की संरचना, पार्टी के भविष्य और नरेंद्र मोदी की विशाल विरासत को संभालने वाले दूसरे स्तर के नेताओं के बारे में थी. योगी-शाह के रिश्ते में भले ही कभी खुलकर टकराव नहीं हुआ, अक्सर एक सुनियोजित ठंडक दिखती थी. इसमें आपसी प्रशंसा की कमी थी, जो संघ परिवार की अत्यधिक नियोजित दुनिया में बहुत कुछ कहती थी.
शाह और योगी के बीच दरारें 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले ही दिखने लगी थीं. उस समय जोरदार अटकलें थीं, जिनकी कभी आधिकारिक तौर पर पुष्टि नहीं हुईं, लेकिन व्यापक रूप से मानी गईं कि पार्टी नेतृत्व का एक शक्तिशाली हिस्सा, जिसमें शाह का खेमा शामिल था, योगी को हटाना चाहता था.
उनकी चिंताएं प्रशासनिक दूरी से लेकर योगी की बढ़ती निजी लोकप्रियता तक थीं. इसमें आरएसएस को दखल देना पड़ा और योगी को राज्य में पार्टी के चेहरे के रूप में बनाए रखने का मजबूत समर्थन करना पड़ा. योगी ने भारी जीत हासिल करके इस समर्थन का बदला चुकाया. लेकिन उत्तराधिकार का सवाल अभी भी खत्म नहीं हुआ था.
2024 में यह तनाव फिर से उभरा, जब बीजेपी का यूपी में लोकसभा चुनाव में प्रदर्शन निराशाजनक रहा. पार्टी ने 80 में से केवल 37 सीटें जीतीं, जो 2019 आम चुनाव में जीती गईं 62 सीटों के मुकाबले काफी कम थीं.
इस खराब प्रदर्शन ने न सिर्फ बीजेपी के बहुमत के आंकड़े को कमजोर किया, बल्कि कांग्रेस और समाजवादी पार्टी जैसे प्रतिद्वंद्वियों को अपने नैरेटिव में नई जान फूंकने का मौका भी दिया. इसने आरोप-प्रत्यारोप के एक नए दौर को भी शुरू कर दिया, जिसमें जमीन पर समर्थन न जुटा पाने के लिए योगी के प्रशासन पर और अलोकप्रिय उम्मीदवारों को थोपने और कार्यकर्ताओं में जोश भरने में विफल रहने के लिए शाह की केंद्रीकृत प्रचार मशीनरी पर उंगलियां उठाई गईं.
आम चुनाव में मिले झटके ने अफवाहों को और बढ़ा दिया कि दोनों नेता एक-दूसरे के खिलाफ काम कर रहे थे. चर्चा और तेज हुई कि शाह ने योगी के डिप्टी केशव प्रसाद मौर्य और बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव सुनील बंसल के बीच चुपके से गठजोड़ का समर्थन किया था. बंसल पहले यूपी में संगठन महासचिव थे और अपनी तेज संगठनात्मक समझ और शाह के करीबी होने के लिए जाने जाते थे. मौर्य ने खुलकर कहा कि राज्य का प्रशासन पार्टी के साथ तालमेल में नहीं था. बंसल ने चुपके से टिकट बंटवारे और दिल्ली के साथ समन्वय में नियंत्रण रखा था.
बीजेपी के हलकों में इसे सत्ता का नया संतुलन माना गया. योगी भले ही मुख्यमंत्री थे, लेकिन सारी चीजें अभी भी नागपुर और दिल्ली से नियंत्रित हो रही थीं. इस दोहरे नियंत्रण से असहजता पैदा हुई. क्या पार्टी उत्तर प्रदेश जैसे अहम राज्य में दो समानांतर नेतृत्व संरचनाओं को बर्दाश्त कर सकती थी?
इस साजिश को और गहरा करने वाली बात थी दोनों खेमों की ओर से जानबूझकर चुप्पी. योगी ने मौर्य के आरोपों का जवाब देने या अपनी स्थिति स्पष्ट करने से इनकार कर दिया. शाह भी उतने ही सतर्क रहे. उन्होंने कभी भी आलोचना का एक शब्द नहीं कहा, चाहे खुले तौर पर या पत्रकारों के साथ ऑफ-द-रिकॉर्ड बातचीत में.
यह खलबली वास्तविक थी, भले ही इसे कभी औपचारिक रूप से स्वीकार नहीं किया गया हो. राज्य के भीतर और बाहर के प्रतिद्वंद्वी खेमों ने खुशी-खुशी इस बढ़ती दरार की ओर इशारा किया. कांग्रेस नेताओं ने निजी बातचीत में बीजेपी के सबसे बड़े गढ़ में "गृहयुद्ध" का जिक्र किया. समाजवादी पार्टी के रणनीतिकारों ने इसे "डबल इंजन, आउट ऑफ गियर" करार दिया.
फिर भी सबसे खुलासा करने वाला क्षण इस साल की शुरुआत में इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में आया, जहां योगी से बीजेपी में स्पष्ट "उत्तराधिकार की लड़ाई" के बारे में पूछा गया. उनका जवाब था: "बीजेपी में कोई उत्तराधिकार युद्ध नहीं है. हम विचारधारा पर काम करते हैं, उत्तराधिकार पर नहीं." यह बयान पार्टी अनुशासन के सभी मानकों के अनुरूप था, लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों ने इसे उनकी स्वतंत्र लोकप्रियता की पुष्टि के रूप में देखा, जो संरक्षण पर नहीं, बल्कि जमीनी समर्थन पर आधारित थी.
यह जमीनी स्तर पर जुड़ाव ही है जो योगी को बीजेपी में इतनी अनोखी ताकत बनाता है. वे ऐसे विरले नेता हैं जो भीड़ जुटाने के लिए मोदी ब्रांड पर निर्भर नहीं रहते. उनका हिंदुत्व पूरी तरह से कट्टर है, उनकी प्रशासनिक शैली निरंकुश है और मूल हिंदू मतदाताओं के बीच उनकी लोकप्रियता अडिग है. लेकिन यही स्वतंत्रता लंबे समय से दिल्ली में पार्टी के आकाओं के लिए परेशानी का सबब रही है. उनके लिए योगी एक शक्तिशाली लेकिन अप्रत्याशित ताकत का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो बेहद उपयोगी है, लेकिन उसे अपने वश में करना उतना ही मुश्किल.
विधानसभा चुनावों के नैरेटिव में, अगर योगी ने अपने नारे "बंटोगे तो कटोगे" के साथ हिंदुत्व की चेतना को जगाया, तो बीजेपी मशीनरी को "एक हैं तो सेफ हैं" का नैरेटिव गढ़ना पड़ा. ये नारे एक-दूसरे के खिलाफ थे या एक ही नैरेटिव का हिस्सा थे, इस बारे में पार्टी में किसी ने स्पष्ट नहीं किया.
इसके उलट, शाह बीजेपी की चुनावी जीत के रचनाकार हैं. उनकी महारथ डेटा के आधार पर मतदाता वर्गीकरण, मुश्किल उम्मीदवार चयन और चुनावी अभियानों को कुशल वॉर मशीन में बदलने में है. वे नियंत्रण, एकरूपता और कमांड की श्रृंखला को महत्व देते हैं. योगी की लोकप्रियता और उनका संत जैसा आभामंडल हमेशा इस मॉडल में पूरी तरह फिट नहीं बैठता था. इसलिए तनाव था. लेकिन हाल के उनके बीच सार्वजनिक प्रशंसा के आदान-प्रदान से संकेत मिलता है कि कुछ बदल गया है, और इसका कारण संघ परिवार का चुपके से नियंत्रण फिर से स्थापित करना हो सकता है.
पिछले एक साल में आरएसएस ने बीजेपी के सांगठनिक इकोसिस्टम पर अपनी पकड़ मजबूत की है. एक दशक तक, जब मोदी-शाह की जोड़ी ने सत्ता को पहले जैसा केंद्रीकृत किया, तब आरएसएस ने सूक्ष्म लेकिन मजबूत संदेश के साथ वापसी की है.
इसने कैबिनेट मंत्रियों, राज्यपालों और उम्मीदवारों की प्रमुख नियुक्तियों को वैचारिक आधार पर सुनिश्चित किया है. इसने चुनावी अभियानों को फिर से सांस्कृतिक और सभ्यतागत थीम की ओर मोड़ा है. सबसे अहम, इसने नैरेटिव पर नियंत्रण, वैचारिक अनुशासन और गुटबाजी के विवादों पर अपनी सर्वोच्चता को फिर से स्थापित किया है.
निजी बातचीत में, वरिष्ठ संघ नेताओं ने कथित तौर पर योगी और शाह दोनों को बताया है कि मोदी के बाद के रोडमैप में आंतरिक प्रतिद्वंद्विता बर्दाश्त नहीं की जाएगी. बीजेपी की अगली पीढ़ी के नेतृत्व को संघ की वैचारिक और संगठनात्मक ढांचे के भीतर काम करना होगा. महत्वाकांक्षा ठीक है, लेकिन बाधाएं स्वीकार्य नहीं है.
इस दखल का गंभीर प्रभाव पड़ा है. शाह के लिए, इसका मतलब था अपनी नियंत्रण की प्रवृत्ति को समायोजित करके मजबूत क्षेत्रीय नेताओं को जगह देना. योगी के लिए, अपनी व्यक्तिगत शैली को कम करना और सामूहिक निष्ठा की पुष्टि करना जरूरी था. दोनों का गले मिलना - चाहे असली हो या प्रतीकात्मक - प्यार से ज्यादा रणनीतिक अनुशासन के बारे में है. यह आरएसएस के सहयोग का सिद्धांत है, जिसे वास्तविक समय में लागू किया जा रहा है.
यह बीजेपी के अगले बड़े सवाल, उत्तराधिकार की बहस के लिए मंच तैयार करता है. अब जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक गठबंधन सरकार चला रहे हैं और 2029 तक तीन कार्यकाल पूरे करेंगे, नेतृत्व बदलने का सवाल अब सिर्फ अनुमान नहीं है. क्या शाह, जो संगठन में अहम भूमिका निभाते हैं, अगले नेता बनेंगे? या योगी, जो अपनी लोकप्रियता और कट्टर हिंदुत्व छवि के लिए जाने जाते हैं, मोदी के बाद उनकी विचारधारा को आगे बढ़ाएंगे? योगी की हिंदुत्व अपील बीजेपी के कोर वोटर में बहुत प्रभाव रखती है, जो मोदी के बाद सबसे ज्यादा है.
सच तो यह है कि दोनों में से कोई भी स्वतंत्र रूप से इस पद का दावा नहीं कर सकता. 2024 के बाद की गठबंधन सरकार ने बीजेपी के वर्चस्व को कमजोर कर दिया है, और सर्वसम्मति और नियंत्रण के तर्क को फिर से पेश किया है. इस बात से पूरी तरह वाकिफ आरएसएस एक अधिक संतुलित, विकेंद्रीकृत सत्ता संरचना की नींव रख रहा है, जहां न तो शाह की संगठनात्मक ताकत और न ही योगी का करिश्मा अनियंत्रित रूप से हावी हो सके.
इस संदर्भ में बंसल एक अहम खिलाड़ी बने हुए हैं. हालांकि अब वे दिल्ली में हैं, लेकिन वे यूपी की पार्टी मशीनरी पर अपना प्रभाव बनाए हुए हैं. शाह और आरएसएस दोनों का विश्वास हासिल करने वाले व्यक्ति के रूप में, वे इस पुनर्संतुलन को बनाए रखने में सहायक हो सकते हैं. चुनावी व्यावहारिकता के साथ तालमेल बिठाते हुए राज्य इकाइयों को वैचारिक रेखा पर लाने में उनकी भूमिका और बढ़ेगी.
आखिरकार, शाह-योगी के बीच की असली कहानी यह नहीं है कि दोनों नेताओं को अचानक एक-दूसरे की प्रशंसा का अहसास हुआ. बल्कि यह है कि पार्टी ने, या अधिक सटीक रूप से कहें तो इसके पीछे की वैचारिक शक्ति ने एक दिशा-निर्देश तय किया. बीजेपी की तीसरी बार की सरकार आंतरिक दरारों को बर्दाश्त नहीं कर सकती, खासकर यूपी जैसे चुनावी रूप से अहम राज्य में. विपक्ष के फिर से उभरने के साथ, एकता सिर्फ जरूरी नहीं, यह पार्टी के अस्तित्व के लिए अनिवार्य है.
इस तरह, हाल की स्नेह भरी तस्वीरों को सामान्य फोटो सेशन समझकर नजरअंदाज नहीं करना चाहिए. ये सावधानी से बनाए गए संकेत हैं, जो कार्यकर्ताओं और आलोचकों दोनों के लिए हैं. यह सार्वजनिक सौहार्द कार्यकर्ताओं के लिए एक संदेश है: नेतृत्व एकजुट है, रास्ता साफ है, और पार्टी आंतरिक झगड़ों में उलझने के बजाय भविष्य पर ध्यान दे रही है.
आज की बीजेपी में निजी महत्वाकांक्षा को अब वैचारिक एकता का मुखौटा पहनना होगा. यही आरएसएस का नया सिद्धांत है, और फिलहाल अमित शाह और योगी आदित्यनाथ दोनों ही नियम-कायदों के हिसाब से चल रहे हैं.